Bcom 2nd Year Public Finance Public Expenditure

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Bcom 2nd Year Public Finance Public Expenditure
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लोक/सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)

प्रश्न 9, सार्वजनिक व्यय के उद्देश्य, महत्त्व एवं विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए|

(Buldelkhand, 2012)

अथवा

सार्वजनिक व्यय किन सिद्धान्तों के अनुसार होना चाहिए? इनकी पूर्ण विवेचना कीजिए। क्या भारत में सार्वजनिक व्यय इन सिद्धान्तों पर आधारित है?

अथवा

सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। व्यवहार में इनका कहाँ तक पालन किया जाता है?

(Avadh, 2007)

अथवा

सार्वजनिक व्यय से क्या अभिप्राय है? सार्वजनिक व्यय के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

(Meerut, 2009)

उत्तर-

सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त (Principles or Canon of Public Expenditure)

सार्वजनिक व्यय का सामाजिक कल्याण और धन के उत्पादन एवं वितरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अत: अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय के सम्बन्ध में कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जिनका पालन करके अधिकतम सामाजिक लाभ के साथ-साथ सार्वजनिक व्ययों के दुरुपयोग पर भी रोक लगती है। फिण्डले शिराज ने सार्वजनिक व्यय के निम्न चार सिद्धान्त बताए हैं-

(1) लाभ का सिद्धान्त (Canon of Benefit)- यह सार्वजनिक व्यय का आधारभूत सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय सम्पूर्ण समाज के लाभ को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। अतः सार्वजनिक व्यय करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अधिक-से-अधिक लोगों को ज्यादा-से-ज्यादा लाभ मिल सके और ताकि जनता को यह विश्वास बना रहे कि उन्हें उनके त्याग का उचित प्रतिफल मिल रहा है।

(2) मितव्ययिता का सिद्धान्त (Canon of Economy)- मितव्ययिता से आशय कंजूसी करना नहीं बल्कि अनावश्यक व्ययों से बचते हुए केवल आवश्यक मदों पर व्यय करना है। प्राय: सरकारी धन “किसी का धन नहीं’ समझकर लापरवाही से खर्च कर दिया या जाता है जोकि उचित नहीं है। संक्षेप में, इस सिद्धान्त के अनुसार, व्यय करते समय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
(i) आवश्यकता से अधिक धन व्यय न हो, (ii) उत्पादन शक्ति व बचत क्षमता पर सार्वजनिक व्यय का प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, (iii) भविष्य में आय वृद्धि की सम्भावना बनी रहे, (iv) वर्तमान तथा भविष्य को आवश्यकता पर व्यय का बँटवारा अनुकूलतम हो।

(3) स्वीकृति का सिद्धान्त (Canon of Sanction)- इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि बिना स्वीकृति के कोई भी व्यय नहीं किया जाना चाहिए। सार्वजनिक कोषों को दुरुपयोग से बचाने एवं मितव्ययिता का पालन करने के लिए व्यय की पूर्व-स्वीकृति लेना आवश्यक है। यदि स्वीकृति के नियम का पालन किया जाता है तो इस बात का आसानी से पता लगाया ॥ जा सकता है कि किस मद के व्यय का उत्तरदायित्व किस अधिकारी पर है। इस प्रक्रिया को ?) अपनाने से यद्यपि कुछ देरी अवश्य होती है परन्तु मितव्ययिता एवं ईमानदारी के लिए यह सिद्धान्त आवश्यक है। संक्षेप में इस सिद्धान्त की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-
(i) सार्वजनिक व्यय करने से पूर्व सम्बन्धित अधिकारियों से स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य होना चाहिए।’
(ii) स्वीकृत राशि से अधिक व्यय नहीं किया जाना चाहिए, तथा
(iii) जिस कार्य, उद्देश्य एवं क्षेत्र के लिए व्यय करने की स्वीकृति मिली हो, उसी के लिए व्यय करना चाहिए।

(4) आधिक्य का सिद्धान्त (Canon of Surplus)- फिण्डले शिराज के अनुसार में सरकार को अपना व्यय कभी भी आय से अधिक नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार से एक व्यक्ति अपनी आय के अनुसार अपने व्यय को निर्धारित करता है उसी प्रकार से सरकार को भी चाहिए कि वह भी अपना बजट बनाते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखे कि घाटे की अर्थव्यवस्था (Deficit Financing) की आवश्यकता न पड़े। जहाँ तक सम्भव हो सके सन्तुलित बजट (Balancing Budget) बनाना चाहिए। हाँ, परिस्थितिवश सरकार घाटे का बजट बना सकती है तथा उत्पादक कार्यों के लिए ऋण ले सकती है।)
अन्य सिद्धान्त-उपर्युक्त चार सिद्धान्तों के अतिरिक्त सार्वजनिक व्यय के सम्बन्ध में कुछ अन्य सिद्धान्त भी प्रातपादित किए गए हैं, जिनकी विवेचना निम्न प्रकार है-

(5) लोच का सिद्धान्त (Canon of Elasticity)- लोच का अर्थ यह है कि = सार्वजनिक व्यय को आवश्यकतानुसार घटाया-बढ़ाया जा सके। व्यय को बढ़ाना अत्यन्त
सरल होता है परन्तु उसमें कमी करना बहुत कठिन होता है। अतः लोक व्यय का ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए, कि बिना कठिनाई के व्यय के कुछ भाग को कम किया जा सके। सार्वजनिक व्यय में लोच बनाए रखने का एक सरल उपाय यह है कि स्थायी प्रकृति के व्यय में वृद्धि धीरे-धीरे करनी चाहिए क्योंकि अस्थायी रूप से बढ़ाया गया व्यय तो घटाया जा सकता है जबकि स्थायी व्यय को घटाने पर जनता में असन्तोष उत्पन्न होने लगता है।

(6) उत्पादकता का सिद्धान्त (Canon of Productivity)- इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार की व्यय नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे देश में उत्पादन वृद्धि को बढ़ावा मिले। इसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यय की प्रकृति उत्पादक होनी चाहिए, अनुत्पादक नहीं अर्थात् लोक-व्यय से उद्योगों की स्थापना हो, रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो, जीवन-स्तर में सुधार हो तथा बचत एवं विनियोग प्रोत्साहित हों।

(7) वितरण में समानता का सिद्धान्त (Canon of Equitable Distributor,) इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय इस प्रकार किया जाना चाहिए कि धन के वितरण की असमानता को दूर किया जा सके अर्थात् देश में आर्थिक विषमता दूर हो सके। इसके लिए यह आवश्यक है कि निर्धनों के ऊपर तुलनात्मक रूप से अधिक व्यय किया जाए। इसीलिए अधिकतर सरकारें शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा आदि पर अधिक मात्रा में व्यय करती हैं।

(8) समन्वय का सिद्धान्त (Canon of Co-ordination)- भारत जैसी संघात्मक (Federal) वित्त-व्यवस्था में लोक व्यय में समन्वय के सिद्धान्त पर भी जोर दिया जाता है। इस सिद्धान्त का अर्थ है कि विभिन्न सरकारों अर्थात् केन्द्रीय, राज्य एवं स्थानीय सरकारों के व्ययों में समन्वय रहना चाहिए, जिससे ऐसा न हो कि कुछ मदों पर तो व्यय में दोहरापन हो जाये और कुछ मदों पर व्यय ही न हो।

भारत में सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का पालन

सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का अध्ययन करने के पश्चात् यह विश्लेषण उचित होगा कि इन सिद्धान्तों का भारत में कहाँ तक पालन किया जा रहा है ,

(1) लाभ का सिद्धान्त- भारत में सार्वजनिक व्ययों में लाभ के सिद्धान्त का अधिकतम पालन करने का प्रयास किया जा रहा है। इस दृष्टि से व्ययों को विभिन्न विकासात्मक, प्रशासनिक और सुरक्षात्मक कार्यों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि
समाज को अधिकाधिक लाभ मिल सके।

(2) मितव्ययिता का सिद्धान्त- भारत में सैद्धान्तिक रूप से तो मितव्ययिता के सिद्धान्त को अपनाने पर जोर दिया जाता रह , है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से प्रशासनिक शिथिलता और अकुशलता के कारण इस सिद्धान्त का पालन नाममात्र ही हो पाता है।

(3) स्वीकृति का सिद्धान्त- भारत में वैधानिक दृष्टि से स्वीकृति के सिद्धान्त को पूर्ण रूप से अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत संसद अथवा विधान सभा से व्ययों की स्वीकृति के पश्चात् उनके सम्बन्ध में प्रशासकीय स्वीकृति और तकनीकी स्वीकृति पर जोर दिया जाता है। स्वीकृति के सिद्धान्त के पालन की जाँच के लिए अंकेक्षण का प्रावधान भी है।

(4) आधिक्य बचत का सिद्धान्त- भारत एक विकासशील राष्ट्र है और अधिक नियोजन के माध्यम से विकास योजनाओं में संलग्न है। इस दष्टि से भारत में बचत के सिद्धान्त का पालन नहीं हो पाया है और प्राय: सभी राज्यों और केन्द्रीय सरकार द्वारा घाटे की वित्त-व्यवस्था की नीति अपनायी जा रही है।

(5) लोच का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त को आंशिक रूप से ही अपनाना सम्भव हो सका है क्योंकि सरकारी कार्य-क्षेत्र और उत्तरदायित्वों में वृद्धि होने का कारण त्यय निरन्तर बढ़ते रहे हैं और आय कम होने पर व्ययों को उसी के अनुसार कम करने में कठिनाई रही-

(6) उत्पादकता का सिद्धान्त- सरकार ने नीति के रूप में उत्पादकता के सिद्धान्त को अपनाया है, लेकिन मितव्ययिता के सिद्धान्त का पूरा पालन न होने के कारण उत्पादकता के सिद्धान्त का भी पूरी तरह से पालन नहीं हो पाता।

(7) समान वितरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का एक बड़ी सीमा तक पालन किया जाता है और पिछड़े, अविकसित तथा पहाड़ी क्षेत्रों और निर्धन वर्गों पर बड़ी मात्रा में व्यय किया जा रहा है।

(8) समन्वय का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त को भी लगभग पूरी तरह अपनाया गया है। केन्द्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों के मध्य आय और व्ययों के स्रोतों के स्पष्ट विभाजन तथा उचित समायोजन की व्यवस्था है।

लोक व्यय का महत्त्व एवं उद्देश्य (Importance and Objects of Public Expenditure)

प्राचीन समय में लोक व्यय को बहुत कम महत्त्व दिया जाता था। वस्तुतः उस समय सार्वजनिक व्यय को अनावश्यक, अनुत्पादक और अपव्यय समझा जाता था और इसीलिए सरकार (राज्य) को केवल आधारभूत कायों के लिये और वह भी सीमित मात्रा में व्यय करने पर जोर दिया जाता था।

धीरे-धीरे राज्य के उत्तरदायित्व बढ़ने लगे और इसके कार्यों में वृद्धि होने लगी तो लोक व्यय का महत्व भी बढ़ने लगा। आज स्थिति यह हो गयी है कि सरकारें अपने कार्यों को पूरा करने के लिए अपनी आयों से भी अधिक व्यय करती हैं। लोक व्यय के महत्व की चर्चा करते हुए प्लेहन ने लिखा है कि “व्यय, आय को एकत्रित करने तथा राज्य की अन्य वित्तीय क्रियाओं का उद्देश्य एवं साध्य है।” फिण्डले शिराज ने कहा है कि “लोक वित्त का कोई अन्य भाग ऐसा नहीं है जिसने राजस्वशास्त्रियों, वित्त विशेषज्ञों तथा लेखकों द्वारा इतना महत्व प्राप्त किया हो जितना कि लोक व्यय ने।” वास्तव में सार्वजनिक व्यय का राजस्व में उतना ही महत्व है जितना कि अर्थशास्त्र में उपभोग का है। आधुनिक समय में सार्वजनिक व्यय को राज्य की क्रियाओं का आदि और अन्त दोनों ही माना जाता है। राजस्व की सभी क्रियायें इसी के चारों ओर चक्कर लगाती हैं।

संक्षेप में, लोक व्यय के महत्व का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) आर्थिक विकास एवं नियोजन में सहायक-वर्तमान समय में प्रत्येक देश ने अपने आर्थिक विकास के लिये आर्थिक नियोजन को अपना रखा है। आर्थिक नियोजन की सफलता में लोक व्यय का अत्यधिक महत्व है क्योंकि –

(अ) आर्थिक नियोजन का संचालन करने के लिए लोक व्यय की राशि में वृद्धि करनी होती है।

(ब) आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए विभिन्न मदों पर लोक व्ययों का उचित वितरण करना होता है।

(स) आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सरकार को स्वयं अनेक लोक उपक्रमों का संचालन करना पड़ता है, इसके लिये भी पर्याप्त मात्रा में लोक व्यय करना होता है।

(द) आर्थिक विकास के लिए पूँजी निर्माण की गति में वृद्धि करनी होती है जिसमें लोक व्यय की प्रभावशाली भूमिका रहती है।

2) आय तथा सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं में कमी- आज प्राय: प्रत्येक देश में आय तथा सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं को कम करने पर जोर दिया जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति में लोक व्यय की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। लोक व्यय की उचित नीति द्वारा निम्न वर्गों पर अधिक व्यय करके उन्हें प्रगति की ओर प्रेरित किया जा सकता है।

आर्थिक स्थायित्व- आर्थिक स्थायित्व बनाये रखने में भी लोक व्यय का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। मन्दी की स्थिति में लोक व्यय में इस प्रकार से वृद्धि की जाती है कि उससे विनियोग, पूँजी निर्माण और रोजगार में वृद्धि हो तथा अर्थव्यवस्था को मन्दी के प्रभावों से मुक्त किया जा सके। इसके विपरीत तेजी काल में लोक व्ययों को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि आवश्यक व्ययों पर रोक लग सके एवं शीघ्र फलदायक योजनाओं में उत्पादक व्ययों के द्वारा देश की कुल उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो सके एवं मुद्रा स्फीति का प्रभाव कम हो जाये।
(4) सामाजिक सुरक्षा- शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, सामाजिक सुरक्षा व पिछड़े वर्गों के विकास में लोक व्यय महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
शान्ति एवं व्यवस्था-देश में आन्तरिक शान्ति, कानून एवं व्यवस्था तथा विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा की दृष्टि से भी लोक व्यय अति महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 10, आधुनिक काल में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण बताइये। इस सम्बन्ध में वैगनर तथा पीकॉक वाइजमैन अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।

अथवा

वर्तमान में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के क्या कारण हैं? बढ़ते हुए सार्वजनिक व्यय को आप कैसे न्यायोचित ठहरायेंगें?

(Avadh, 2008)

अथवा

सार्वजनिक व्यय से आप क्या समझते हैं एवं हाल के वर्षों में सार्वजनिक व्यय में हुई वृद्धि के कारणों की व्याख्या कीजिए।

(Garhwal, 2007 and 2008 B)

अथवा

आधुनिक काल में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण बताइए। बढ़ते हुए व्ययों में क्या खतरे निहित हैं?

(Meerut, 2007)

अथवा

“सरकार को जितना अधिक वह व्यय कर सकती है, व्यय करना चाहिए।” इस विचार की व्याख्या कीजिए। बढा हुआ राजकीय व्यय किस प्रकार व्यक्ति एवं राष्ट्र को प्रभावित करता है?

(Meerut, 2006)

उत्तर-

सार्वजनिक या लोक व्यय में वृद्धि के कारण (Reasons for the Growth of Public Expenditure)

आधुनिक युग में विश्व के सभी देशों में लोक व्यय में अत्यधिक वृद्धि हुई है। लोक व्यय में वृद्धि होने का प्रमुख कारण यही है कि आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य (Welfare State) होते हैं जिसके लिये प्रत्येक सरकार को अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा (Social Security) हेतु अनेक सुविधायें उपलब्ध करानी होती हैं। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार (Full Employment) की स्थिति लाने तथा आर्थिक विकास की गति को तेज करने के लिए भी सरकार को अत्यधिक विनियोग (Investment) करना पड़ता है।
गत वर्षों में विश्व के प्रत्येक देश के लोक व्यय में अत्यधिक वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये भारत सरकार का 1950-51 में कुल सार्वजनिक व्यय 900 करोड़ रुपये था जो 1990-91 में 1,62,084 करोड़ रुपये हो गया। 2006-07 वर्ष के संशोधित अनुमानों के आधार पर सार्वजनिक व्यय 11,48,267 करोड़ रुपये है। इसी प्रकार की स्थिति अन्य देशों में भी रही है। लोक व्यय की वृद्धि के प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं-

(1) जनसंख्या में वृद्धि- विश्व के सभी देशों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण सरकार को बढ़ी हुई जनसंख्या के लिये खाद्यान्न, आवास, स्वास्थ्य शिक्षा आदि पर अधिक मात्रा में व्यय करना पड़ता है। वस्तुतः जनसंख्या वृद्धि का सीधा प्रभाव सरकारी व्यय पर पड़ता है। 1951 में भारत की जनसंख्या लगभग 36 करोड़ थी जो 2001 में बढ़कर 102,7 करोड़ एवं 2005-06 के अन्त तक 111 करोड़ तक पहुँच गई है।
(2) सरक्षा व्यय में वृद्धि- देश की सुरक्षा का दायित्व आज सरकार का सबसे बड़ा दायित्व है क्योंकि देश की सम्प्रभुता की रक्षा सबसे ज्यादा आवश्यक है। इस उद्देश्य से प्रत्येक देश को अपनी सुरक्षा के लिए आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रहना पड़ता है। यदि देश की रक्षा के लिए युद्ध करना पड़ता है तो युद्ध पर भारी मात्रा में व्यय करना होता है। भारत में 1951-52 में जहाँ सुरक्षा व्यय 169 करोड़ रुपये था वहीं यह 2008-09 में बढ़कर लगभग 1,05,600 करोड़ रुपये हो गया है।
(3) राज्य के कल्याणकारी कार्य- आय और सम्पत्ति के वितरण में असमानता को दर करने एवं सामाजिक न्याय की स्थाना के उद्देश्य से, आजकल सरकार ने कल्याणकारी कार्य अपने हाथ में ले लिए हैं। इन कार्यों के अन्तर्गत शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार वद्धावस्था, पेंशन, श्रमिकों की बीमारी और दुर्घटना के समय आर्थिक सहायता, । बेरोजगारी भत्ता, आवास सुविधा, आदि का समावेश होता है। इन बढ़ते हुए कार्यों के कारण सरकार को अधिक मात्रा में सार्वजनिक व्यय करना पड़ता है।
(4) उद्योगों का समाजीकरण अथवा राष्ट्रीयकरण- समाजवादी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अथवा एकाधिकारी शक्तियों को समाप्त करने के लिए सरकारें कुछ उद्योगों पर सामाजिक नियन्त्रण लागू कर देती हैं अथवा उनका राष्ट्रीयकरण कर देती हैं। इसके फलस्वरूप सरकार को भारी मात्रा में मुआवजा देना पड़ता है तथा बड़े पैमाने के उत्पादन को संचालित करना पड़ता है। इसके फलस्वरूप सरकारी व्यय में काफी वृद्धि होती है।
(5) आर्थिक नियोजन-आधुनिक समय में अधिकतर देश आर्थिक विकास के लिए आर्थिक नियोजन अपना रहे हैं। इसके अन्तर्गत सरकार को आर्थिक विकास की योजनाओं पर भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है जिससे सार्वजनिक व्यय में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र में किये जाने वाले व्यय में भारी वृद्धि हुई है। प्रथम योजना में यह व्यय 1,960 करोड़ रु० था जो दसवीं योजना में बढ़कर 15,92,300 करोड़ रु० हो गया है।
(6) प्रशासनिक व्यय में वृद्धि- सरकार के बढ़ते हुए कार्यों ने नौकरशाही को जन्म दिया है जिसे चलाने के लिए सरकार को भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त लोकतन्त्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार को चुनाव, मन्त्रिमण्डलों, कमेटियों और आयोगों के गठन पर भी काफी व्यय करना पड़ता है।
(7) मूल्यों में वृद्धि- विश्व के प्रायः सभी देशों में कीमतें बढ़ रही हैं जिसके कारण सार्वजनिक व्यय में काफी वृद्धि हो रही है। मूल्य वृद्धि के कारण न केवल सरकारी योजनाओं पर होने वाला व्यय बढ़ जाता है बल्कि सरकारी कर्मचारियों को भुगतान किये जाने वाले वेतन एवं महँगाई भत्तों में भी वृद्धि हो जाती है।
(8) उत्पादकों को आर्थिक सहायता- देश के आर्थिक विकासाके लिए सरकार द्वारा किसानों और उद्योगपतियों को काफी मात्रा में ऋण, अनुदान एवं आर्थिक सहायता दी जाती है जिससे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है। जहाँ केन्द्र सरकार द्वारा आर्थिक सहायता पर कुल व्यय 1990-91 में 9,581 करोड़ रुपये था, वह 2000-01 में बढ़कर 26,838 करोड़ रुपये पहुँच गया तथा 2008-09 में बढ़कर 71,431 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।
(9) अविकसित राष्ट्रों को सहायता- विकसित राष्ट्रों के द्वारा अर्द्धविकसित राष्ट्रों को आर्थिक विकास के लिए काफी मात्रा में आर्थिक सहायता दी जा रही है जिसके कारण भी विभिन्न राष्ट्रों के सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो गयी है।
(10) प्राकृतिक विपत्तियाँ- प्राकृतिक प्रकोप जैसे बाढ़, अकाल, सूखा, महामारी, भूकम्प आदि से मुक्ति पाने के लिए सरकार को भारी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है जिससे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो रही है।
(11) राष्ट्रीय और जीवन स्तर में सुधार- आर्थिक विकास होने के कारण विश्व के सभी देशों की राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है और वहाँ के निवासियों के जीवन स्तर में सुधार हआ है। इससे उनकी करदान क्षमता में वृद्धि हुई है और फलस्वरूप राज्य की आय में वृद्धि हुई है और साथ ही लोक व्यय में भी वृद्धि हुई है।
(12) सार्वजनिक ऋणों पर बढ़ता ब्याज भार- भारत में केन्द्र तथा राज्य सरकारों के सार्वजनिक ऋणों में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण उन पर ब्याज के भुगतान का भार लगातार बढ़ता जा रहा है। जहाँ 1950-51 में सार्वजनिक ऋणों पर ब्याज भुगतान का भार केवल 37 करोड़ रुपये था वहीं यह 2000-01 में बढ़कर 99,314 करोड़ रुपये तथा 2008-09 में बढ़कर 1,90,807 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

सार्वजनिक व्यय (परिकल्पनाएँ) {(Public Expenditure (Hypothesis)}

सार्वजनिक व्यय में निरन्तर होती जा रही वृद्धि के कारणों को समझने के लिये कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया जिनमें दो सिद्धान्त (परिकल्पनाएँ) मुख्य हैं-

1, वैगनर का राज्य के बढ़ते क्रियाकलापों का सिद्धान्त (Wagner’s Law of Increasing State Activities)- सार्वजनिक व्यय में हो रही वृद्धि के विषय में जर्मन अर्थशास्त्री एडोल्फ वैगनर ने 19वीं शताब्दी में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के द्वारा वैगनर ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि आर्थिक विकास के स्तर में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ राज्य के क्रियाकलापों में अर्थात् लोक व्यय में तेजी से वृद्धि होती जाती है। वैगनर के अनुसार, “विभिन्न देशों तथा विभिन्न कालों का सामयिक विश्लेषण यह प्रकट करता है कि प्रगतिशील राष्ट्रों में केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों की क्रियाओं में नियमित रूप से वृद्धि होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यह वृद्धि गहन तथा व्यापक दोनों प्रकार की होती है। केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक तरफ नए कार्यों को अपनाती हैं तो दूसरी तरफ पुराने कार्यों को वे पहले की अपेक्षा अधिक दक्षता व कुशलता के साथ सम्पन्न करती हैं।” इस प्रकार, अर्थव्यवस्थाओं के विकास के साथ-साथ राज्य के व्यय के सभी मदों में वृद्धि हो जाती है।

वैगनर के अनुसार, राज्यों के विभिन्न मदों में वृद्धि की प्रवृत्ति के दो कारण हैं। प्रथम-राज्य की सेवाओं के प्रति माँग की लोच एक से अधिक होती है तथा द्वितीय जैसे-जैसे आर्थिक विकास होता जाता है, सार्वजनिक क्षेत्र का महत्त्व निजी क्षेत्र की अपेक्षा बढ़ता जाता है।” वैगनर ने राज्य के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया है-

(1) आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा सम्बन्धी कार्य (2) कल्याणकारी कार्य

वैगनर की धारणा है कि आर्थिक विकास के साथ-साथ समाज में जटिलता तथा विषमता की वृद्धि होती है। समाज में अपराध बढ़ते हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा पर व्यय निरन्तर बढ़ाना पड़ता है। आधुनिक समय में देश की प्रतिरक्षा हेतु किया जाने वाला व्यय सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। राज्य के कल्याणकारी कार्यों में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। उदाहरणत: शिक्षा एवं स्वास्थ्य आज के प्रगतिशील एवं सभ्य समाज की एक अनिवार्यता हैं। आधुनिक राज्य अपनी आय का निरन्तर वर्द्धमान भाग शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय करते हैं, क्योंकि एक ओर जहाँ औद्योगिकरण, नगरीकरण एवं जनघनत्व में वृद्धि के फलस्वरूप वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि हेतु श्रमिकों को शिक्षित व कुशल बनाना आवश्यक हो गया है। ,

अन्य अर्थशास्त्रियों का मत–वैगनर के नियम को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न रूपों में देखा है! पीकॉक एवं वाइजमैन ने नियम की व्याख्या करते हुए कहा कि इस नियम के अनुसार, “सार्वजनिक व्यय, सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर की अपेक्षा अधिक तेज दर से बढ़ता है।” अन्य शब्दों में, “सार्वजनिक व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद का फलन होता है। [P,E, = f(G,N,P,)] तथा सकल राष्ट्रीय उत्पादन के सन्दर्भ में सार्वजनिक व्यय की लोच एक से अधिक होती है।” इस प्रकार जैसे-जैसे सकल राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होती है, सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत अधिक तेजी से वृद्धि होती जाती है।

मसग्रेव के अनुसार, “वैगनर के नियम को सार्वजनिक क्षेत्र के निरन्तर बढ़ते हुए हिस्से या सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय उत्पादन से अनुपात तथा किसी देश के निम्न प्रति व्यक्ति आय से उच्च प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ सम्बन्धित किया जाना चाहिए।”
इस प्रकार सार्वजनिक व्यय/सकल राष्ट्रीय उत्पाद = f (प्रति व्यक्ति आय)। यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की अनुक्रिया के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय उत्पाद से अनुपात (P,E,/G,N,P,) में होने वाली वृद्धि का अनुपात जिसे सार्वजनिक व्यय की लोच कहा जाता है, इकाई से अधिक हो तो वैगनर का नियम क्रियाशील होगा अर्थात् यदि GNP में होने वाली वृद्धि की अपेक्षा सार्वजनिक व्यय (P,E,) में होने वाली वृद्धि अधिक होती है तब वैगनर का नियम लागू होता है।

फ्रेडरिक एल० प्रियर, वैगनर के नियम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस नियम के अनुसार प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय, प्रति व्यक्ति आय का फलन होता है।

सार्वजनिक व्यय की लोच को हम निम्नवत् लिख सकते हैं–

सार्वजनिक व्यय की लोच
= प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यव में आनुपातिक परिवर्तन /प्रति व्यक्ति आय में आनुपातिक परिवर्तन

यदि सार्वजनिक व्यय की लोच इकाई से अधिक हो तब वैगनर का नियम लागू होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैगनर के नियम के अनुसार जैसे-जैसे देश का विकास होता जाता है तथा देश में जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति आय बढ़ती जाती है, सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि होती है।

आलोचना- वैगनर के सिद्धान्त के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि यह सार्वजनिक व्यय की चिरकालीन प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है, परन्तु सार्वजनिक व्यय के अन्य पहलुओं की उपेक्षा करता है।

सिद्धान्त के अनुसार लोक व्यय में वृद्धि की जाय, परन्तु क्या लोक व्यय में इतना वृद्धि की स्वीकृति दी जा सकती है कि कर का भार लोगों पर असहनीय हो जाय। राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति में इतने लोक व्यय को स्वीकार किया जा सकता है, परन्तु सामान्य स्थिति में नहीं।

पीकॉक-वाइजमैन अवधारणा (Peacock-Wiseman Hypothesis)

एलेन टी० पीकॉक तथा जैक वाइजमैन नामक ब्रिटेन के दो अर्थशास्त्रियों ने 1890 से 1955 के मध्य ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर सार्वजनिक व्यय के सन्दर्भ में अपना एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिस पीकॉक-वाइजमैन परिकल्पना के नाम से जाना जाता है।

पीकॉक- वाइजमैन विश्लेषण में सार्वजनिक व्यय का निर्धारण राजनैतिक सिद्धा पर आधारित है। उनके अनुसार, सार्वजनिक व्यय के बारे में निर्णय राजनैतिक आधार पर लिए जाते हैं। अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय का स्तर जनमत या मतदान द्वारा प्रभावित होता , है। यह कथन यथार्थपरक है, क्योंकि वास्तविक जीवन में हम देखते हैं कि सार्वजनिक व्यय को नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रभावित करते हैं। चुनाव के पश्चात् गरीबी उन्मूलन हेतु किए जाने वाले व्यय-कार्यक्रम तथा किसी प्रतिनिधि विशेष के चुनाव क्षेत्र का विकास इसके उदाहरण हैं। प्रजातंत्र में नागरिक उन प्रतिनिधियों का चयन करना चाहते हैं, ताकि उनका प्रतिनिधित्व सरकार में बना रहे।

पीकॉक तथा वाइजमैन की धारणा है कि व्यक्ति सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं का लाभ तो प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कर नहीं देना चाहता। अत: व्यय का निर्धारण करते समय सरकार यह ध्यान रखती है कि सम्बन्धित कराधान के प्रस्ताव पर मतदाताओं की क्या प्रक्रिया होगी? इस प्रकार, उनका विचार है कि कराधान का एक सहन-स्तर होता है। इस स्तर से अधिक लोग कर नहीं देना चाहते, परन्तु आपातकाल परिस्थितियों; जैसे—युद्ध के समय लोग अधिक कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है। यद्यपि युद्धोपरान्त सार्वजनिक व्यय तथा करो दोनों में कमी आती है फिर भी वह युद्ध-पूर्व स्तर से अधिक ही रहता है, क्योंकि युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध के दौरान लगाए गए सभी कर समाप्त नहीं हो जाते तथा कुछ कर लगे ही रह जाते हैं। इस प्रकार, करारोपण तथा सार्वजनिक व्यय दोनों ही पुराने स्तर को प्राप्त नहीं होते, बल्कि कुछ उच्च-स्तर पर स्थित हो जाते हैं। सार्वजनिक व्यय की वृद्धि में इन अनिरन्तरताओं को ही पीकॉक-वाइजमैन ने विस्थापन प्रभाव (Displacement Effect) कहा है।

पीकॉक-वाइजमैन के अनुसार विस्थापन प्रभाव के कारण सार्वजनिक व्यय में स्थिर । वृद्धि (Stable Growth) नहीं होती है, बल्कि अनियमित रूप से मकान की सीढ़ियों की तरह कई चरणों में होती है जैसा कि चित्र (6,1) में दिखाया गया है। चित्र में बिन्दुंकित क्षैतिज रेखाएँ सामान्य अवधि में सार्वजनिक व्यय के स्तर को तथा मोटी क्षैतिज रेखाएँ युद्धकाल के दौरान होने वाले सार्वजनिक व्यय को प्रदर्शित करती है। माना युद्ध से पूर्व सामान्य दशा में सकल राष्ट्रीय उत्पादन के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक व्यय का स्तर AB

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है। युद्ध की दशा में आपातकालीन परिस्थितियों में अतिरिक्त करारोपण से सरकार की आय बढ़ जाने के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में जब वृद्धि होती है तब व्यय का स्तर ऊपर उठ कर CD हो जाता है। अब युद्ध समाप्त होने के उपरान्त (माना D समयावधि में युद्ध समाप्त हो जाता है) दो स्थितियाँ सम्भव हो सकती हैं। एक तो यह हो सकता है कि युद्ध के बाद भी कर का वही स्तर रहे जो युद्ध के दौरान था, ऐसी दशा में सार्वजनिक व्यय का स्तर पूर्ववत् CD स्तर पर ही बना रहेगा। दूसरी दशा में, इस बात की सम्भावना अधिक रहती है कि युद्ध के उपरान्त कुछ कर समाप्त कर दिए जाएँ (जिन्हें आपातकालीन परिस्थितियों में कर दाताओं ने स्वीकार किया हो) ऐसी दशा में सार्वजनिक व्यय का स्तर CD से कुछ नीचे आ सकता है जैसा कि EF स्तर से प्रदर्शित है, परन्तु व्यय का स्तर अब भी AB स्तर से ऊपर है। ऐसी स्थितियों की पुनरावृत्ति सम्भव हो सकती है।
आलोचना-पीकाक-वाइजमैन ने विस्थापन प्रभाव की जो अवधारणा प्रस्तुत की वह ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय के आँकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित थी। यह परिकल्पना एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में तभी स्वीकार की जा सकती है जब इसकी पुष्टि अन्य देशों में उपलब्ध आँकड़े भी करें।


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