Bcom 1st Year Business Low Agreements Expressly Declared as Void

Bcom 1st Year Business Low Agreements Expressly Declared as Void

 

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Bcom 1st Year Business Low Agreements Expressly Declared as Void
Bcom 1st Year Business Low Agreements Expressly Declared as Void

 

स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित ठहराव (Agreements Expressly Declared as Void)

 

प्रश्न 13. व्यर्थ ठहराव से क्या आशय है? भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा व्यर्थ घोषित किये गये ठहरावों की संक्षेप में व्याख्या कीजिये।

(1987)

अथवा

(“व्यापार में रुकावट डालने वाला ठहराव व्यर्थ होता है|” इस कथन को उदाहरण सहित समझाइये तथा आलोचनात्मक ढंग से परीक्षा कीजिये।

(1996 Back, 1992)

अथवा

उन विभिन्न ठहरावों का उल्लेख कीजिये जो भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किये गये हैं।

(2005)

उत्तर

व्यर्थ समझौते का अर्थ (Meaning of Void Agreement)

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2(G) के अनुसार, “वह समझौता जो राजनियम (कानून) द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, व्यर्थ समझौता है।” इस अधिनियम की धारा 10 के अनुसार वैध अनुबन्ध के लिये यह भी आवश्यक है कि ठहराव स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित । भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा निम्नलिखित ठहरावों को स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किया गया है –

1, विवाह में रुकावट डालने वाले ठहराव (Agreements in Restraint of Marriage)- विवाह करना व विवाहित जीवन बिताना प्रत्येक वयस्क का मौलिक अधिकार है। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 26 के अनुसार, “प्रत्येक ऐसा ठहराव जो अवयस्क को छोडकर किसी अन्य व्यक्ति के विवाह में रुकावट डालने के लिये हो, व्यर्थ होता है।’ उदाहरण के लिये, ‘अ’, ‘ब’ से कहता है कि अगर तुम ‘स’ से विवाह न करोगे, तो मैं तुम्हें 5,000 रुपये दूंगा। यह ठहराव व्यर्थ है। Agreements Expressly Declared Void हिन्दू कानून के अनुसार एक पुरुप को केवल एक पत्नी रखने का अधिकार है परन्तु मुस्लिम कानून के अनुसार एक पुरुष एक साथ चार पत्नियां रख सकता है। अतः किसी हिन्दू पुरुष द्वारा यह ठहराव करना कि वह अपने जीवनकाल में विवाह नहीं करेगा व्यर्थ ठहराव है परन्तु अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुऐ दूसरी शादी नहीं करन का ठहराव वैध होगा। इसी प्रकार यदि एक मुस्लिम पुरुष विवाह के समय अपनी पत्नी के साथ यह ठहराव करता है कि वह अपनी पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह नहीं करेगा, तो ऐसा ठहराव व्यर्थ होगा।

2, व्यापार में रुकावट डालने वाले ठहराव (Agreement in Restraint of Trade)- भारतीय संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को कोई भी वैध व्यापार या धन्धा करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। अतः प्रत्येक ऐसा ठहराव जो इस अधिकार में रुकावट डालता है, ‘व्यापार में रुकावट डालने वाला ठहराव’ कहलाता है। कानून की दृष्टि से ऐसे सभी ठहराव लोक नीति के विरुद्ध होने के कारण व्यर्थ होते हैं।

 

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 27 के अनुसार, “प्रत्येक ऐसा ठहराव जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को कोई वैध पेशा, व्यापार या व्यवसाय करने से रोका जाये तो वह उस सीमा तक व्यर्थ होता है।” इस परिभाषा में ‘उस सीमा तक व्यर्थ’ शब्द महत्वपूर्ण है।

‘उस सीमा तक व्यर्थ’ से आशय यह है कि यदि ठहराव दो भागों में विभक्त किया जा सकता है तो उसका केवल वह भाग अवैध होगा जो व्यापार में रुकावट डालता है, सम्पूर्ण ठहराव व्यर्थ नहीं होगा। किन्तु यदि ठहराव को वैध तथा अवैध दो भागों में विभक्त नहीं किया जा सकता तो पूरा ठहराव व्यर्थ होगा।

भारतीय कानून के अनुसार कुछ परिस्थितियों को छोड़कर, व्यापार में रुकावट डालने वाला प्रत्येक मझौता व्यर्थ होता है चाहे वह रुकावट सामान्य हो या आंशिक, शर्तपूर्ण हो या शर्त रहित।

माधव चन्द्र बनाम राजकुमार दास के केस में वादी एवं प्रतिवादी कलकत्ता में एक ही जगह पर व्यापार करते थे। प्रतिवादी ने वादी से कहा कि यदि वह (वादी) अपना व्यापार उस बाजार में न करे तो प्रतिवादी उसे 500 रुपये दे देगा। वादी ने उस बाजार में व्यापार करना नही कर दिया. परन्त बाद में प्रतिवादी ने रकम देने से इन्कार कर दिया। वादी द्वारा मुकदमा किये जाने पर कलकत्ता हाई कोर्ट ने निर्णय दिया कि यह समझौता व्यापार में रुकावट डालने वाला है, अतः व्यर्थ है।

इस प्रकार वादी (माधव चन्द्र) उससे 500 रुपये प्राप्त नहीं कर सकता।

नियम के अपवादसामान्यत: व्यापार में रुकावट डालने वाले सभी ठहराव व्यर्थ होते हैं, परन्तु इस नियम के निम्नलिखित अपवाद हैं अर्थात् निम्नलिखित दशाओं में व्यापार में रुकावट डालने वाले ठहराव वैध होते है।

(i) ख्याति का विक्रययदि कोई व्यापारी अपने व्यापार के साथ अपनी ख्याति भी बेच देता है तो क्रेता विक्रेता के साथ इस बात का ठहराव कर सकता है कि विक्रेता उसी प्रकार का व्यापार निश्चित सीमाओं के अन्दर (यदि न्यायालय द्वारा मान्य होती है) उस अवधि तक नहीं करेगा जब तक कि क्रेता अथवा उसका कोई अधिकृत व्यक्ति उन नियत सीमाओं में वह व्यापार करता रहेगा (धारा 27)।

(ii) साझेदारों के बीच हये ठहरावभारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के अनुसार निम्नलिखित दशाओं में व्यापार में रुकावट डालने वाले अनुबन्ध व्यर्थ नहीं माने जाते –

 

(अ) भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 11(2) के अनुसार साझेदारों में इस प्रकार का पारस्परिक समझौता कि उनमें से कोई भी जब तक वह साझेदार है फर्म के व्यापार के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का व्यापार नहीं करेगा, व्यापारिक स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध के रूप में व्यर्थ नहीं होगा क्योंकि ऐसी रुकावट के अभाव में साझेदार फर्म के व्यापार की बजाय निजी व्यापार में अधिक रुचि लेंगे जिससे फर्म का अहित होगा।

(ब) भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 36(2) के अनुसार फर्म से अवकाश ग्रहण करने वाला साझेदार अन्य साझेदारों के साथ यह अनुबन्ध कर सकता है कि वह निश्चित क्षेत्र में निश्चित समय तक फर्म से प्रतियोगिता करने वाला व्यवसाय नहीं करेगा, बशर्ते कि यह प्रतिबन्ध उचित हो।

(स) जब फर्म समाप्त हो रही हो या समाप्त होने की आशंका हो तो साझेदारी अधिनियम की धारा 54 के अन्तर्गत, साझेदार आपस में यह समझौता कर सकते हैं कि उनमें से कुछ या सभी साझेदार निश्चित क्षेत्र में या निश्चित समय तक फर्म जैसा व्यापार नहीं करेंगे, बशर्ते यह प्रतिबन्ध उचित हो।

(iii) नौकरी या सेवा सम्बन्धी ठहराव (Service Agreements)- एक नियोक्ता अपने कर्मचारी के साथ इस बात का ठहराव कर सकता है जब तक वह (कर्मगरी) उसके (नियोक्ता) के यहाँ नौकरी करेगा तब तक किसी अन्य व्यक्ति के यहाँ नौकरी नहीं करेगा। सरकारी अस्पताल के डाक्टरों की तो निजी प्रैक्टिस पर भी रोक लगा दी जाती है। ये प्रतिबन्ध वैध माने जाते हैं क्योंकि इनका उद्देश्य नियोक्ता के हितों की रक्षा करना है।

(iv) आपसी प्रतियोगिता को रोकने के लिये व्यापारिक संयोजन किसी वस्तु के निर्माता, उत्पादक अथवा व्यापारी आपसी प्रतिस्पर्द्धा को रोकने अथवा व्यापार के नियमन के लिये व्यापारिक संघ बनाकर आपस में ठहराव कर सकते हैं। यदि ऐसे संघ अपने सदस्यों पर कुछ उचित प्रतिबन्ध लगाते हैं तो वे वैध माने जाते हैं। जैसे बर्फ निर्माताओं ने बर्फ को एक निश्चित मूल्य से कम पर न बेचने का समझौता किया। यह वैध ठहराव है।

(v) व्यापारिक व्यवहारों की स्वतन्त्रता पर रोक व्यापारिक व्यवहारों की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करने वाले ठहराव वैध होते हैं, बशर्ते ऐसे ठहरावों का उद्देश्य एकाधिकार की स्थापना करना न हो। उदाहरण के लिये, यदि एक माल का निर्माता अपने एजेण्ट के साथ उसके माल के अतिरिक्त किसी अन्य निर्माता का माल न बेचने का ठहराव करे तो यह ठहराव वैध होगा। इसे व्यापार में रुकावट नहीं माना जायेगा।

3, वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने वाले ठहराव (Agreements in Restraint of Legal Proceedings)- न्याय प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। इस अधिकार को किसी ठहराव द्वारा समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता और न इसमें बाधा डाली जा सकती है।

जब किसी समझौते (ठहराव) द्वारा सम्बद्ध पक्ष या पक्षों को अपने अधिकार प्रवर्तित कराने के लिये कानूनी कार्यवाही करने से पूर्णतया या आंशिक रूप से रोका जाता है तो उसे वधानिक (काननी) कार्यवाही में रुकावट डालने वाला समझौता कहा जाता है। यह समझौता लोक नीति के विरुद्ध माना जाता है, अत: व्यर्थ होता है। धारा 28 के अनुसार ऐसे समझौते दो प्रकार के हो सकते हैं-

(क) वह समझौता जिसके द्वारा पक्षकार को कानूनी कार्यवाही करने से पूर्णतया रोका जाता है तथा (ख) वह समझौता जिसमें कानूनी कार्यवाही करने के लिये समय सम्बन्धी कोई सीमा निर्धारित कर दी जाती है। ये दोनों ही तरह के समझौते व्यर्थ घोषित किये गये हैं, लेकिन किसी विशेष न्यायालय में ही दावा करने का समझौता अथवा निश्चित अवधि के भीतर अपना दावा (Claim) प्रस्तुत न करने पर दावे का अधिकार समाप्त होने की शर्त वाला समझौता व्यर्थ नहीं होता।

उदाहरण (i) यदि अजय, विजय के साथ ठहराव करता है कि वह (विजय) उसके (अजय) के विरुद्ध न्यायालय में वैधानिक कार्यवाही नहीं करेगा तो यह ठहराव व्यर्थ होगा क्योंकि इस ठहराव में विजय को अपने अधिकारों को न्यायालय में प्रवर्तित कराने से रोका गया है।

(ii) आशीष, बुलन्दशहर का व्यापारी है और विपुल आगरा का व्यापारी है। आशीष ने विपुल को कुछ माल बेचा और साथ ही यह प्रतिबन्ध लगा दिया कि समस्त विवाद बुलन्दशहर न्यायालय में ही तय किये जा सकेंगे। यह वैध ठहराव है।

भारतीय अनुबन्ध (संशोधन) अधिनियम, 1996 (जो 8 जनवरी, 1997 से लागू हुआ है) के द्वारा धारा 28 को और अधिक व्यापक बना दिया गया है। इस संशोधन के द्वारा धारा 28 में निम्नलिखित भाग और जोड़ दिया गया है

“ऐसा ठहराव जो किसी निर्धारित समय के समाप्त होने पर, किसी अनुबन्ध के अन्तर्गत, किसी पक्षकार के अधिकारों को समाप्त कर देता है या किसी पक्षकार को दायित्व से मुक्त कर देता है, ताकि किसी पक्षकार को अपने अधिकारों को प्रवर्तित कराने से रोका जा सके. तो उस सीमा तक व्यर्थ होता है।”

धारा 28 के अपवाद (Exceptions)- निम्नलिखित परिस्थितियों में किये ठहराव वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने के ठहराव नहीं माने जाते –

(i) जब पक्षकार इस बात के लिये सहमत हो जाये कि उनके बीच किसी प्रकार का विवाद अथवा मतभेद होने पर वे उसे पंचनिर्णय के लिये सुपुर्द करेंगे और ऐसी दशा में सिर्फ पंचायत द्वारा दिलाया धन ही प्राप्ति के योग्य होगा।

ii) इसी प्रकार ऐसा कोई अनुबन्ध भी व्यर्थ नहीं होता जिसके अनुसार दो या दो से अधिक व्यक्ति उनके बीच उठे हुये किसी विवाद को लिखित रूप में पंच निर्णय को सपर्द करने का ठहराव करते हैं।

4, अनिश्चित अर्थ वाले ठहराव (Agreements involving Uncertainty)- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 29 के अनुसार, “ऐसे ठहराव जिनका अर्थ निश्चित नहीं है अथवा निश्चित नहीं किया जा सकता, व्यर्थ होते हैं।” उदाहरणार्थ, अतल, विपल को 100 टन तेल बेचने का ठहराव करता है। इस ठहराव में यह स्पष्ट नहीं है कि किस प्रकार का तेल बेचा जायेगा, Agreements Expressly Declared Void अत: यह व्यर्थ है। यदि इसी उदाहरण में यह बताया गया हो कि अतुल नारियल के तेल का व्यापारी है तो यह ठहराव वैध माना जायेगा क्योंकि अतुल के व्यापार की प्रकृति से यह स्पष्ट है कि उसने नारियल का ही तेल बेचने का ठहराव किया है।

5, बांजी के ठहराव (Wagering Agreements)- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 30 के अनुसार बाजी लगाने के ठहराव व्यर्थ होते हैं। परन्तु बाजी लगाने से क्या अभिप्राय है, धारा 30 इसके सम्बन्ध में कोई व्याख्या नहीं करती है। सर एन्सन के अनुसार, “बाजी लगाना दो पक्षकारों के बीच किया गया एक ऐसा ठहराव है जिसके अन्तर्गत एक अनिश्चित घटना के घटित होने या न होने पर कुछ धन या माल देने का वचन होता है।” उदाहरणार्थ, रोहित अपने मित्र सोहित से कहता है कि आज रात को बारिश होगी, लेकिन सोहित कहता है कि बारिश नहीं होगी। इस पर दोनों यह तय करते हैं कि यदि बारिश होगी तो सोहित, रोहित को 500 रुपये देगा और अगर बारिश न हुई तो रोहित, सोहित को 500 रुपये देगा। यह बाजी का समझौता है क्योंकि यहाँ एक अनिश्चित घटना के बारे में दोनों पक्षों के विरोधी विचार (मत) हैं तथा जीतने वाले पक्ष को हारने वाले पक्ष से 500 रुपये मिलने हैं। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि देखने में बीमा अनुबन्ध और बाजी के समझौते में समानता लगती है क्योंकि दोनों स्थितियों में समझौते का निष्पादन एक अनिश्चित घटना के घटित होने पर आधारित होता है। परन्तु वास्तव में, बीमा एक क्षतिपूर्ति का अनुबन्ध है और वह कभी भी बाजी का अनुबन्ध नहीं कहा जा सकता।

6, असम्भव कार्य करने के ठहराव (Agreements to do Impossible Act)- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 56 के अनुसार कोई भी ठहराव जो किसी ऐसे कार्य को करने के लिये हैं जो प्रारम्भ से ही असम्भव हैं, व्यर्थ होता है। उदाहरणार्थ, दो सीधी एवं समानान्तर रेखाओं को मिलाने का ठहराव व्यर्थ है। अतुल, विपुल के साथ जादू के द्वारा किसी – खजाने को पता लगाने का ठहराव करता है। यह व्यर्थ ठहराव है।


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