Contract of Bailment and Pledge Business Law Notes

Contract of Bailment and Pledge Business Law Notes

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Contract of Bailment and Pledge Business Law Notes
Contract of Bailment and Pledge Business Law Notes

हानि रक्षा तथा प्रत्याभूति अनुबन्ध (Contracts of Indemnity and Guarantee)

हानिरक्षा (क्षतिपूर्ति) अनुबन्ध की परिभाषा (Definition of Contract of Indemnity)

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 124 के अनुसार, “हानि रक्षा अनुबन्ध से आशय एक ऐसे अनुबन्ध से अहि जिसके अंतर्गत एक पक्षकार किसी दुसरे पक्षकार किसी दुसरे पक्षकार  को किसी ऐसा हानि से बचाने का वचन देता जो उसे (दुसरे पक्षकार को) स्वयं वचनदाता अथवा किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से पहुँछे |” (A contract by which one party promises to save the order from loss caused to him by the conduct of the promisor himself, or by then conduct of any other person, is called a Contract of Indemnity.”)

उदाहरणार्थ, रजत, भरत से अनुबन्ध करता है की वह भरत को ऐसी हानि से बचायेगा जो अमित द्वारा भरत पर मुकदमा करने के कारण होगी | यह अनुबन्ध हानि रक्षा की अनुबन्ध है | जो व्यक्ति हानि से बचने के लिये वचन देता है की, वह हानि रक्षक (Indemnifier) और जिस व्यक्ति को हानि की रक्षा का वचन दिया जाता है, ‘हानि रक्षाधारी’ (Indemnity holder) कहलाता है |

उपयुर्क्त परिभाषा के अनुसार केवल वे ही अनुबन्ध क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध कहे जायेगें जिनमे किसी ऐसी हानि की पूर्ति किये जाने का वचन हो जो हानिरक्षक अथवा किसी अन्य व्यक्ति के आचरण के कारण उत्पन्न होती है | वह अनुबन्ध जी किसी दुर्घटना के कारण हुई हानि की पूर्ति के लिये किया जाता है (जैसे अग्नि बीमा अनुबन्ध) क्षतिपूर्ति का अनुबन्ध नहीं कहलायेगा | लेकिन यह बात सही प्रतीत नही होती क्योकि बीमा अनुबन्ध (जीवन बीमा को छोड़कर) मूलतः क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध कहे जाते है | अतएव, भारतीय न्यायालय एक परिभाषा को पूर्ण न मानते हुये इस सम्बन्ध में अंग्रेजी कानून का सहारा लेता है | जिसके अनुसार क्षतिपूर्ति अनुबन्ध एक ऐसा अनुबन्ध है जिसके अंतर्गत, “किसी अनिर्दोष व्यक्ति को एक ऐसे लेन-देन के कारण हुई हानि से बचाने का वचन दिया जाता है ओ वचनदाता के अनुरोध पर कार्य किया हो |” क्षतिपूर्ति अनुबन्ध की यह एक व्यापक परिभाषा  है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति के आचरण द्वारा हुई हानि ही नहीं वरन् किसी घटना के फलस्वरूप हुई हानि की पूर्ति के वचन को भी कश्तीपूर्ति अनुबन्ध माना जाता है | हानि रक्षा का अनुबन्ध स्पष्ट अथवा गर्भित दोनों प्रकार का हो सकता है | इसके अतिरिक्त अन्य सामान्य अनुबन्धो की भाँति हानि रक्षा अनुबन्ध में भी एक वैध अनुबन्ध के सभी लक्षणों का होना आवश्यक है |




गारण्टी अथवा प्रत्याभूति का अनुबन्ध (Contract of Guarantee)

भारतीय अनुबन्ध की अधिनियम की धारा 126 के अनुसार, “प्रत्याभूति अनुबन्ध से तात्पर्य एक ऐसे अनुबन्ध से है है जिसमे एक व्यक्ति व्यक्ति दुसरे व्यक्ति से किसी एनी व्यक्ति की त्रुटी की दशा में उसके (तीसरे व्यक्ति के) वाच का निष्पादन करने या उतरदायित्व को पुरा करने का वचन देता ही |” (A Contract of guarantee is a contract to perform the promise or discharge the liability. of a third party in case of his default.”)

इस प्रकार के अनुबन्ध में जो व्यक्ति गारंटी देता है उसे प्रतिभू (Surety), जिसके सम्बन्ध में गारन्टी दी जाती है उसे मूल ऋणी (Principal Debtor) एवं जिसकी गारन्टी दी जाती है उसे ऋणदाता (Creditor) कहते है | अत: एक प्रत्याभूति के अनुबन्ध तीन पक्षकार के होते है – प्रतिभू, ऋणदाता एवं मूल ऋणी | प्रत्याभूति अनुबन्ध के अंतर्गत दी जाने वाली गारन्टी लिखित अथवा मौखिक रूप से हो सकती है, परन्तु अंग्रेजी राजनियम के अंतर्गत यह सदैव लिखित रूप में होनी चाहिये | ऐसी प्रतिभूति (गारन्टी) किसी पक्षकार के अच्छे आचरण के सम्बंध में, किसी ऋण के सम्बन्ध में अथवा किसी पक्षकार द्वारा उधार माल खरीदने की दशा में दी जाती है |

उदाहरणार्थ, अतुल, विपुल से कहता है की वह राहुल को एक माह के लिये 1,000 रूपये उधार दे दे और यह वचन देता है की अगर राहुल समय पर ऋण का भुगतान नही करेगा तो स्वयं उसका भुगतान कर देगा | अतुल तथा विपुल समय पर ऋण का भुगतान कर देगा | अतुल तथा विपुल के बीच यह गारण्टी का अनुबन्ध है | इसमें अतुल गारण्टीकर्ता (प्रतिभू) है, राहुल मूल ऋणी तथा विपुल ऋणदाता है |

हानिरक्षा (क्षतिपूर्ति) तथा प्रत्याभूति अनुबन्ध में अन्तर (Difference Between Contract of Indemnity and Guarantee)

अन्तर का आधार क्षतिपूर्ति अनुबन्ध प्रत्याभूति अनुबन्ध
1. पक्षकारो की संख्या इसमें केवल दो पक्षकार होते है –

(i) हानिरक्षक तथा

(ii) हानि रक्षाधारी |

इसमें केवल तीन पक्षकार होते है –

(i) मूल ऋणी,

(ii) ऋणदाता

(iii) प्रतिभू |

2. अनुबन्धो की संख्या इसमें हानिरक्षक तथा  हानि रक्षाधारी के बीच केवल एक ही अनुबन्ध होता है | इसमे तीन अनुबन्ध होते है –

(i) मूल ऋणी और ऋणदाता के बीच,

(ii) ऋणदाता तथा प्रतिभू के बीच तथा

(iii) प्रतिभू एवं मूल ऋणी के बीच |

3. उद्देश्य इसका उद्देश्य हानि रक्षा धारी को भावी अथवा किसी अनिश्चित घटना से होने वाली हानि से बचाना होता है | इसका उद्देश्य मूल ऋणी के वाच के निष्पादन (पूरा करने) की जमानत देना होता है |
4. उतरदयित्व हानि रक्षक का उतरदायित्व प्राथमिक एवं स्वतन्त्र होता है | इसमें प्रतिभू का दायित्व गौण होता है जो मूल ऋणी द्वारा अपने दायित्व को पूरा नकरने की स्थिति में ही उत्पन्न होता है |
5. क्षेत्र क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध में प्रत्याभूति अनुबन्ध को सम्मिलित नही किया जा सकता | प्रत्याभूति के अनुबन्ध में क्षतिपूर्ति अनुबन्ध सम्मिलित हो सकता है |
6. अनुबन्ध करने की क्षमता इसमें दोनों पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता का होना अनिवार्य है | इसमें मूल ऋणी में अनुबन्ध करने की क्षमता का होना अनिवार्य नहीं है |
7. प्रतिफल या व्यक्तिगत हित इसमें हानि रक्षक का प्राय: कोई व्यक्तिगत हित (जैसे प्रिमियम मिलना) होता है | इसमें प्रतिभू अपने वचन के बदले स्वयं कुछ भी प्रतिफल प्राप्त नही करता |
8. वाद प्रस्तुत करना हानि रक्षक, तृतीय पक्षकार के विरुध्द जिन्होंने हानि पहुँचाई हो, अपने स्वयं के नाम से वाद प्रस्तुत नही कर सकता | वह केवल हानि रक्षा कर सकता | वह केवल हानि की रक्षक धारी के नाम से ही वाद प्रस्तुत कर सकता है | मूल ऋणी की त्रुटि की दशा में प्रतिभू द्वारा अपने दायित्व को पूरा करने के पश्चात् प्रतिभू अपने स्वयं के नाम मूल ऋणी के विरुध्द वाद प्रस्तुत सकता है |

 

अवैध प्रतिभूति अनुबन्ध (Invalid Guarantee Contract)

निम्नलिखित दशाओ में प्रत्याभूति अनुबन्ध अवैध माना जाता है –

  1. मिथ्यावर्णन द्वारा प्राप्त प्रतिभूति Guarantee obtained by Misrepresentation) – यदि ऋणदाता द्वारा उसकी जानकारी और सहमति से अनुबन्ध के किसी महत्वपूर्ण तथ्य से सम्बन्ध में मिथ्यावर्णन द्वारा गारण्टी प्राप्त की गई है तो ऐसी प्रतिभूति (गारण्टी) अवैध होती है | उदाहरणार्थ, ‘अ’, ‘ब’ को पाने लिये रुपये इकट्ठा करने के लिये क्लर्क के यूप में नौकर रखता है | ‘ब’ कुछ रूपये का हिसाब नही दे पाता | फलस्वरूप ‘अ’, ‘ब’ से ठीक-ठीक हिसाब देने के लिये प्रतिभूति माँगता है | ‘स’, ‘ब’ द्वारा ठीक हिसाब देने के लिये प्रतिभू हो जाता है | ‘अ’, ‘स’ से ‘ब’ के पहले आचरण के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताता | बाद में ‘ब’ त्रुटि करता है | यह प्रतिभूति अवैध और व्यर्थ है |
  2. छुपाव द्वारा प्राप्त की गई प्रतिभूति (Guarantee Obtained by Concealment) – यदि ऋणदाता अनुबन्ध से सम्बन्धित किसी महत्वपूर्ण तथ्य के विषय में (जिसका गारण्टी देते समय उसे प्रतिभू को बता देना चाहिये था) मौन रहता है, अथवा, उसे छुपा लेता है तो ऐसी दशा में प्राप्त प्रतिभूति अमान्य और अवैध होगी | उदाहरणार्थ, मोहन द्वारा सोहन को दिये जाने वाले 500 टन लोहे के मूल्य के भुगतान के लिये अजय प्रतिभूति देता है | मोहन एवं सोहन में एक गुप्त समझौता है किसोहन बाजार भाव से 3 रूपये प्रति टन मूल्य अधिक देगा और प्राप्त राशि का उपभोग मोहन द्वारा एक पुराने ऋण के भुगतान में किया जायेगा | अजय इस गुप्त समझोते की कोई जानकारी नही है, अत: वह उतरदायित्व से मुक्त माना जायेगा |
  3. शपरिभू के शामिल होने के शर्त पर दी गई प्रतिभूति (Guarantee Given on the Condition of Joining Cosurety) – यदि प्रतिभूति इस शर्त पर दी गई है की प्रतिभू का तब तक कोई दायित्व नही होगा कि कोई दूसरा व्यक्ति श-प्रतिभू न बन जाये, तो किसी दुसरे व्यक्ति के सह-प्रतिभू न बनने की दशा में प्रतिभूति अनुबन्ध मानी होगा अर्थात् दी गई प्रतिभूति अवैध होगी | उदाहरणार्थ, प्रभाकर इस शर्त पर ‘ब’ द्वारा उधार रुपयों अ भुगतान करने की प्रतिभूति ‘स’ को देने के लिये तैयार है कि मथुकर भी श-प्रतिभू बनने को तैयार हो |मथुकर अपनी सहमति नही देता | यहाँ पर प्रभाकर द्वारा दी गई प्रतिभूति अवैध मानी जायेगी |



प्रतिभूति के भेद अथवा प्रकार (Kinds or Types of Guarantee)

प्रतिभूति मुख्यतः निम्नलिखित दो प्रकार की होती है –

  1. विशिष्ट प्रतिभूति (Specific Guarantee) – जब किसी विशेष ऋण या वचन के लिये गारण्टी दी जाती है तो उसे ‘विशिष्ट गारण्टी’ कहते है | इओसमे गारण्टी देने वाले का अर्थात् प्रतिभू का दायित्व केवल एक लेन-देन तक सीमित रहता है और जब लेन-देन पुरा हो जाता है तो गारण्टी अनुबन्ध भी समाप्त हो जाता है | उदाहरणार्थ, अमित से 5 बोरी चीनी उधार खरीदी इसके मूल्य के भुगतान करने के लिये विजय ने गारण्टी दी | यह एक विशिष्ट गारण्टी है | अमित ने ने 15 दिन बाद मूल्य चूका दिया | अब गारण्टी अनुबन्ध समाप्त हुआ माना जायेगा | यदि इसके बाद सुमित पूर्ण: अमित को 2 बोरी चीनी उधार दे देता है तो इसके भुगतान के लिये विजय की कोई जिमेदार नही होगी |
  2. चालु, सतत् या निरन्तर गारण्टी (धारा 129) (Continuing Guarantee) – जब कोई गारण्टी लेन-देनो की एक श्रंखला के सम्बन्ध में दी जाती है तो उसे चालु, सतत् या निरन्तर गारण्टी कहते है | यह किसी एक विशिष्ट व्यवहार तक सीमित नही रहती है | चालु प्रतिभूति की दशा में प्रतिभू, प्रतिभूति कि राशि अथवा अवधि के अनुसार अपने उतरदायित्व को सीमित कर सकता है | उदाहरणार्थ, अमित ने अपनी जायदाद का किराया वसूल करने के लिये सुमित को नियुक्त किया | विजय ने सुमित द्वारा उचित रूप से किराया वसूल करने और प्राप्त राशि का अमित को भुगतान करने के लिये 2,000 रूपये तक की प्रतिभूति दी | यह चालू प्रतिभूति का अनुबन्ध है |

चालू प्रतिभूति की समाप्ति या खण्डन (Revocation of Continuing Guarantee) – चालू प्रतिभूति को निम्नलिखित दो प्रकार से समाप्त किया जा सकता है |

(i) सुचना द्वारा (By Notice) – (धारा 130) प्रतिभू किसी भी समय लेनदार (ऋणदाता) को सुचना भेजकर भविष्य के (आगे के) व्यवहारों के लिये अपनी चालु प्रतिभूति की समाप्त कर सकता है, लेकिन सुचना से पहले के लेन-देनों के लिये उसकी जिम्मेदारी बनी रहती है | उदाहरणार्थ, दिनेश द्वारा रमेश पर लिखे जाने वाले विभिन्न बिलों के भुगतान के सम्बन्ध में मोहन 10,000 रूपये तक की गारण्टी देता है | दिनेश ने रमेश पर 2,000 रूपये का एक बिल लिखा जो रमेश ने स्वीकृत कर लिया | बाद में मोहन ने दिनेश को गारण्टी के खण्डन की सुचना भेज दी | ऐसी स्थिति में, सुचना के बाद लिखे जाने बिलों के लिए मोहन किसी प्रकार से जिम्मेदारी नही है | लेकिन, अगर रमेश देय तिथि पर 2,000 रूपये के पुराने बिल का भुगतान नही करता है तो मोहन इसके लिये पूर्णतया दायी होगा, क्योकि यह बिल खण्डन की सुचना से पहले लिखा गया था |

(ii) प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर (By Surety’s Death) – (धारा 131) यदि कोई विपरीत अनुबन्ध न हो तो प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर भावी लेन-देनो के सम्बन्ध में चालू गारण्टी समाप्त हो जाती है और प्रतिभू की सम्पति अथवा उसके उतरदायित्व मृत्यु के पश्चात् के व्यवहारों के लिये उतरदायी नही होते है | इसके लिये ऋणदाता को प्रतिभू की मृत्यु की सुचना का होना आवश्यक नही है | हाँ, मृत्यु से पहले के लेन-देनो के सम्बन्ध में उनका दायित्व बना रहते है |

उपर्युक्त दो परिस्थितियों के आलावा चालू गारण्टी उन सब दशाओं में भी समाप्त हो जाती है जिनमे प्रतिभू (गारण्टी देने वाला) दायित्व-मुक्त हो जाता है, जैसे मूल अनुबन्ध की शर्तो में परिवर्तन किये जाने पर, मूल ऋणी के मुक्त होने पर, मूल प्रतिभू के अधिकारों में कमी आने पर, अथवा ऋणदाता द्वारा के किसी कार्य या भूल से प्रतिभू के अधिकारों में कमी आने पर, अथवा ऋणदाता द्वारा जमानत खो देने पर आदि |

प्रतिभू का अपने दायित्व से मुक्त होना (Discharge of Surety from his Liability)

निम्नलिखित दशाओ में प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है एवं उसके द्वारा दी गई गारण्टी का अन्त हो जाता है –

  1. सुचना द्वारा खण्डन किये जाने पर (By Notice of Revocation) – चालू गारण्टी की दशा में प्रतिभू व्यवहारों के सम्बन्ध में किसी भी समय ऋणदाता को गारण्टी के खण्डन की सुचना देकर अपने भावी दायित्व से मुक्त हो जाता है | परन्तु एक विशिष्ट गारण्टी (प्रत्याभूति) की दशा में यदि उतरदायित्व उत्पन्न हो गया ही तो उसका खण्डन नही किया जा सकता | यदि उतरदायित्व उत्पन्न हुआ हो तो विशष्टि प्रत्याभूति की दशा में भी प्रत्याभू ऋणदाता को खण्डन की सुचना देकर अपने दायित्व से मुक्त हो सकता है | (धारा 130)
  2. प्रतिभू की मृत्यु होने पर (By Death of Surety) – किसी विपरीत अनुबन्ध के अभाव में प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले लें-देनो के लिये प्रतिभू का दायित्व समाप्त हो जाता है | मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले दायित्वों के लिये प्रतिभू की सम्पति या उसके अधिकारी भी उतरदायी नहीं होते है | ऋणदाता को प्रतिभू की मृत्यु की सुचना दिया जाना भी आवश्यक नही है | मृत्यु से पूर्व हुये व्यवहारों के लिये प्रतिभू के उतराधिकारियों का दायित्व बना रहता है | (धारा 131)
  3. अनुबन्ध की शर्तो में परिवर्तन होने पर (By Variance in the Terms of the Contract) – यदि प्रतिभू की सहमति के बिना ऋणदाता एवं मूल ऋणी द्वारा मूल अनुबन्ध की शर्तो में कोई परिवर्तन कर दिया जाता है, भले ही परिवर्तन प्रतिभू के लाभ के लिये क्यों न हो तो भी परिवर्तन के बाद उत्पन्न होने वाले दायित्वों के सम्बन्ध में प्रतिभू अपने उतरदायित्व से मुक्त हो जाता है | परन्तु यदि परिवर्तन के लिये प्रतिभू ने अपनी सहमति दे दी तो वह अपने उतरदायित्व से मुक्त नही हो सकता | उदाहरणार्थ, अतुल, विपुल को 1 मार्च 2,000 रूपये का ऋण देनें का वचन देता है एवं वचन देता है एवं ऋण वापसी की गारण्टी राहुल द्वारा दी जाती है | परन्तु अतुल यह ऋण विपुल को 1 जनवरी क ही दे देता है | चुँकि ऋण प्रदान करने की तिथि में प्रतिभू की सहमति के बिना ही परिवर्तन कर लिया गया है, अत: राहुल अपने उतरदायित्व से मुक्त हो जायेगा | (धारा 133)
  4. मूल ऋणी को मुक्त कर देने पर (By Release or Discharge of Principal Debtor) – यदि मूल ऋणी एवं ऋणदाता आपस में कोई ऐसा अनुबन्ध कर लेते है अथवा ऋणदाता कोई ऐसा कार्य या भूल करती है जिसके फलस्वरूप मूल ऋणी अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है तो ऐसी दशा में प्रतिभू भी अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा | परन्तु यदि ऋणदाता निश्चित समय (Period of Limitation) के अन्दर मूल ऋणी पर ऋण की वसूली के लिये वाद प्रस्तुत करने में भूल करता है तो इससे प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त नही होता है | यदि मूल ऋणी दिवालिया हो जाता है तो भी यह नियम लागू नही होगी | उदाहरणार्थ, अजय द्वारा विजय को बेचे जाने वाले माल के भुगतान के लिये संजय गारण्टी देता है | बाद में विजय की वितीय स्थिति खराब हो जाती है, अत: वह विजय सहित अपने सभी लेनदारो में विभिन्न अनुबन्धो के अधीन अपनी सम्पति बाँटकर दायित्व मक्त हो जाता है | अजय के साथ किये गये इस अनुबन्ध से विजय ऋणदाता हो गया, अत: संजय भी प्रतिभू के रूप में अपने दायित्व से मुक्त हो जाना जायेगा | (धारा 134)
  5. ऋणदाता तथा मूल ऋणी में समझौता होने पर (By Composition Between Creditor and Principal Debtor) – धारा 135 के अनुसार यदि ऋणदाता, मूल ऋणी के साथ बिना प्रतिभू की सहमति के कोई ऐसा अनुबन्ध कर लेता है जो मूल ऋणी के दायित्व को कम कर देता है अथवा ऋण की अवधि बढ़ा देता है या मूल ऋणी को कम कर देता है अथवा ऋण की अवधि बढ़ा देता है या मूल ऋणी पर मुकदमा न चलाने का वचन देता है तो प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा | इस नियम के निम्नलिखित तीन अपवाद है अर्थात् निम्नांकित स्थितियों में प्रतिभू अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नही होगा –

(i) जब मूल ऋणी को अतिरिक्त समय देने समय देने के अनुबन्ध ऋणदाता ने मूल ऋणी के साथ न करके किसी तीसरे पक्षकार के किया हो | (धारा 136),

(ii) धारा 137 के अनुसार यदि ऋणदाता, मूल ऋणी पर कोई वाद प्रस्तुत न करे और न ही कोई दूसरा उपाय उसके विरुध्द प्रयोग करे तो ऋणदाता का इस प्रकार रुका रहना प्रतिभू को अपने दायित्व से मुक्त नही करेगा जब तक की इसके विपरीत कोई ठहराव न हो,

(iii) धारा 138 के अनुसार यदि किसी अनुबन्ध में कई सह-प्रतिभू और ऋणदाता उनमे से किसी एक को दायित्व से मुक्त कर देता है ऐसी दशा में न हो शेप प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त होगा |

उदाहरणार्थ, (i) अजय, विजय को 500 रूपये से ऋणी है जिसके भुगतान की गारण्टी संजय द्वारा दी गई एवं ऋण का भुगतान एक वर्ष बाद किया जाना है | अजय की प्रार्थना पर परन्तु संजय की सहमति के बिना विजय ऋण की अवधि को एक वर्ष से बढाकर दो वर्ष कर देता है  | ऐसी दशा में संजय अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा |

(ii) रजत, भरत का 500 रूपये से ऋणी है जिसके भुगतान की गारण्टी प्रशान्त द्वारा दी गई है | ऋण देय हो जाने पर भी भरत, रजत पर | वर्ष तक वाद प्रस्तुत नहो करता है | यहाँ पर प्रशान्त अपने दायित्व से मुक्त न्होई होगा |

  1. ऋणदाता के किसी कार्य अथवा भूल से प्रतिभू के अधिकार में कमी अपने पर (By Creditor’s Act or Omission Impairing Surety’s Remedy) – यदि ऋणदाता कोई ऐसा कार्य करता है जो प्रतिभू के अधिकारों के विरुध्द ही या कोई ऐसा कोई कार्य करना भूल जाता है जिसे पूरा करना उसका उतरदायित्व था और जिसके कारण मूल ऋणी के विरुध्द प्रतिभू के अधिकारों में कमी जाती है, ऐसी दशा में परिभू अपने उतरदायित्व से मुक्त हो जाता है |

(धारा 139)

उदाहरण – (i) रजत, भरत के लिये एक जहाज बनाने का अनुबन्ध करता है | यह तय हुआ की जैसे-जैसे काम पूरा होता जायेगा, मूल्य का भुगतान किश्तों में होता रहेगा | रोहित ने रजत से द्वारा जाहज बनाने की गारण्टी दी | भरत बिना रोहित की अनुमति के, जहाज पूरा होने के से पहले ही दो अन्तिम किश्तों का भुगतान कार देता है | इसे रोहित का दायित्व समाप्त हो जाता है, क्योकि काम पूरा होने से पहले अन्तिम किश्तों का भुगतान करना उसके हित के विपरीत है |

(ii) अजय, अरुण को अतुल की दूकान पर नौकर रखवाता है तथा उसकी इमानदारी की गारण्टी देता है | अतुल भी यह वचन देता है कि वह हर महीने कम से कम एक बार अरुण के हिसाब की जाँच करेगा | अतुल, अरुण के हिसाब की बिल्कुल जाँच नहीं करता और अरुण कुछ रूपये गबन कर लेता है | अतुल, अजय को गबन के लिये उत्तरदायी नही ठहरा सकता क्योकि उसने अजय के प्रति कर्तव्य का पालन नही किया |

  1. ऋणदाता द्वारा प्रतिभूति खो देने पर (By loss of Security) – यदि प्रतिभूति अनुबन्ध के अंतर्गत ऋणदाता को कोई वस्तु या सम्पति जमानत के रूप में प्रदान की गई है और ऋणदाता उसे खो देता है अथवा प्रतिभू की सहमति के बिना मूल ऋणी को वापिस लार देता है तो प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है | (धारा 141)

उदाहरणार्थ, ‘अ’, ‘ब’ को ‘स’ की गारण्टी पर 500 रूपये उधार देता है | ‘अ’ के पास ‘ब’ का 400 रूपये मूल्य का फर्नीचर बन्धक रखा हुआ है | बाद में ‘अ’ बन्धक रखे हुये फर्नीचर को ‘स’ की सहमति के बिना ‘ब’ को लौटा देता है | यहाँ पर फर्नीचर के मूल्य की राशि तक ‘स’ का दायित्व समाप्त हुआ माना जायेगा |

  1. दायित्व का निष्पादन होने पर (By Performance) – मूल ऋणी द्वारा समय पर अपने वचन को पूरा करने पर अथवा मूल ऋणी की त्रुटि की दशा में प्रतिभू द्वारा वचन का निष्पादन किये जाने पर प्रतिभू अथवा दायित्व से मुक्त हो जाता है |
  2. प्रतिभूति अनुबन्ध के अवैध हो जाने पर (By Invalidation of the Contract of Guarantee) – जब कोई गारण्टी कपट, मिथ्यावर्णन या महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर प्राप्त की गई हो तो गारण्टी अनुबन्ध अवैध होता है और ऐसी दशा में प्रतिभू अपने दायित्वों से मुक्त समझा जाता है |

प्रतिभू के अधिकार (Rights of the Surety)

प्रतिभ के आधिकारो की निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है –

  1. मूल ऋणी के विरुध्द अधिकार (Rights Against the Principal Debtor) – धारा 140 के अनुसार जब मूल ऋणी अपने वचन के निष्पादन अथवा ऋण के भुगतान में त्रुटि करता है इस कारण से प्रतिभू को उसकी ओर से भुगतान करना पड़ता है या वचन का निष्पादन करना पड़ता है तो उसे वे सब आधिकार प्राप्त हो जाते है जो की ऋणदाता को मूल ऋणी के विरुध्द प्राप्त थे | पर्तिभु मूल ऋणी से वे सब रकमे प्राप्त करने का भी आधिकारी होता है जो उसने प्रतिभूति के अधीन वैधानिक रूप से चुकायी जा सकती है, परन्तु यदि वह किसी गलत रकम का भुगतान कर देता है तो उसके लिये मूल ऋणी उतरदायी नही ठहराया जा सकता |

उदाहरणार्थ, (i) ‘अ’, ‘स’ द्वारा ‘ब’ से लिये गये कुछ ऋण के लिये प्रतिभू है | ‘ब’, ‘अ’ से इस धन की माँग करता है तथा मना करने पर उसके विरुध्द वाद प्रस्तुत करता है जिसका कुछ उचित आधार होने के कारण ‘अ’ द्वारा प्रतिवाद किया जाता है | परन्तु ‘अ’ को वाद की लागत सहित ऋण की रकम का भुगतान करना पड़ता है | ‘अ’, ‘स’ से दोनों धनराशि प्राप्त कर सकता है |

इन वाद में यदि ‘अ’ के पास प्रतिवाद के लिये उचित आधार न होता तो वह वाद की लागत को ‘स’ से प्राप्त नही कर पाता |

(ii) ‘अ’,’ब’ द्वारा ‘अ’ को दिये गये चावल पर 2,000 रूपये की सीमा रक प्रत्याभूति देता है | ‘ब’, ‘स’ को 2,000 रूपये से कम मूल्या का चावल देता है किन्तु वह दिये चावल के बदले ‘अ’ से 2,000 रूपये का भुगतान प्राप्त कर लेता है | ‘अ’, ‘स’ से वास्तव में दिये गये चावल के मूल्य से आधिक धन वसूल नही कर सकता है |

  1. ऋणदाता के विरुध्द (Rights Against the creditor) – धारा 141 के अनुसार, जब प्रतिभू (गारण्टीकर्ता) ऋणदाता के प्रति अपने दायित्व को पूरा कर देता है तो वह ऋणदाता से ऐसी प्रत्येक वस्तु या सम्पति प्राप्त करने का अधिकारी होता है जो गारण्टी का अनुबन्ध करते समय उस ऋण की जमानत के रूप में ऋणदाता के पास थी, भले ही प्रतिभू (गारण्टीकर्ता) को इसकी जानकारी हो या न हो | यदि ऋणदाता जमानत की वस्तु खो देता है अथवा, गारण्टीकर्ता की अनुमति के बिना ही उसे किसी दुसरे को देता है तो प्रतिभू उस वस्तु या सम्पति के मूल्य को सीमा तक अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है |

उदाहरणार्थ, अतुल सन्दीप की गारण्टी पर विशाल की 1,000 रूपये उधार दे देता है एवं प्रतिभूति के रूप में विशाल की घड़ी भी रख लेता है | विशाल द्वारा भुगतान न करने पर सन्दीप 1,000 रूपये अतुल को देता है | ऐसी दशा में सन्दीप को अधिकार है की वह जमानत के रूप में विशाल द्वारा दी गई घड़ी को अतुल से प्राप्त कर ले |

  1. सह प्रतिभाओं के विरुध्द प्राप्त आधिकार (Rights Against Co-Sureties) – जब दो या दो से आधिक व्यक्ति एक ही ऋण अथवा दायित्व के प्रतिभू बने हुये हों तो उन्हें सह-प्रतिभू कहते है | दुसरे शब्दों में जब एक ही ऋण या वचन के लिये दो या दो से आधिक व्यक्ति गारण्टी देते है तो सह-सह-प्रतिभू कहते है | सह-प्रतिभूओ की निम्नलिखित दो पारकर की स्थिति हो सकती है –

(i) सह-प्रतिभू समान रूप से अशंदान के लिये उत्तरदायी है – धारा 146 के अनुसार जहाँ दो या आधिक व्यक्ति, संयुक्त अथवा पृथक् रूप से किसी एक ही ऋण अथवा कर्तव्य निष्पादन के लिये श-प्रतिभू है तो वे किसी विपरीत अनुबन्ध के अभाव में उस ऋण अथवा उसके उस भाग के लिये जो मूल ऋणी द्वारा चुकाया नही गया है, आपस में बराबर रकम के लिये जिम्मेदार होते है अर्थात् प्रतिभू को अपने सह-प्रतिभू से समान अंश प्राप्त करने का अधिकार होता है | यह महत्वहीन है की अनुबन्ध करते समय उसे दुसरे प्रतिभू के बारे में ज्ञान था या नहीं अथवा वे अपने को एक या विभिन्न अनुबन्धो के अंतर्गत बाध्य करते है |

उदाहरणार्थ, ‘अ’, ‘ब’ तथा ‘स’, ‘द’ को ‘र’ द्वारा उधार दिये गये 3,000 रूपये के लिये प्रतिभू है | ‘द’ भुगतान में त्रुटि करता है | ‘अ’, ‘ब’ तथा ‘स’ में से प्रत्येक बराबर की रकम 1,000 रूपये के लिये अलग-अलग उत्तरदायी है |

(ii) विभिन्न राशियों के लिये गारण्टी देने वाले सह-प्रतिभूओ के दायित्व – धारा 147 के अनुसार जब सह-प्रतिभाओं ने भिन्न-भिन्न राशियोँ के भुगतान का दायित्व उठाने के लिये गारन्टी दो हीं, तो वह अपनी-अपनी गारण्टी की सीमा तक बराबर-बराबर धनराशि चुकाने के लिये उत्तरदायी होंगे अर्थात् प्रतिभू अपने सह-प्रतिभू से ऐसी धनराशि प्राप्त करने का अधिकारी है |

उदाहरणार्थ, अरुण, अतुल व राहुल एक खंजाची की क्रमशः 10,000 रूपये, 20,000 रूपये व 30,000 रूपये तक की गारण्टी देते हगे | खजांची 30,000 रूपये का गबन करता है इस दशा में तीनो को दस-दस हजार रूपये देने होंगे | लेकिन अगर वह 40,000 रूपये का गबन करता है तो अरुण 10,000 रूपये, अतुल 15,000 रूपये व राहुल 15,000 रूपये देगा | यदि गबन की रकम 55,000 रूपये है तो अरुण 10,000 रूपये अतुल 20,000 रूपये व राहुल 25,000 रूपये के लिये दायी होगा |

संक्षेप में, यदि किसी सह-प्रतिभूओं को पुरे ऋण का भुगतान करना पड़ता है, तो वह दुसरे प्रतिभूओं से उनके हिस्सों की रकम वसूल करने का अधिकारी होता है |

प्रतिभू का दायित्त्व (Liability of Surety)

प्रतिभू का दायित्व गौण होता है | उसका दायित्त्व उस समय उत्पन्न होता है जबकि मूल ऋणी अपने वचन के सम्बन्ध में त्रुटि करता है | यदि मूल ऋणी कोई त्रुटि नही करता अथवा अपने वचन का निष्पादन स्वयम कर देता है तो प्रतिभू दायी नही होता | किन्तु ज्यों ही मूल ऋणी भुगतान करने में त्रुटि करता है त्योंही प्रतिभू मूल ऋणी के रूप में ऋणदाता के प्रति दायी हो जाता है |

       भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 128 के अनुसार, “जब की अनुबन्ध में इनके विपरीत कोई एनी व्यवस्था न हो, प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के दायित्व के साथ सह-विस्तृत होता है |” इस धारा का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है जैसा दायित्व मूलऋणी का होगा वैसा ही दायित्त्व मूलकणों द्वारा गलती किये जाने पर, प्रतिभू का होगा अर्थात् प्रतिभू के दायित्व की मात्रा भी होगी जितनी की स्वयं मूलऋणी की है | अत: प्रतिभूति के अनुबन्धो के अंतर्गत ऋणदाता, मूल ऋणी से ऋण की राशि, मूलधन पर ब्याज, मुकद्दमे के व्यय आदि जो भी हो, वैधानिक रूप से वसूल करने का आधिकार रखता है, वही सब प्रतिभू से भी प्राप्त करने का उसे अधिकार है | कहने का अभिप्राय यह है की प्रतिभू उस समस्त राशि व व्ययों को चुकाने के लिये बढ़े है जो की मूलऋणी को चुकाने पड़ते है |

उदाहरणार्थ, ‘अ’ एक विनियम पत्र ‘ब’ इसे स्वीकार कर लेता है | ‘स’, ‘ब’ को विनियम पत्र में लिखी रकम के भुगतान के लिये प्रत्याभूति देता है | ‘ब’ इस बिल को तिरस्कृत कर देता है | ऐसी दशा में ‘स’ न केवल विनियम पत्र में लिखी रकम के लिये दायी होगा | बल्कि उस रकम पर ब्याज तथा नवीनीकरण के खर्चो के लिये भी दायी होगा | यहाँ पर यह उललेखनीय ही की यदि अनुबन्ध करते समय प्रतिभू ने अपने दायित्त्व की कोई सीमा निर्धारित कर दी है तो ऐसी दशा में प्रतिभू द्वारा निश्चित की गई रकम से आधिक रकम उससे वसूल नही की जा सकती है |





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