Bcom 2nd Year Public Finance Taxable Capacity Notes

Bcom 2nd Year Public Finance Taxable Capacity Notes

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Bcom 2nd Year Public Finance Taxable Capacity Notes
Bcom 2nd Year Public Finance Taxable Capacity Notes

करदान क्षमता (Taxable Capacity)

 

प्रश्न 18. कर-दान क्षमता से आप क्या समझते हैं ? इसे प्रभावित करने वाले घटकों की विवेचना कीजिए।

(Meerut, 2012, 2008)

अथवा

एक देश की करदान क्षमता वह अधिकतम राशि है जो उस देश के नागरिक वास्तव में बिना दुःखी और कष्टपूर्ण जीवन बिताए और आर्थिक संगठन को अधिक अस्त-व्यस्त किये बिना सरकार के व्यय हेतु भुगतान कर सकते हैं।” व्याख्या कीजिये।

(Meerut, 1995 P)

अथवा

करदान क्षमता से क्या तात्पर्य है? किसी देश की करदान क्षमता को निर्धारित करने वाले तत्त्वों की विवेचना कीजिए।

(Avadh, 2006)

उत्तर- आधुनिक युग में सामान्यतः सरकारों का रूप लोक-कल्याणकारी होता जा रहा है जिसके कारण सरकारों द्वारा किये जाने वाले कार्यों में भी वृद्धि होती जा रही है। सार्वजनिक कार्यों को करने के लिए धन की आवश्यकता होती है तथा धन इकट्ठा करने के लिए ‘कर’ एक महत्वपूर्ण साधन है। कर के सम्बन्ध में सरकार को दो बातों पर विचार करना पड़ता है –

(1) विभिन्न सार्वजनिक कार्यों को करने के लिए कितना कर लगाया जाये।

(2) जनता कितना ‘कर’ दे सकती है? अत्यधिक करों के लगाने से कार्य-कुशलता तथा उत्पादन पर प्रतिकूल (बुरा) प्रभाव पड़ता है जिससे सरकार की आय भी कम हो जाती है। अत: कर लगाते समय सरकार को समाज की कर देने की क्षमता को ध्यान में रखना अवश्यक है।

करदान (कर देय) क्षमता का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Taxable Capacity)

 

करदान क्षमता, करारोपण की वह अधिकतम सीमा है जिससे अधिक कर लगाने से कार्यक्षमता तथा उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। करदान क्षमता की भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी हैं, मुख्य परिभाषायें निम्न प्रकार हैं

सर जोशिया स्टाम्प (Sir Josiah Stamp) के अनुसार, “एक देश की करदान क्षमता वह अधिकतम राशि है जो उस देश के नागरिक वास्तव में बिना दु:खी और कष्टपूर्ण जीवन बिताए और आर्थिक व्यवस्था को बहुत अधिक अस्त-व्यस्त किए बिना सरकार के व्यय हेतु भुगतान कर सकते हैं।”

प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार, “करदान क्षमता को उस अधिकतम राशि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे किसी देश के नागरिक बिना असह्य कष्ट के सरकार के व्यय हेतु योगदान कर सकते हैं।”

भारतीय करारोपण जाँच आयोग के अनुसार, “आर्थिक महत्व की दृष्टि से समाज के विभिन्न वर्गों को करदान क्षमता से अभिप्राय करारोपण की उस मात्रा से है, जिसके बाद उत्पादन कुशलता और प्रयास शिथिल होने लगते हैं।”

संक्षेप में, करदान-क्षमता किसी देश के लोगों की कर देने की वह मात्रा है जिसे सरकार अपनी आय के साधन के रूप में देश में उत्पादन, आर्थिक स्थायित्व और विकास की वांछित गति में अवरोध डाले बिना प्राप्त कर सकती है।

निरपेक्ष तथा सापेक्ष करदान क्षमता (Absolute and Relative Taxable Capacity)

निरपेक्ष करदान क्षमता, जिसे पूर्ण करदान क्षमता भी कहते हैं, से यह अभिप्राय है कि कुल मिलाकर कोई समाज अथवा राष्ट्र, उत्पादन तथा कार्यकुशलता पर बिना कोई अरुचिकर प्रभाव उत्पन्न किए हुए, किस सीमा तक कर के रूप में अंशदान दे सकता है। इसके विपरीत सापेक्ष करदान क्षमता का अर्थ समाज के दो विभिन्न वर्गों या क्षेत्रों की तुलनात्मक कर देय क्षमता से है। सरल शब्दों में, सापेक्ष करदान क्षमता यह स्पष्ट करती है कि दो या अधिक समुदायों (वों) से कर अंशदान किस अनुपात में प्राप्त किया जाये। करदान क्षमता को प्रभावित करने वाले घटक (निर्धारक तत्व)

यद्यपि करदान क्षमता का माप करने में कठिनाई होती है, फिर भी किसी देश की सरकार के लिये यह जानना आवश्यक है कि करदान क्षमता पर किन बातों का प्रभाव पड़ता है। वस्तुत: करदान क्षमता पर विभिन्न घटकों का प्रभाव पड़ता है, जो निम्न प्रकार हैं

(1) देश की राष्ट्रीय आय एवं जनसंख्या का अनुपात- करदान क्षमता पर इस बात का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है कि राष्ट्रीय आय और जनसंख्या का क्या अनुपात है। यदि राष्ट्रीय आय स्थिर रहती है तथा जनसंख्या में वृद्धि होती है तो करदान क्षमता घट जाती है। इसके विपरीत यदि जनसंख्या स्थिर रहती है और राष्ट्रीय आय बढ़ती है तो देश की करदान क्षमता बढ़ती है। यदि देश में राष्ट्रीय आय और जनसंख्या की वृद्धि की दर समान रहती है तो करदान क्षमता स्थिर रहती है।

(2) देश की सम्पत्ति- यदि अन्य बातें समान रहें तो देश की सम्पत्ति अधिक होने पर करदान क्षमता भी अधिक होगी। यहाँ सम्पत्ति से तात्पर्य प्राकृतिक एवं शोषित सम्पत्तियों से है अर्थात् देश की सम्पत्ति का अधिक होना पर्याप्त नहीं है, अपितु सम्पूर्ण सम्पत्तियों का शोषण होना चाहिए अर्थात् सम्पत्तियों को उत्पादक होना चाहिए तभी करदान क्षमता अधिक होगी।

(3) धन का वितरण- किसी देश की करदान क्षमता उस देश में आय एवं धन के वितरण पर भी निर्भर करती है। जिस देश में धन का वितरण जितना ही असमान होगा, वहाँ की करदान क्षमता उतनी ही अधिक होगी क्योंकि धनिक वर्ग अधिक कर दे सकने की स्थिति में होते हैं और कर वसूली का व्यय भी कम होता है। इसके विपरीत धन का वितरण समान होने पर करदान क्षमता कम होने लगती है। किन्तु कुछ लेखक इस विचार से सहमत नहीं हैं उनका कहना है कि धन का वितरण समान होने पर देश की करदान क्षमता अधिक होगी क्योंकि सभी व्यक्ति अपना अंशदान कर के रूप में दे सकने में समर्थ होंगे जबकि धन के असमान वितरण की स्थिति में कुछ धनी व्यक्ति ही कर दे सकेंगे।

(4) कर-प्रणाली- देश की कर-प्रणाली का भी देश की करदान क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। यदि अच्छी कर प्रणाली के सभी नियमों तथा सिद्धान्तों का देश की कर प्रणाली में ध्यान रखा गया है, कर प्रगतिशील हैं, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर में सन्तुलन है तो देश की करदान क्षमता अधिक होगी।

(5) सार्वजनिक व्यय की प्रकृति- सार्वजनिक व्यय की प्रकृति का भी देश की करदान क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। यदि सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक हित के लिए अधिकतम सामाजिक कल्याण के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर किया जाता है तो स्वाभाविक है कि जनता के जीवन-स्तर में सुधार होगा, रोजगार में वृद्धि होगी, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी और फलस्वरूप करदान क्षमता में वृद्धि होगी। इसके विपरीत, यदि सार्वजनिक व्यय अनुत्पादक कार्यों, जैसे—युद्ध या सेना पर किया गया तो करदान क्षमता कम हो जायेगी।

(6) सरकार पर विश्वास- देश की सरकार के प्रति जनता का विश्वास, नागरिकता और उत्तरदायित्व की भावना तथा राष्ट्र के प्रति त्याग की भावना को जन्म देता है। जिस सरकार के ऊपर जनता का विश्वास जितना अधिक होगा, वह सरकार उतनी ही अधिक मात्रा में कर प्राप्त कर सकेगी। अत: जनता का सरकार पर विश्वास भी करदान क्षमता का एक निर्धारित तत्व है

(7) आर्थिक विकास की गति- देश के आर्थिक विकास की गति भी देश की करदान क्षमता का एक महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है। यदि देश का आर्थिक विकास हो रहा है तो वहाँ के लोगों को रोजगार प्राप्त होगा, उत्पादन में वृद्धि होगी, राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी, जीवन-स्तर में सुधार होगा और करदान क्षमता में वृद्धि होगी। संक्षेप में, जो राष्ट्र विकसित होते हैं वहाँ जनता की करदान क्षमता अधिक होती है तथा जो राष्ट्र पिछड़े व अविकसित होते हैं वहाँ के नागरिकों की करदान क्षमता भी कम होती है।

(8) आय की स्थिरता- देशवासियों की करदान क्षमता उनकी आय की स्थिरता पर भी निर्भर करती है। यदि किसी देश के निवासियों की आय स्थिर हो तो वहाँ करदान क्षमता अधिक होगी, अन्यथा कम होगी। इसलिए कृषि प्रधान देशों की करदान क्षमता, उद्योग प्रधान देशों की तुलना में कम होती है क्योंकि कृषि से होने वाली आय अनिश्चित होती है।

(9) मौद्रिक दशायें- मुद्रा-स्फीति की दशा में नागरिकों की करदान क्षमता बढ़ जाती है। इसके विपरीत मन्दीकाल के निराशाजनक वातावरण में लोगों की करदान क्षमता कम हो जाती है और कर-भार अखरता है।

(10) करारोपण का उद्देश्य- करदान क्षमता इस बात पर भी निर्भर करती है कि करों द्वारा प्राप्त आय को किस उद्देश्य के लिए व्यय किया जा रहा है। यदि इस आय को उत्पादक और कल्याणकारी कार्यों पर व्यय किया जाता है तो करदान क्षमता अधिक होती है क्योंकि लोग कर देने को प्रोत्साहित होते हैं। इसके विपरीत, यदि करों से प्राप्त आय को अनुत्पादक कार्यों और नौकरशाही पर अनाप-शनाप ढंग से व्यय किया जाता है तो इसका करदान क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

करदान क्षमता की धारणा का महत्त्व (Importance of the Concept of Taxable Capacity)

कछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार कर देय क्षमता का कोई भी महत्व नहीं है क्योंकि इस न तो लीक प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है और इसका सही मापन भी आसान नहीं

है। दूसरी ओर कुछ अर्थशास्त्री इसे महत्वपूर्ण समझते हैं क्योंकि देश की वित्त-व्यवस्था के सफल संचालन के लिए करदान क्षमता की जानकारी होना आवश्यक है। संक्षेप में, करदान क्षमता के महत्व को निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है |

(1) कर प्रणाली की सुदृढ़ता- करदान क्षमता की उचित जानकारी से देश की कर प्रणाली को सुदृढ़ बनाया जा सकता है, क्योंकि यदि अनुकूलतम करदान क्षमता से कम कर लगाये जाते हैं तो सरकार के पास देश की आवश्यकता के अनुकूल संसाधन एकत्रित नहीं हो पाते और यदि अधिक कर लगाये जाते हैं तो जनता में असन्तोष उत्पन्न होता है और करों की चोरी की सम्भावना बढ़ जाती है। करदान क्षमता का ज्ञान अनावश्यक करारोपण पर रोक लगाता है।

(2) आर्थिक नियोजन में महत्व- करदान क्षमता की जानकारी के आधार पर आर्थिक नियोजन के लिये विभिन्न वित्तीय साधनों के जुटाने में सहायता मिलती है।

(3) संघीय वित्त- व्यवस्था में महत्व-संघीय वित्त-व्यवस्था में भी करदान क्षमता की धारणा का महत्व है। इसके आधार पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों के मध्य अनेक आर्थिक एवं वित्तीय समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

(4) युद्धकालीन वित्त जुटाने में सहायता- सामान्य परिस्थितियों में सरकार पूर्ण करदान क्षमता से कम कर लगाकर आवश्यक वित्तीय साधनों को जुटा सकती है, लेकिन युद्ध काल में अधिक वित्त की आवश्यकता होने के कारण जनता की पूर्ण अथवा निरपेक्ष करदान क्षमता की जानकारी आवश्यक है।

(5) न्यायपूर्ण वितरण- करदान क्षमता की जानकारी होने पर कर भार का न्यायपूर्ण वितरण सम्भव है।

(6) आर्थिक आधिक्य का आर्थिक विकास के लिए उपयोग-करदान क्षमता की सहायता से देश में सम्भाव्य आर्थिक अतिरेक (Potential Economic Surplus) का पता लगाकर उसे आर्थिक विकास के लिए उपयोग किया जा सकता है।

भारत में करदान क्षमता (Taxable Capacity in India)

भारत में करदान क्षमता के विषय में अत्यधिक वाद- विवाद है। कुछ विचारकों का मत है कि भारत में करदान क्षमता अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी है और कुछ विचारकों का मत है कि भारत में करदान क्षमता अभी अपनी अधिकतम सीमा तक नहीं पहुँच पायी है और अतिरिक्त करारोपण की अभी पर्याप्त गुंजाइश है।

Public Finance Taxable Capacity

करदान क्षमता में वृद्धि सम्भव नहीं-प्रसिद्ध कानून विशेषज्ञ पालखीवाला के अनुसार, “भारत विश्व के उन देशों में से है, जहाँ कर का भार सबसे अधिक है।” इस विचारधारा के समर्थन में मुख्य तर्क इस प्रकार हैं |

(i) देश में जनसंख्या वृद्धि, उत्पादन-वृद्धि से अधिक है, जिससे प्रति व्यक्ति आय और करान-क्षमता कम होती जा रही है।

(ii) जनता द्वारा अधिकांश करों का प्रायः विरोध किया जाता है।

(iii) राष्ट्रीय आय का कृषि जैसे अनिश्चित व्यवसाय पर अधिक निर्भर होने के कारण आय में अस्थिरता है, जिसका करदान क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ा है।

(iv) भारत में सरकारी व्यय का अधिकांश भाग सुरक्षा, नागरिक प्रशासन व गैर-विकास मदों पर व्यय किया जाता है जिससे लोगों पर कर का भार तो बढ़ा है, लेकिन उनकी करदान क्षमता घटी है।

(v) देश में प्रचलित कर-प्रणाली अव्यवस्थित एवं अन्यायपूर्ण है जिससे करों की चोरी एक राष्ट्रीय दिनचर्या का रूप ले चुकी है। करदान क्षमता में वृद्धि सम्भव है?

इस विचारधारा के समर्थकों का मत है कि भारत में अभी तक करदान क्षमता अपनी उच्चतम सीमा पर नहीं पहुँची है, और अतिरिक्त करारोपण की पर्याप्त गुंजाइश है। डॉ० पी० एस० लोकनाथन के अनुसार, “भारत में करदान क्षमता की सीमा नहीं आयी है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था अतिरिक्त करों को सहन कर सकती है। इस विचारधारा के पक्ष में प्राय: निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं –

(i) भारत में राष्ट्रीय आय में करों का भाग अन्य देशों की अपेक्षा बहुत कम (मात्र १६३) है।

(ii) नियोजित विकास के कारण आय एवं रोजगार में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

(iii) कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के कारण लोगों की उत्पादन शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

(iv) आय एवं धन के वितरण की असमानतायें कम हुई हैं। (v) लोगों के जीवन-स्तर में वृद्धि हुई है। (vi) देश में मौद्रिक व्यवस्था का विस्तार हो रहा है।

करारोपण जाँच समिति के अनुसार भारत में अभी और अधिक कर लगाने की सम्भावना है क्योंकि देश की राष्ट्रीय आय में करों के द्वारा प्राप्त आय का अनुपात अभी भी बहुत कम है। डॉ० लोकनाथन ने भी धनिकों पर अधिक कर लगाने की सिफारिश की है।

निष्कर्ष-निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि भारत में धनी वर्ग के लोगों पर कर-भार कम है एवं निर्धन वर्ग पर कर-भार करदान क्षमता से अधिक है। अत: जनता पर कर-भार डालने से पूर्व यह आवश्यक है कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करने के लिए उत्पादक योजनाएँ अपनायी जायें, वस्तुओं के मूल्यों को नियन्त्रित किया जाये, जनता की अशिक्षा एवं व्याप्त सामजिक बुराइयों को दूर किया जाये तथा देश को श्रम शक्ति का उपयोग उचित उत्पादन कार्यों में किया जाये।

संक्षेप में, हमारी राय में भारत में उस समय तक नये कर नहीं लगाये जाने चाहियें, जब तक कि देश में बेरोजगारी दूर न हो और प्रति-व्यक्ति वास्तविक आय का स्तर ऊंचा न हो जाये।


Bcom 2nd Year Business Public Finance Public Expenditure

Bcom 2nd Year Business Public Finance Public Revenue

 

Public Finance Taxable Capacity


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