BCom 1st Year Business Economics Perfect Competition in Hindi
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पूर्ण प्रतियोगिता
(Perfect Competition)
प्रश्न 13:- पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण के समान्य सिध्दान्त को समझाइये |
(1998 R)
अथवा
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत निर्धारण को समझाइये |
(1997 Back)
अथवा
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में विक्रेता प्रचलित मूल्य पर विक्रय करता है जबकि एकाधिकार में वह मूल्य निर्धारित करता है। स्पष्ट कीजिए।
(1993 R)
उत्तर-
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Perfect Competition)
‘पूर्ण प्रतियोगिता’ बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें वस्तु के बहुत से क्रेता व विक्रेता उपलब्ध होते हैं तथा उनमें वस्तु को क्रय एवं विक्रय करने के लिए परस्पर प्रतियोगिता होती है। वास्तव में पूर्ण प्रतियोगिता, बाजार की वह स्थिति है जिसमें कोई भी क्रेता अथवा विक्रेता । व्यक्तिगत रूप से किसी वस्तु विशेष के बाजार मूल्य को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता और इसलिये सम्पूर्ण बाज़ार में वस्तु का एक ही मूल्य पाया जाता है। पूर्ण प्रतियोगिता की कुछ प्रमुख परिभाषायें निम्नांकित हैं
प्रो० मार्शल के अनुसार, “बाजार जितना अधिक पूर्ण होगा, उतनी ही इसके अनेक भागों में किसी एक वस्तु के लिए एक समय पर एक ही कीमत भुगतान करने की प्रवृत्ति पायी जायेगी।”
श्रीमती जोन रॉबिन्सन के शब्दों में, “पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति तब पाई जाती है जबकि प्रत्येक उत्पादक की उत्पत्ति की माँग पूर्णतया लोचदार होती है।”
निष्कर्ष– उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में प्रत्येक फर्म द्वारा वस्तु के प्रचलित मूल्य को ही स्वीकार किया जाता है, उसकी स्वयं कोई मूल्य नीति नहीं होती है। इस प्रकार प्रत्येक फर्म कीमत स्वीकार करने वाली (Price Taker) होती है न कि कीमत निर्धारित करने वाली (Price Maker) और पूर्ण प्रतियोगिता . में सदैव वस्तु की कीमत एक ही होती है।
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएँ अथवा आवश्यक दशायें
पूर्ण प्रतियोगिता के लिए बाजार में कुछ शर्तों का पाया जाना आवश्यक है। उन्हें ही पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएँ अथवा आवश्यक दशायें कहा जाता है। प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
(1) पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या अत्यधिक होती है |
(2) सम्बन्धित वस्तु की सभी इकाइयाँ रंग-रूप, आकार-प्रकार, गुण, पैकिंग आदि सभी दृष्टियों से समान होती हैं।
(3) उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश व बहिर्गमन की पूरी स्वतन्त्रता होती है।
(4) पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य, माँग व पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है । इसमें सरकार, उपभोक्ता संघ या उत्पादक संघों द्वारा कोई कृत्रिम प्रतिबन्ध नहीं लगाये जाते हैं।
(5) पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन के साधन पूर्ण गतिशील हाते हैं।
(6) प्रत्येक उपभोक्ता एवं उत्पादक को बाजार की स्थितियों की पूर्ण जानकारी होती है |
(7) यह मान लिया जाता है कि सभी क्रेता व विक्रेता एक ही स्थान पर होते हैं, अत:वस्तुओं को लाने-ले जाने के व्यय नहीं होते हैं अर्थात् परिवहन लागतों की अनुपस्थिति होती है।
(8) सम्पूर्ण बाजार में वस्तु की कीमत एक समान होती है तथा इस कीमत पर कितनी भी वस्तु खरीदी एवं बेची जा सकती है।
पूर्ण एवं अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर
(Distinction between Perfect and Imperfect Competitions)
पूर्ण एवं अपूर्ण प्रतियोगिता में निम्नांकित अन्तर हैं
(1) पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है। एक विक्रेता कुल उत्पादन का बहुत थोड़ा भाग उत्पन्न करता है । वह बाजार मूल्य को प्रभावित नहीं कर सकता। इसके विपरीत अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेताओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे वे मूल्य को प्रभावित करने में सफल हो जाते हैं।
(2) पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु प्रमापित या एकरूप होती है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद पाया जाता है। .
(3) पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक विक्रेता कीमत मान लेने वाला’ (Price Taker) होता है, कीमत निर्धारित करने वाला’ (Price Maker) नहीं । कीमत को दिया हुआ मानकर प्रत्येक उत्पादन की मात्रा को समायोजित करता है। इसके विपरीत, अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद पाया जाता है और विक्रेता एक सीमा तक वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकता है।
(4) पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म के लिए माँग रेखा या औसत आगम रेखा पूर्णतया लोचदार होती है अर्थात् पड़ी रेखा होती है। इसके विपरीत, अपूर्ण प्रतियोगिता में माँग रेखा पूर्ण लोचदार से कम हाती है अर्थात् वह बाँये से दाँये नीचे की ओर गिरती हुई होती हैं।
(5) पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योगों में नई फर्मों का प्रवेश व बहिर्गमन बहुत आसान होता है जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में यह आसान नहीं होता।
(6) पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं व विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता।
(7) पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधन पूर्णतः गतिशील होते हैं,जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में उनकी गतिशीलता में अनेक बाधायें आती हैं।
(8) पूर्ण प्रतियोगिता में गैर-कीमत प्रतियोगिता नहीं होती, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद पाया जाता है और इसलिए गैर-कीमत प्रतियोगिता होती है।
(9) पूर्ण प्रतियोगिता एक काल्पनिक स्थिति है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता एक वास्तविक स्थिति है।
पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण
(Price Determination under Perfect Competition)
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत निर्धारण के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में प्रारम्भ में बहुत मतभेद था। एडम स्मिथ और रिकार्डो का यह मत था कि किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है, किन्तु वालरस और जेवन्स का विचार था कि वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता से निर्धारित होती है । वस्तुतःमूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री पूर्ति-पक्ष पर और उपयोगितावादी विचारक माँग-पक्ष पर अड़े रहे ।
इस विवाद को समाप्त करने का श्रेय डॉ० मार्शल को दिया जाता है, जिन्होंने मूल्य निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों शक्तियों को समान महत्त्व दिया।
मार्शल का दृष्टिकोण मार्शल के अनुसार, किसी वस्तु का मूल्य केवल उत्पादन लागत (पूर्ति) द्वारा या केवल उपयोगिता (माँग) द्वारा निर्धारित नहीं होता, अपितु माँग और पूर्ति के पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा निर्धारित होता है। वास्तव में, जिस प्रकार कागज के टुकड़े को काटने के लिए कैंची के दोनों फलकें आवश्यक हैं,उसी प्रकार किसी वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग व पूर्ति दोनों शक्तियाँ आवश्यक हैं । कोई भी एक शक्ति मूल्य को निर्धारित नहीं कर सकती।
मूल्य–निर्धारण : माँग और पूर्ति का सन्तुलन
(Price Determination : Equilibrium of Demand and Supply)
क्रेताओं की दृष्टि से मूल्य की अधिकतम सीमा सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) होती है अर्थात् वस्तु का मूल्य उसकी सीमान्त उपयोगिता से अधिक नहीं हो सकता । विक्रेताओं की दृष्टि से मूल्य की न्यूनतम सीमा सीमान्त उत्पादन व्यय (Marginal Cost of Production) होती है अर्थात् वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त उत्पादन व्यय से कम नहीं हो सकता, अतः वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा वस्तु का मूल्य-निर्धारित होता है जहाँ पर कि वस्तु की माँगी जाने वाली मात्रा उसकी पूर्ति की जाने वाली मात्रा के ठीक बराबर हो जाती है।
निम्नलिखित तालिका विभिन्न मूल्यों पर चावल की माँग तथा पूर्ति को बताती है
चावल की कुल पूर्ति (प्रतिदिन) | मूल्य (प्रति किवंटल) | चावल की माँग (प्रतिदिन) |
1000 | 100 | 200 |
800 | 80 | 400 |
500 | 50 | 500 |
400 | 30 | 800 |
200 | 20 | 1000 |
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि बाजार में सन्तुलन मूल्य 50 रुपये प्रति क्विटल निश्चित होगा, क्योंकि इस मूल्य पर माँग तथा पूर्ति दोनों 500 क्विटल के बराबर हैं। इसे चित्र के द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है।
इस रेखाचित्र में उपर्युक्त तालिका के अंकों (Figures) को ही दर्शाया गया है। चित्र में माँग और पूर्ति की रेखाएँ ‘DD’ एवं ‘SS‘ एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटती हैं एवं इस बिन्दु पर सन्तुलन मूल्य 50 रुपये प्रति क्विटल आ रहा है।
प्रश्न 14-पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक फर्म के सन्तुलन को स्पष्ट कीजिए।
(1990 S)
अथवा
सीमान्त लागत (MC), सीमान्त आगम (MR) वाले बिन्दु पर किस प्रकार एक कम्पनी अपने लाभ को अधिकतम और हानि को न्यूनतम करती है?
उत्तर–साम्य शब्द का अर्थ है ‘सन्तुलन की स्थिति’ अथवा ‘परिवर्तन की अनुपस्थिति’। जब कोई फर्म ऐसी अवस्था में पहुँच जाती है, जिसमें वह अपने उत्पादन की मात्रा या उत्पादन . के पैमाने में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं करना चाहती, तो वह फर्म साम्य की अवस्था में कहलाती है। ऐसी स्थिति में फर्म का लाभ अधिकतम होता है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म का वस्तु की कीमत पर कोई नियन्त्रण नहीं होता और उसे उद्योग की माँग एवं पूर्ति की शक्तियों के द्वारा निर्धारित कीमत को ही स्वीकार करना पड़ता है। फर्म का माँग वक्र अथवा औसत आय वक्र पूर्णतया लोचदार अर्थात् X-अक्ष के समानान्तर होता है। फर्म को निर्धारित कीमत .. को स्वीकार करके केवल अपने उत्पादन की मात्रा का निर्धारण करना होता है। यद्यपि फर्म एक दी हुई कीमत पर कितनी ही मात्रा में उत्पादन कर सकती है, परन्तु प्रत्येक फर्म केवल उतना ही उत्पादन करती है, जिससे उसे अधिकतम लाभ प्राप्त हो । फर्म की इस अवस्था को ही उसकी साम्य (सन्तुलन) अवस्था कहते हैं।
फर्म के साम्य की स्थिति को दो प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
(1) कुल आगम तथा कुल लागत वक्र रीति ।
(2) सीमान्त आगम तथा सीमान्त लागत वक्र रीति।
(1) कुल आयम तथा कुल लागत वक्र रीति– इस रीति के अनुसार उत्पादन की जिस मात्रा पर फर्म
की कुल आय तथा कुल लागत का अन्तर सबसे अधिक होता है, उस बिन्दु पर फर्म का लाभ अधिकतम होता है, अतः इसी बिन्दु पर फर्म सन्तुलन की अवस्था में होती
रेखाचित्र में TR कुल आगम रेखा तथा TC कुल लागत रेखा है। Q1 से Q2 के बीच उत्पादन के किसी भी स्तर पर । फर्म को धनात्मक लाभ प्राप्त होगा।
उत्पादन की मात्रा 0 पर TR तथा । TC के बीच खड़ी दूरी MP सबसे अधिक है, अतः 00 पर फर्म को अधिकतम लाभ (PM) प्राप्त हो रहा है। Q बिन्दु पर ही फर्म साम्य की स्थिति में होगी। A तथा B ‘Break even Points’ हैं जहाँ फर्म को केवल सामान्य लाभ प्राप्त होता है।
(2) सीमान्त आगम तथा सीमान्त लागत वक्र रीति– इस रीति के अनुसार फर्म का साम्य उस उत्पादन मात्रा पर होता है जहाँ उसकी सीमान्त लागत (MC) तथा सीमान्त आगम (MR) बराबर होती है। इस रीति में फर्म के सन्तुलन की निम्न दो शर्ते हैं
(1) सीमान्त लागत (MC) = सीमान्त आगम (MR) होनी चाहिये। (2) सीमान्त लागत वक्र, सीमान्त आगम वक्र को नीचे से काटे।
रेखाचित्र में MC वक्र MR वक्र को A तथा B दो बिन्दुओं पर काटता है । यद्यपि A बिन्दु पर MC = MR है, तथापि फर्म 11 इस बिन्दु पर सन्तुलन में नहीं होगी, क्योंकि A बिन्दु से आगे उत्पादन बढ़ाने पर फर्म को लाभ होगा (:. MR > MC)। . B बिन्दु पर उत्पादन मात्रा पर फर्म सन्तुलन में मानी जायेगी, क्योंकि इस बिन्दु . पर सन्तुलन की दोनों शर्ते पूरी हो जाती हैं अर्थात्
(i) MC = MR तथा
(ii) MC वक्र MR वक्र को नीचे से काटते हुए ऊपर उठ रहा है।
फर्म इस बिन्दु के बाद उत्पादन नहीं बढ़ायेगी,क्योंकि इस बिन्दु के बाद सीमान्त लागत सीमान्त आय से अधिक होने लगती है अर्थात्
MC > MR
अल्पकाल में फर्म का साम्य
(Firm’s Equilibrium in the Short Period)
अल्पकाल में इतना समय नहीं होता कि फर्म अपनी वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर पूर्णतया माँग के अनुरूप कर सके । उत्पादन के स्तर में कमी या अधिकता केवल परिवर्तनशील साधनों (श्रम व कच्चा माल) की मात्रा तक ही की जा सकती है। पूँजी उपकरणों जैसे स्थिर साधनों में परिवर्तन करना अल्पकाल में सम्भव नहीं हो पाता, अतः अल्पकाल में एक फर्म लाभ, शून्य लाभ या हानि किसी भी स्थिति में हो सकती है।
(i) लाभ की स्थिति– इस स्थिति में फर्म की औसत आय (AR); औसत लागत (AC) . में अधिक होती है। इसे निम्न चित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है
संलग्न चित्र द्वारा स्पष्ट है कि उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत रेखा ML है। फर्म अपना उत्पादन E बिन्दु पर निर्धारित करेगी, . क्योंकि यहाँ (i) MR = MC तथा (ii) MC वक्र MR को नीचे से काटता है, अतः यह बिन्दु अधिकतम लाभ का बिन्दु है, जिस पर फर्म सन्तुलन में होगी और अपने 4 उत्पादन की मात्रा 0Q निश्चित करेगी। फर्म अपने उत्पादन की प्रति इकाई को EO कीमत पर बेचती है, जबकि उसकी प्रति इकाई लागत RQ है, इसलिये उसका प्रति इकाई लाभ EQ – RQ = ER है और कुल लाभ ER SM है।
ii) सामान्य लाभ की स्थितिद्वारा स्पष्ट है कि उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत रेखा RT है । P बिन्दु पर फर्म सन्तुलन में है, क्योंकि यहाँ पर (i) MR = MC, (ii) MC वक्र MR वक्र को नीचे काटता है। चूंकि बिन्दु P पर MC = AC = MR = AR है; इसलिये फर्म को कोई अतिरिक्त लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है ।
अत:P बिन्दु सामान्य लाभ अथवा ” शून्य लाभ बिन्दु (Point of Normal Profit or Zero Profit) है, अत: फर्म OQ मात्रा का उत्पादन करके उसे QP पर ‘बेचेगी।
(iii) हानि की स्थिति– फर्म के लिए ऐसी स्थिति भी पैदा हो सकती है कि वह उत्पादन की किसी
भी मात्रा पर कीमत द्वारा लागत पूरी न कर सके । निश्चित ही इस अवस्था में फर्म को हानि होगी, क्योंकि AR < AC । हानि होने पर फर्म की कोशिश यह होगी कि उसकी हानि न्यूनतम हो । यदि फर्म को होने वाली हानि स्थिर लागतों से अधिक होती है, तो उत्पादन बन्द कर देगी। फर्म उत्पादन को तभी जारी रखेगी, जबकि उसकी हानि स्थिर लागत के बराबर या इससे कम होगी। उत्पादन की मात्रा का वह बिन्दु उत्पादन बन्द करने का बिन्दु (shut-down point) कहलायेगा जहाँ फर्म को AVC भी कीमत के रूप में प्राप्त नहीं हो रही है अर्थात् प्रति इकाई हानि AFCY से अधिक है। इन्हीं बातों को चित्र की सहायता से समझा जा सकता है।
जब MC, MR को नीचे से काटती है तो उस बिन्दु का सम्बन्ध जिस उत्पादन की मात्रा से होता है वह दी हुई परिस्थितियों में सर्वोत्तम (हानि होने पर न्यूनतम हानि) होता है । इसलिए इस चित्र के अनुसार,यदि फर्म उत्पादन बेचना चाहेगी, तो वह मात्रा OQ होगी, इससे कम या अधिक नहीं । इस मात्रा पर कीमत (या AR) EQ है जो AC अर्थात् CQ.से कम है, अत: फर्म को प्रति इकाई CE की हानि होगी और कुल हानि CEPD होगी।
दीर्घकाल में फर्म का सन्तुलन
(Firm’s Equilibrium in the Long Period)
दीर्घकाल में फर्म को केवल सामान्य लाभ (Normal Profit) ही प्राप्त होता है । इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं –
(i) दीर्घकाल में प्लाण्ट का आकार बदला जा सकता है, जिससे स्थिर तथा परिवर्तनशील लागतों के बीच का अन्तर समाप्त हो जाता है अर्थात् सभी लागतें परिवर्तनशील हो जाती है तथा
(ii) उद्योग में फर्मों की संख्या घट-बढ़ सकती है।
दीर्घकाल में कोई स्थिर लागतें नहीं होती, अतः घाटा उठाकर उत्पादन को जारी रखने के लिए फर्म मजबूर नहीं है । परिणाम यह होगा कि अल्पकाल में लगातार घाटा उठाते रहने वाली फर्मे दीर्घकाल में उत्पादन को बन्द कर उद्योगी से निकलना प्रारम्भ करदेंगी। इसका परिणाम यह होगा कि बर्हिगमन करने वाली फर्मों के उत्पादन बन्द करने से वस्तु की पूर्ति कम होगी, जिससे कीमतें बढ़ेगी और यह क्रम . उस समय तक जारी रहेगा, जब तक कि विद्यमान फर्मों को सामान्य लाभ की प्राप्ति न हो।
दूसरी ओर फर्मों को असामान्य लाभ प्राप्त होने की दशा में लाभ के आकर्षण से नयी-नयी फ उस उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश करेंगी। उद्योग का आकार बढ़ेगा, वस्तु की पूर्ति बढ़ेगी जिसके परिणामस्वरूप कीमतें घटेंगी और फर्म के लाभ में कमी होगी।
यह क्रम उस समय तक जारी रहेगा जब तक कि वस्तु की कीमत घटकर उसकी औसत लागत के बराबर न हो जाये अर्थात् फर्म सामान्य लाभ की स्थिति तक न पहुँच जाये।
दीर्घकाल में फर्म के सन्तुलन को उपर्युक्त चित्र की सहायता से समझा जा सकता है ।
उपरोक्त चित्र में LAC और LMC क्रमशः दीर्घकालीन औसत लागत (Long Period Average Cost) तथा दीर्घकालीन सीमान्त लागत (Long Period Marginal Cost) की रेखाएँ हैं । दीर्घकालीन औसत लागत रेखाएँ अल्पकालीन रेखाओं की तुलना में चपटी (filter) होती हैं । इस चित्र में फर्म को मात्र सामान्य लाभ प्राप्त हो रहा है, क्योंकि सन्तुलन मात्रा 00 पर वस्तु की दीर्घकालीन कीमत (या LAR) तथा LAC बराबर हैं। यही नहीं, इस सन्तुलन बिन्दु पर LMC = LAC = AR = MR होता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
(Short Answer Questions)
प्रश्न 1-बाजार ढाँचा (संरचना) क्या है? यह किन बातों पर निर्भर करता है?
उत्तर– बाजार संरचना से आशय बाजार के उन विशिष्ट स्वरूपों से होता है, जिनमें किसी वस्तु अथवा सेवा का उत्पादन, क्रय अथवा विक्रय किया जाता है । इससे किसी उद्योग विशेष में पाई जाने वाली प्रतियोगिता की मात्रा तथा स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।
पापास तथा हिरशे के अनुसार, “बाजार संरचना से आशय किसी वस्तु या सेवा के लिये ‘ बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या और वितरण आकार से है।”
बाजार ढाँचे को निर्धारित करने वाले तत्त्व
(1) वस्तु का उत्पादन करने वाली फर्मों की संख्या बाजार संरचना, किसी वस्तु का उत्पादन करने वाली फर्मों की संख्या पर निर्भर करती है अर्थात् वस्तु का केवल एक ही उत्पादक है अथवा अधिक उत्पादक हैं।
(2) फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तु का स्वरूप बाजार संरचना फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के स्वरूप पर भी निर्भर करती है अर्थात् सभी उत्पादकों के द्वारा समरूप वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है अथवा विभेदित वस्तुओं का।
(3) उद्योग में फर्मों के प्रवेश की शर्ते उद्योग में फर्गों का प्रवेश स्वतन्त्र, प्रतिबन्धित अथवा कठिन हो सकता है। फर्मों के प्रवेश की शर्ते भी बाजार संरचना को प्रभावित करती हैं। यदि फर्मों का प्रवेश प्रतिबन्धित होता है, तो एकाधिकार तथा यदि नई फर्मों का प्रवेश स्वतन्त्र होता है जो पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति पाई जाती है।
(4) क्रेताओं तथा विक्रेताओं में पारस्परिक निर्भरता का अंश बाजार संरचना इस बात से भी बहुत अधिक प्रभावित होती है कि क्रेता तथा विक्रेता किस अंश तक एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।
प्रश्न 2-“पूर्ण प्रतियोगिता एक भ्रम है।” आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर– पूर्ण प्रतियोगिता के लिये जिन दशाओं की आवश्यकता होती है, वे वास्तविक संसार में नहीं पाई जाती । इसी कारण से आधुनिक अर्थशास्त्री पूर्ण प्रतियोगिता को एक कोरी कल्पना मानते हैं। उनका यह विचार निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है
(1) वस्त का समरूप न होना– वास्तविक जीवन में सभी विक्रेताओं की वस्तुएँ मिलती जुलती तो होती है परन्तु समरूप नहीं होती। इसी कारण पूरे बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य प्रचलित नहीं रह पाता।
(2) फर्मों के स्वतन्त्र प्रवेश एवं बहिर्गमन में बाधाएँ– वास्तविक जीवन में फर्मों के प्रवेश एवं बहिर्गमन में बहुत-सी बाधाएँ होती हैं, जिससे पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक शर्त पूरी नहीं हो पाती।
(3) क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता– पूर्ण प्रतियोगिता की एक आवश्यक शर्त यह होती है कि क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है जबकि व्यवहारिक जीवन में क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है।
(4) उत्पत्ति के साधनों तथा क्रेताओं में पूर्ण गतिशीलता का अभाव – वास्तविक जीवन में उत्पत्ति के साधनों तथा क्रेताओं में पूर्ण गतिशीलता नहीं पाई जाती। इसी कारण .पूर्ण प्रतियोगिता केवल एक कल्पना मात्र रह जाती है ।
(5) सरकारी हस्तक्षेप – वास्तविक जीवन में वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में सरकार का भी हस्तक्षेप रहता है, अत: पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति देखने को नहीं मिलती।
इन सब तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्ण प्रतियोतगिता वास्तविक जीवन में नहीं पाई जाती। अतः पूर्ण प्रतियोगिता केवल एक भ्रम है।
प्रश्न 3-उत्पादन बंद का बिन्दु क्या है? यह कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर– यदि अल्पकाल में कोई फर्म हानि की स्थिति में चल रही है तो यह प्रश्न उठता है कि क्या फर्म को अल्पकाल में हानि उठाकर भी उत्पादन जारी रखना चाहिए? अल्पकाल में हानि की स्थिति में भी उत्पादन करना चाहिए या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर फर्म की औसत . परिवर्तनशील लागत से पता चलता है । फर्म की कुल लागतों में दो प्रकार की लागतें सम्मिलित होती हैं-स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत । स्थिर लागत वह लागत होती है जिन्हें उत्पादन बन्द करने के बाद भी वहन करना पड़ता है तथा परिवर्तनशील लागत वह लागत होती है जो उत्पादन की मात्रा के अनुपात में घटती बढ़ती रहती हैं। अल्पकाल में यदि वस्तु का मूल्य उसकी औसत परिवर्तनशील लागत को पूरा करता है तो भी फर्म उत्पादन जारी रखेगी, क्योंकि यदि उत्पादन बन्द भी कर दिया जाए, तो भी उसे स्थिर लागतों को वहन करना ही पड़ता है। लेकिन यदि फर्म को औसत परिवर्तनशील लागत के बराबर भी मूल्य प्राप्त नहीं हो रहा है तो वह उत्पादन बन्द कर देगी। अतः स्पष्ट है कि यदि AR = AVC है तो फर्म उत्पादन नहीं करेगी। इस बिन्दु को ही उत्पादन बंद का बिन्दु कहा जाता है।
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