BCom 1st Year Business Economics Elasticity of Demand in Hindi

BCom 1st Year Business Economics Elasticity of Demand

 

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BCom 1st Year Business Economics Elasticity of Demand in Hindi
BCom 1st Year Business Economics Elasticity of Demand in Hindi

 

माँग की लोच

Elasticity of Demand

 

प्रश्न 3-माँग की लोच से आप क्या समझते है? उन तत्त्वों को बताइये जिन पर कि यह निर्भर करती है। 

अथवा                                          (1998 P)

 

माँग की कीमत लोच किसे कहते हैं? माँग की कीमत लोच की विभिन्न श्रेणियाँ क्या हैं |

अथवा                              (1999 R, 1998 Back)

 

माँग की लोच को समझाइये इसको प्रभावित करने वाले तत्त्वों की विवेचना कीजिए।

अथवा                                    (1996 Back)

 

माँग की लोच क्या है ? माँग की लोच के प्रकारों एवं इसे प्रभावित करने वाले तत्त्वों का वर्णन कीजिए। 

(2009) 

उत्तर- माँग के नियम और माँग की लोच में अन्तर  माँग का नियम यह तो स्पष्ट करता है कि मूल्य में वृद्धि होने पर माँग कम हो जाती है और मूल्य के घटने पर माँग बढ़ जाती है, परन्तु इस नियम के द्वारा यह ज्ञात नहीं किया जा सकता कि मूल्यों में एक निश्चित परिवर्तन होने से माँग में कितना परिवर्तन होगा अर्थात् यह नियम हमें मूल्य परिवर्तनों के परिणामस्वरूप माँग में होने वाले परिवर्तनों की ‘मात्रा’ या ‘दर’ के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं देता। इस बात को जानने के लिए ही अर्थशास्त्रियों ने माँग की लोच का विचार प्रस्तुत किया है। वस्तुत: ‘माँग की लोच’ एक प्रकार का मापक है जो कीमत में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग-मात्रा में होने वाले परिवर्तन की ओर संकेत करता है। इसे एक उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-उदाहरण के लिए, मनुष्य का शरीर गर्म होने पर प्रायः यह कहा जाता है कि वह व्यक्ति बुखार से पीड़ित है, परन्तु थर्मामीटर की सहायता से यह पता चल जाता है कि उसे कितना बुखार है ? ठीक इसी प्रकार माँग का नियम केवल मूल्य और माँग के विपरीत सबन्ध को तो स्पष्ट करता है, परन्तु मूल्य में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग-मात्रा में होने वाले परिवर्तन को मापने का कार्य ‘माँग की लोच’ के द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है।

 

‘माँग की लोचकी परिभाषा’

(Definition of Elasticity of Demand)

 

माँग की लोच को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

 

 

प्रो० मार्शल के अनुसार, “बाजार में माँग का अधिक या कम लोचदार होना इस बात पर निर्भर करता है कि एक निश्चित मात्रा में कीमत के घट जाने पर माँग की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है या कम तथा एक निश्चित मात्रा में कीमत के बढ़ जाने पर माँग की मात्रा में अधिक कमी आती है अथवा कम।” (“The elasticity of demand in a market is great or small according to the amount demanded increases much or little for a given fall in price and diminishes much or little for a given rise in price.”)

 

प्रो० केयरन क्रास के अनुसार, “किसी वस्तु की माँग की लोच वह दर है जिसके अनुसार माँग की मात्रा, मूल्य में परिवर्तनों के फलस्वरूप बदल जाती है।”

प्रो० बोल्डिंग के अनुसार, “किसी वस्तु की कीमत में एक प्रतिशत परिवर्तन होने से वस्तु की माँग में जो परिवर्तन होता है, उसे माँग की लोच कहते हैं।”

 

प्रो० मेयर्स के अनुसार, “माँग की लोच मूल्य के सापेक्ष परिवर्तन के प्रभावस्वरूप वस्तु  की क्रय की गयी मात्रा में सापेक्ष परिवर्तन पर दिये हुये माँग वक्र की माप है।”

 

उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचन से स्पष्ट है कि माँग की लोच किसी वस्तु के मूल्य में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप उस वस्तु की माँग पर पड़ने वाले प्रभाव की माप है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि डॉ० मार्शल ने ‘माँग की लोच’ की धारणा का प्रयोग केवल ‘कीमत परिवर्तन’ के सन्दर्भ में किया है, अत: माँग की लोच से आशय सामान्यतः ‘माँग की कीमत लोच’ से ही लगाया जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि माँग की लोच सदैव ऋणात्मक (Negative) होती है क्योंकि माँग, कीमत परिवर्तन की दिशा से विपरीत दिशा में परिवर्तित होती है।

 

माँग की लोच की विभिन्न अवधारणाएँ

(Various Concepts of Elasticity of Demand)

 

माँग की लोच से सम्बन्धित प्रमुख अवधारणाएँ निम्न प्रकार हैं

(1) माँग की कीमत लोच अर्थात् वस्तु की कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में परिवर्तन।

(2) माँग की आय लोच अर्थात् आय में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में परिवर्तन ।

(3) माँग की आड़ी लोच अर्थात् सम्बन्धित प्रतिस्थापन वस्तु की कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में परिवर्तन|

 

यह पुनः ध्यान रखें कि उपर्युक्त तीनों अवधारणाओं में कीमत-लोच की धारणा ही सबसे महत्त्वपूर्ण है और माँग की लोच से आशय सदैव ‘माँग की कीमत-लोच’ से ही होता है, अतः नीचे हम माँग की कीमत लोच का ही विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे।

 

माँग की लोच की श्रेणियाँ या मात्राएँ

(Degrees of Price Elasticity of Demand)

 

माँग की लोच की मुख्यतः पाँच श्रेणियाँ हो सकती हैं

 

(1) पूर्णतया लोचदार माँग (Perfectly Elastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग उसके मूल्य में बिना किसी परिवर्तन के ही अथवा मूल्य में बहुत कम परिवर्तन होने पर

 

स्वयं ही घटती-बढ़ती रहती है तो इसे पर्णतया लोचदार माँग कहते हैं । व्यावहारिक जीवन में कोल्ड ड्रिंक्स तथा आइसक्रीम की माँग के सम्बन्ध में ऐसा देखने को मिलता है । गणितीय भाषा में इसे हम e = ∞ इकाई द्वारा व्यक्त करते हैं पूर्णतया लोचदार माँग की स्थिति को चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

 

चिंत्र को देखने से स्पष्ट होता है कि माँगी गई मात्रा ‘OP’ मूल्य पर ‘OQ’ मात्रा की माँग है, . परन्तु मूल्य में कोई परिवर्तन हुए बिना ही माँग ‘OQ1’ तथा ‘OQ2’ हो जाती है। ऐसी दशा में माँग रेखा ‘DD’ सदैव आधार रेखा ‘OX’ अक्ष के समानान्तर होती है।

image

 

(2) पूर्णतया बेलोचदार माँग (Perfectly Inelastic Demand) – जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने पर भी उसकी माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् सभी कीमतों पर वस्तु की एक ही मात्रा की माँग की जाती है तो वस्तु की माँग की लोच शून्य के बराबर होती है अर्थात् (e = 0) । यह भी एक काल्पनिक एवं सैद्धान्तिक स्थिति है जो वास्तविक जीवन में नहीं पायी जाती। नमक जैसी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुओं के सम्बन्ध में इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है।

 

Images

 

चित्र में ‘DD’ माँग वक्र है जो ‘OY’ अक्ष के समानान्तर है जिससे स्पष्ट होता है कि कीमत ‘OP’ पर भी माँग ‘OD’ के बराबर है तथा वस्तु की कीमत बढ़ाकर ‘OP1‘ तथा घटकर ‘OP2,’ हो जाने परभी वस्तु की माँग पूर्ववत् ‘OD’ ही रहती है।

 

(3) लोचदार माँग (Elastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग में परिवर्तन ठीक उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में उसकी कीमत में परिवर्तन हुआ है, तब ऐसी वस्तु की माँग को लोचदार माँग कहते हैं। उदाहरण के ? लिए,यदि किसी वस्तु की कीमत में 20% वृद्धि होती है और उसकी माँग भी 20% कम हो जाती है अथवा कीमत में 10% की कमी होने पर माँग भी 10% से बढ़ जाती है तो यह लोचदार माँग कहलायेगी।

 

image

 

दिये हुए चित्र में ‘DD’ माँग वक्र है । जब कीमत ‘OP’ है तब माँग ‘OQ’ के बराबर है, परन्तु कीमत ‘OP,’ हो जाने पर माँग घटकर (OQ,’ रह गई है। चित्र को देखने से स्पष्ट है कि ‘PP)’ = ‘QQ!’ है अर्थात् माँग में होने वाला परिवर्तन कीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन के ठीक बराबर है। इस प्रकार की माँग की लोच को ‘इकाई के बराबर लोच’ (e = 1) द्वारा व्यक्त किया जाता है। चित्र में लोचदार माँग को दर्शाया गया है।

(4) अत्यधिक लोचदार माँग (Highly Elastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग में आनुपातिक परिवर्तन, कीमत के आनुपातिक परिवर्तन से अधिक होता है तो ऐसी वस्तुओं की माँग को अत्यधिक लोचदार माँग कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी वस्तु की कीमत में 5% की कमी होने पर उसकी माँग 15% से बढ़ जाती है तो वस्तु की मांग अत्यधिक लोचदार मानी जायेगी। इस प्रकार की लोच प्राय: विलासिता की वस्तुओं की होती है । इस प्रकार की माँग को संलग्न चित्र के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

 

चित्र में ‘DD’ माँग वक्र है और ‘OP’ कीमत पर वस्तु की माँगी गई मात्रा ‘OQ’ के बराबर है । अब यदि कीमत घटकर ‘OP1‘ हो जाती है तो माँग ‘OQ’ से बढ़कर ‘OQ’ हो जाती है। चूंकि ‘Q1Q’ > ‘P1P’ है;अतःसम्बन्धित वस्तु माँग अत्यधिक लोचदार है।

 

(5) कम लोचदार माँग या बेलोचदार माँग (Less Elastic Demand or Inelastic Demand) – जब किसी वस्तु के मूल्य में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन की तुलना में,उस वस्तु की माँग में कम आनुपातिक परिवर्तन होता है तो ऐसी माँग को कम लोचदार माँग या बेलोचदार माँग कहते हैं। उदाहरण के लिए, किसी वस्तु के मूल्य में 25% की वृद्धि हो जाती है जबकि उस वस्तु की माँग में केवल 10% की ही कमी आती है तो ऐसी स्थिति को बेलोचदार माँग कहा जायेगा। ऐसी स्थिति में e< 1 होती है। सामान्यत: अनिवार्य आवश्यकताओं की माँग ‘कम लोचदार माँग’ होती है।

 

चित्र से स्पष्ट है कि ‘OP’ कीमत पर मांगी गई मात्रा ‘OO’ है। कीमत में 20% की वृद्धि हो जाने पर कीमत ‘OP’ हो जाती है तथा माँग 10% घटकर ‘O01‘ रह जाती है । स्पष्ट है कि माँग में होने वाला आनुपातिक परिवर्तन, कीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन से कम है, अत: वस्तु की मांग बेलोचदार हैं |

 

माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(Factors Effecting Elasticity of Demand)

 

विभिन्न वस्तुओं की माँग की लोच विभिन्न प्रकार की होती है । किसी वस्तु की माग ‘अधिक लोचदार होती है तो किसी वस्तु की कम । वस्तुतः किसी वस्तु की माँग की लोच अनेक घटकों से प्रभावित होती है, जिसमें से मुख्यतः निम्न प्रकार हैं—

(1) वस्तु की प्रकृतिकिसी वस्तु की माँग की लोच उस वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करती है । इस दृष्टि से वस्तुओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-अनिवार्य, आरामदायक या विलासिता सम्बन्धी वस्तुएँ । अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है,क्योंकि अनिवार्य वस्तुओं के उपयोग के बिना मानव जीवन दुष्कर हो जाता है; जैसे-नमक, अनाज आदि। ऐसी वस्तुओं की कीमत चाहे कुछ भी हो,खरीदना ही पड़ता है | आरामदायक वस्तुओं की माँग लोचदार होती है क्योंकि ऐसी वस्तुओं की माँग में लगभग उसी अनुपात में परिवर्तन होता है जिस अनुपात में कीमतों में परिवर्तन होता है। विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं की माँग अधिक लोचदार होती है क्योंकि ये ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिनके बिना भी मनुष्य अपना जीवन चला सकता है। ..

 

(2) वस्तु के प्रयोग यदि किसी वस्तु को विभिन्न कार्यों में प्रयोग किया जाता है तो ऐसी वस्तु की माँग लोचदार होगी, परन्तु जिस वस्तु का प्रयोग केवल एक कार्य में ही किया, जाता हो उसकी माँग कम लोचदार होती है। उदाहरण के लिए, बिजली का उपयोग अनेक कार्यों में होता है। यदि इसकी दर में वृद्धि हो जाये तो उपभोक्ता इसका प्रयोग कुछ सीमित कार्यों के लिए ही करेंगे और परिणामस्वरूप इसकी माँग कम हो जायेगी। इसके विपरीत यदि इसकी दर घट जाये तो इसका प्रयोग विभिन्न कार्यों में किया जाने लगेगा और परिणामस्वरूप इसकी माँग बढ़ जायेगी।

 

(3) संयुक्त माँग यदि किसी वस्तु का उपयोग अन्य किसी वस्तु के साथ किया जाता है तो ऐसी दोनों वस्तुओं की संयुक्त माँग होती है अर्थात कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनकी माँग साथ-साथ की जाती है। उदाहरण के लिए, पैन व स्याही, डबलरोटी व मक्खन, कार व पेट्रोल आदि । ऐसी वस्तुओं की माँग की लोच काफी सीमा तक साथ वाली वस्तुओं को माँग की लोच पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, कार की माँग बढ़ने पर पेट्रोल की माँग भी बढ़ेगी, चाहे पेट्रोल मूल्य में वृद्धि क्यों न हो जाये । इस प्रकार पेट्रोल की माँग बेलोचदार माँग होगी।

 

(4) स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता किसी वस्तु की माँग की लोच इस बात पर भी निर्भर होती है कि उसकी स्थानापन्न वस्तुयें हैं अथवा नहीं। जिस वस्तु के स्थानापन्न उपलब्ध होते हैं उसकी माँग लोचदार होती है; जैसे-चाय और कॉफी। ऐसी वस्तु की कीमत में थोड़ी-सी भी वृद्धि होने पर लोग उसकी स्थानापन्न वस्तु का प्रयोग आरम्भ कर देते हैं। उदाहरण के लिए, कॉफी के स्थान पर चाय द्वारा भी काम चलाया जा सकता है, अत: कॉफी के मल्य में वृद्धि होने पर कॉफी की माँग कम हो जायेगी तथा चाय की माँग बढ़ जायेगी। दसरी ओर जिन वस्तुओं के स्थानापन्न नहीं होते, प्रायः उन वस्तुओं की माँग कम लोचदार या बेलोचदार होती है।

 

(5) वस्तु का उपभोग स्थगित होने की सम्भावना जिन वस्तुओं के प्रयोग को स्थगित किया जा सकता है,उन वस्तुओं की मांग लोचदार होती है। जिन वस्तुओं के प्रयोग को स्थगित किया जाना सम्भव नहीं होता; जैसे- दवाइयों का प्रयोग, ऐसी स्थिति में माँग बेलोचदार होती  हैं |

 

(6) उपभोक्ता की आदत यदि किसी व्यक्ति को किसी वस्तु के उपभोग करने की आदत पड़ गई है तो उस व्यक्ति के लिए उस वस्तु की माँग बेलोचदार होगी। उदाहरण के लिए शराब पीने वाले व्यक्ति के लिए शराब के मूल्य में वृद्धि का उसकी माँग पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा क्योंकि शराब के बिना वह अपना जीवन नीरस समझता है।

 

(7) उपभोक्ता की आर्थिक स्थिति ऐसी वस्तुओं की माँग जिनका उपयोग केवल धनी वर्ग द्वारा किया जाता है, बेलोचदार होती है। इसके विपरीत ऐसी वस्तुओं की माँग जिनका उपयोग केवल निर्धन वर्ग द्वारा किया जाता है, लोचदार होती है क्योंकि वस्तु के मल्य में थोड़ा-सा परिवर्तन भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण होता है। .

 

(8) वस्तु पर व्यय की मात्रा एक उपभोक्ता अपनी आय का कुल कितना भाग किसी वस्तु के उपभोग पर व्यय करता है, इस बात का भी माँग की लोच पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। जिन वस्तुओं पर आय का बहुत थोड़ा भाग व्ययं किया जाता है, उन वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है; जैसे नमक व माचिस आदि। इसके विपरीत जिन वस्तुओं पर उपभोक्ता अपनी आय का एक बड़ा भाग व्यय करता है, उनकी मांग की लोच अधिक लोचदार होती है।

 

(9) समाज में धन का वितरण प्रो० टॉजिंग के अनुसार, समाज में धन का वितरण भी माँग की लोच को प्रभावित करता है। यदि समाज में धन का असमान वितरण है तो वस्तुओं की माँग कम लोचदार होगी क्योंकि ऐसी दशा में समाज में दो वर्ग होंगे-धनी एवं निर्धन। मूल्य में थोड़ी वृद्धि अथवा कमी न तो धनी वर्ग की माँग को प्रभावित कर पाती है और न ही निर्धन व्यक्तियों की माँग को। इसके विपरीत यदि समाज में धन का वितरण समान है तो वस्तुओं की माँग लोचदार होगी क्योंकि ऐसी दशा में मूल्य में होने वाला परिवर्तन समाज के सभी व्यक्तियों को प्रभावित करता है।

 

(10) समय प्रभाव प्रो० मार्शल के अनुसार, वस्तु की कीमतों में कमी या वृद्धि के तत्काल पश्चात् ही माँग में परिवर्तन नहीं होते बल्कि उसमें कुछ समय लगता है । डॉ० मार्शल का कहना है कि वस्तुओं की माँग अल्पकाल में बेलोचदार होती है जबकि दीर्घकाल में लोचदार। इसका कारण यह है कि अल्पकाल में किसी भी वस्तु का निकट स्थानापन्न विकसित होने की सम्भावना बहुत कम होती है जबकि दीर्घकाल में वस्तु के स्थानापन्न विकसित हो जाते हैं। –

 

माँग की लोच का महत्त्व/उपयोगिता

(Importance or Utility of Elasticity of Demand)

माँग की लोच का विचार अर्थशास्त्र में सैद्धान्तिक व व्यावहारिक दोनों ही दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है। संक्षेप में, माँग की लोच के महत्त्व को निम्न दो भागों में बाँटा जा सकता है

 

() सैद्धान्तिक महत्त्व माँग की लोच का सैद्धान्तिक महत्त्व भी अत्यधिक है। इसे अर्थशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों तथा समस्याओं की व्याख्या करने के लिए विश्लेषण के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।

 

() व्यावहारिक महत्त्व व्यावहारिक दृष्टि से माँग की लोच का विचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका केवल सैद्धान्तिक महत्त्व ही नहीं है वरन् प्रबन्धकीय निर्णयों में भी इसका उपयोग किया जाता है। संक्षेप में,इसके व्यावहारिक महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

 

(1) मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त में महत्त्वमूल्य निर्धारण में माँग की लोच महत्त्वपूर्ण अमिका का निर्वाह करती है। मूल्य निर्धारण की विभिन्न स्थितियों में इसके महत्त्व को अग्रलिखित प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

 

(i) साम्य की दशा में मूल्य निर्धारण कोई फर्म साम्य की स्थिति में उस समय कहा जाती है जब उस फर्म की सीमान्त लागत (MC) एवं सीमान्त आगम (MR) बराबर हा आर सीमान्त आगम (MR) माँग की लोच पर निर्भर करता है। यदि वस्तु की माँग अधिक लोचदार है तो वस्तु का मूल्य नीचा रखना पड़ेगा और यदि माँग कम लोचदार या बेलोचदार ह ता मूल्य अधिक रखा जा सकता है।

(ii) एकाधिकार की दशा में मूल्य निर्धारण – एक एकाधिकारी उत्पादक भी अपनी वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग की लोच की सहायता लेता है। यदि उसकी वस्तु की माँग लोचदार है तो वह वस्तु की कीमत तुलनात्मक रप में कम रखता है ताकि उस वस्तु की अधिकतम मात्रा में बिक्री हो सके और उसका एकाधिकारी लाभ अधिकतम हो सके। इसके विपरीत यदि उस वस्तु की माँग बेलोचदार है तो वह वस्तु की ऊँची कीमत रखता है क्योंकि ऊँची कीमत होने पर भी उस वस्तु की माँग कम नहीं होगी और वह अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकेगा।

(iii) मूल्य विभेद की दशा में मूल्य निर्धारण-मूल्य विभेद से आशय एक ही वस्तु को विभिन्न बाजारों में अथवा विभिन्न ग्राहकों को अलग-अलग मूल्यों पर बेचने से है। मूल्य-विभेद की सफलता हेतु भी माँग की लोच को ध्यान में रखना पड़ता है। जिस बाजार में वस्तु की माँग कम लोचदार या बेलोचदार है वहाँ ऊँचे मूल्य रखकर तथा लोचदार माँग वाले बाजार में कम मूल्य रखकर लाभ को अधिकतम किया जा सकता है।

 

(iv) संयुक्त पूर्ति वाली वस्तुओं के मल्य निर्धारण में – संयुक्त पर्ति वाली वस्तुएँ उन्हें माना जाता है जो एक-साथ उत्पन्न की जाती है; जैसे-गेहूँ व भूसा,कपास एवं बिनौले आदि । इन वस्तुओं की अलग-अलग उत्पादन लागत निकालना सम्भव नहीं होता, अतः इनका मूल्य इन वस्तुओं की माँग की लोच के आधार पर निर्धारित किया जाता है । संयुक्त पूर्ति की वस्तुओं में जिस वस्तु की माँग कम लोचदार या बेलोचदार होती है उसका मूल्य अधिक रखा जाता है तथा लोचदार माँग वाली वस्तु की कम कीमत रखी जाती है।

 

(2) वितरण सिद्धान्त में महत्त्व माँग की लोच के द्वारा उत्पत्ति के साधनों को उनका पुरस्कार निर्धारित करने में सहायता मिलती है। उत्पादक, उत्पत्ति के उन साधनों को अधिक पुरस्कार देता है जिनकी माँग की लोच उसके लिए बेलोचदार है तथा उन साधनों को कम पुरस्कार देता है जिनकी लोच उसके लिए लोचदार होती है।

 

(3) सरकार के लिए महत्त्व सरकार के दृष्टिकोण से भी माँग की लोच की अवधारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सरकार के लिए इसके महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है |

(i) कर नीति के निर्धारण में सहायक सरकार को कर लगाते समय यह देखना होता है कि उस वस्तु की मांग की लोच कैसी है? लोचदार माँग वाली वस्तुओं पर कम कर लगाया जाता है अन्यथा वस्तु के मूल्य में वृद्धि हो जाने के कारण माँग कम हो जायेगी तथा सरकार को कम आय प्राप्त होगी। इसके विपरीत बेलोचादार माँग वाली वस्तुओं पर अधिक कर लगाकर आय में वृद्धि की जा सकती है।

(ii) आर्थिक नीति के निर्माण में सहायक मॉग की लोच का विचार सरकार को आर्थिक व वित्तीय नीतियाँ निर्धारित करने में भी सहायता पहँचाता है। व्यापार चक्रों का नियन्त्रण. मद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन के दुष्प्रभावों को नियन्त्रित करने के लिए तथा आर्थिक गतिविधियों में वांछित परिवर्तन लाने के लिए आर्थिक नीतियों का निर्माण माँग की लोच के समुचित अध्ययन पर ही आधारित है।

(iii) सार्वजनिक सेवाओं के निर्धारण में सहायक माँग की लोच की अवधारणा सरकार को यह निर्णय लेने में भी सहायता करती है कि वह कौन-कौन से उद्योगों को सार्वजनिक सेवा घाषित करके उनका स्वामित्व एवं प्रबन्ध अपने हाथ में ले ले । सामान्यतः सरकार ऐसे उद्योगों को अपने हाथ में लेती है जिन उद्योगों से सम्बन्धित वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है अथवा जिन उद्योगों में आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन किया जाता है ताकि निजी उद्योगपति वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि करके समाज का शोषण न कर सकें । इसके विपरीत लोचदार माँग वाली वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए छोड़ देना चाहिए।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्त्व किन्हीं दो देशों के बीच व्यापार की शर्ते’ माँग की लोच पर निर्भर करती हैं । यदि हमारे निर्यातों की माँग बेलोच है तो वे वस्तुयें विदेशों में ऊँची कीमतों पर बिक सकेंगी। इसके विपरीत यदि हमारे आयातों की माँग हमारे लिये बेलोच है, तो हमें उन वस्तुओं को ऊँची कीमत पर भी खरीदना पड़ेगा।

(5) परिवहन की. भाड़े की दर निश्चित करने में प्रयोग यदि कोई वस्तु ऐसी है जिसके परिवहन की माँग लोचदार है तो परिवहन भाड़े की दर कम रखी जायेगी और यदि बेलोचदार है तो ऊँची दर निश्चित की जायेगी। उदाहरण के लिए, जिन वस्तुओं को रेल के अतिरिक्त अन्य किसी यातायात के साधन द्वारा नहीं भेजा जा सकता तो रेल यातायात की माँग बेलोचदार होगी, अतः अन्य यातायात साधनों से रेलभाड़ा अधिक रखा जा सकता है । इसके विपरीत यदि माल को रेल के साथ-साथ ट्रकों आदि से भी भेजा जा सकता है तो रेल यातायात की माँग, लोचदार होगी और रेलभाड़ा कम रखा जायेगा।

(6) विनिमय दर के निर्धारण में सहायक माँग की लोच का विचार सरकार को विनिमय दर के निर्धारण में भी सहायता पहुँचाता है। जिन देशों के लिए हमारे देश की मुद्रा की माँग बेलोचदार होती है, उन देशों की मुद्रा के साथ अपने देश की मुद्रा की विनिमय दर ऊँची रखी जाती है। इसके विपरीत जिन देशों के लिए हमारे देश की मुद्रा की माँग अधिक लोचदार होती है, उन देशों की मुद्रा के साथ अपने देश की मुद्रा की विनिमय दर नीची रखी जाती है।

 

प्रश्न 4-माँग की कीमत लोच किसे कहते हैं? माँग की लोच मापने की विधियों को समझाइये। 

अथवा

 माँग की लोच क्या है? यह कैसे मापी जाती है ? इसका व्यावहारिक महत्त्व क्या है?

(1997 Back)

 

माँग की लोच को मापने की विधियाँ

(Methods for Measurement of Elasticity of Demand)

 

अर्थशास्त्रियों ने माँग की लोच को मापने की विभिन्न पद्धतियों का उल्लेख किया है । प्रो० मार्शल ने माँग की लौच को कुल व्यय विधि से मापा है। प्रो० फ्लक्स ने प्रतिशत रीति का प्रयोग किया है तो श्रीपती जॉन रॉबिन्सन ने आनुपातिक पद्धति का प्रयोग किया है । इसके साथ-साथ मांग की लोच को मापने हेतु रेखा-गणितीय पद्धतियों का भी प्रयोग किया गया है ।

 

संक्षेप में,मॉग की लोच को मापने हेतु मुख्यतः निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है

 

(1) कुल व्यय रीति,

(2) आनुपातिक या प्रतिशत या चाप रीति;

(3) बिन्दु विधि।

 

(1) कुल व्यय रीति (Total Outlay Method) प्रो० मार्शल द्वारा प्रतिपादित इस विधि के अन्तर्गत मल्य परिवर्तन से पहले और मल्य परिवर्तन के बाद में कुल व्यय के पारवतना, की तुलना करके सम्बन्धित वस्तु की माँग की लोच का अनुमान लगाया जाता है।

 

सूत्रानुसार- कुल व्यय = कीमत x माँग की मात्रा 

(Total Outlay = Price x Quantity Demanded)

 

इस विधि के अन्तर्गत वस्तु की माँग की लोच को निम्नांकित तीन प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

 

() माँग की लोच इकाई से अधिक (More than Unity i.e., e > 1) जब  मूल्य में कमी होने पर वस्तु की माँग में इतनी अधिक वृद्धि हो जाये कि उस पर होने वाले – कुल व्यय की राशि बढ़ जाये और मूल्य में वृद्धि होने पर वस्तु की माँग इतनी कम हो जाये कि उस पर होने वाले कुल व्यय की राशि घट जाये, तब माँग की लोच इकाई से अधिक होती है । इस दशा में मूल्य परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में परिवर्तन विपरीत दिशा में और अधिक अनुपात में होता है।

 

उदाहरण –

 

केलों की कीमत (रु० में) केलों की मांगी गयी मात्रा (दर्जनों में कुल व्यय (रु० में)
8.00 प्रति दर्जन 10 80.00
4.00 प्रति दर्जन 25 100.00
16.00 प्रति दर्जन 4 64.00

 

() माँग की लोच इकाई के बराबर (Equal to Unity i.e., e = 1) जब किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन (कमी या वृद्धि) होने पर भी कुल व्यय की रकम यथास्थिर रहती है अर्थात् वस्तु के मूल्य में परिवर्तन होने से माँग में इस प्रकार परिवर्तन होता है कि कुल व्यय समान रहे तो माँग की लोच इकाई के बराबर होती है।

 

उदाहरण –

 

केलों की कीमत (रु० में) केलों की मांगी गयी मात्रा (दर्जनों में कुल व्यय (रु० में)
8.00 प्रति दर्जन 10 80.00
4.00 प्रति दर्जन 20 80.00
16.00 प्रति दर्जन 5 80.00

 

 

 

() माँग की लोच इकाई से कम (Less than Unity i.e., e < 1) जब किसी वस्तु के मूल्य में कमी होने पर कुल व्यय की मात्रा में कमी होती है या मूल्य में वद्धि होने पर कुल व्यय में भी वृद्धि हो जाती है तो माँग की लोच इकाई से कम होती है। इस दशा में प्रति इकाई मूल्य में कमी होने पर कुल व्यय कम तथा प्रति इकाई मूल्य में वृद्धि होने पर कल व्यय अधिक होता है । प्रायः अनिवार्य आवश्यकताओं की मॉग बेलोच होती है।

 

केलों की कीमत (रु० में) केलों की मांगी गयी मात्रा (दर्जनों में कुल व्यय (रु० में)
8.00 प्रति दर्जन 10 80.00
4.00 प्रति दर्जन 15 60.00
16.00 प्रति दर्जन 5 112.00

 

 

(2) आनपातिक या प्रतिशत या चाप रीति (Proportionate or Percentage or Arc Method) इस रीति का प्रतिपादन डॉ० फ्लक्स ने किया है । इस विधि के अनसार माँग में आनुपातिक परिवर्तन को कीमत में आनुपातिक परिवर्तन से भाग देते हैं। यदि भजनपल एक होता है तो माँग की लोच इकाई के बराबर, एक से कम होने पर माँग की लोच इकाई में . कम तथा एक से अधिक होने पर माँग की लोच इकाई से अधिक होती है ।

माँग की लोच का सूत्र—

 

 

माँग की लोच (e) = माँग की मात्रा में आनुपातिक परिवर्तन /कीमत में आनुपातिक परिवर्तन

 

 

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण माना सेब की कीमत 10 रु. किलो है। इस कीमत पर 50 किलो सेब की माँग की जाती है। सेब की कीमत 8 रु. प्रति किलो हो जाने पर माँग बढ़कर 70 किलो हो जाती है तो माँग की कीमत लोच इस प्रकार प्राप्त की जायेगी –

 

मांग में प्रतिशत परिवर्तन = 70-50/50 = 20/50*100 = 40%

कीमत में प्रतिशत परिवर्तन = 10-8/10 = 2/10*100 = 20%

मांग की लोच (e) = माँग में प्रतिशत परिवर्तन/कीमत में प्रतिशत परिवर्तन = 40%/20% = 2

 

स्पष्ट है कि माँग की लोच इकाई से अधिक (e > 1) है।

 

(3) बिन्दु विधि (Point Method) – इस विधि का प्रयोग माँग वक्र के किसी बिन्दु विशेष पर माँग की कीमत लोच का पता लगाने के लिए किया जाता है। जिस बिन्दु पर माँग की लोच की गणना करनी हो, उस बिन्दु से नीचे वाले भाग को ऊपर वाले भाग से भाग देने पर माँग की लोच ज्ञात हो जाती है। सत्र इस प्रकार है –

 

माँग की लोच = स्पर्श रेखा से नीचे का भाग (Lower Sector) / स्पर्श रेखा से ऊपर का भाग (Upper Sector)

 

 

यदि माँग वक्र एक सरल रेखा न है कर वक्र की आकृति में होता है तो माँग की लोच ज्ञात करने के लिए हमें माँग वक्र पर अलग से एक स्पर्श रेखा (Tengent Line) खींचनी पड़ेगी।

 

यदि नीचे का भाग ऊपर के भाग से बड़ा होता है तो माँग की लोच इकाई से अधिक होती है। यदि नीचे का भाग ऊपर के भाग से छोटा होता है तो मांग की लोच इकाई से कम होती है। यदि नीचे का भाग और ऊपर का भाग बराबर होता है तो मांग की लोच इकाई के बराबर होगी।

 

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण () जब माँग वक्र एक सरल रेखा हो 

 

चित्र से स्पष्ट है कि मांग वक्र एक सरल रेखा के रूप में है और इस मांग वक्र पर M, S, R, T एवं N बिन्दु लिये गये हैं।

इन विभिन्न बिन्दुओं पर माँग की लोच इस प्रकार होगी –

 

M बिन्दु पर माँग की लोच =MN/O = ∞

S बिन्दु पर माँग की लोच = SN/SM (e > 1, चूँकि SN का भाग SM के भाग से अधिक है।)

R बिन्दु पर माँग की लोच = RN/RM (e = 1, चूँकि RN = RM) T बिन्दु पर माँग की लोच = TN/TM (e < 1, चूँकि TN का भाग TM के भाग से कम है।)

N बिन्दु पर माँग की लोच = O/NM = 0

 

 

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() जब माँग वक्र एक सरल रेखा हो – संलग्न रेखाचित्र में ‘DD’ माँग वक्र – Y है जिसके M बिन्दु पर माँग की लोच की माप करनी है; अत: M बिन्दु से DD माँग वक्र पर एक स्पर्श रेखा खींची जो Y अक्ष को A बिन्दु परं और X अक्ष को A’ बिदु. पर काटती है।

 

सूत्रानुसार, e = MA/MA > 1

 

अत: माँग की लोच इकाई से अधिक है |

दुसरे, माँग वक्र के N बिन्दु से DD माँग वक्र पर एक स्पर्श रेखा खिचीं | स्पष्ट है की N बिन्दुंपर माँग की लोच NB’/NB के बराबर है जो की इकाई से कम है

 

अर्थात्  E =NB’/NB < 1

 

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

 

प्रश्न 1-माँग की आय लोच की विचारधारा को समझाइये।

 

उत्तर उपभोक्ताओं की आय, मांग को प्रभावित करने वाला एक महत्त्वपर्ण तत्त्व है। यदि कीमत तथा अन्य कारक तत्त्व  समान रहें तो उपभोक्ता की आय में परिवर्तन के परिणामस्वरूप. वस्तु की माँग में जो परिवर्तन होते हैं, उन परिवर्तनों की माप ही माँग की आय लोच कहलाती है। दसरे शब्दों में, मौद्रिक आय में आनुपातिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग में जो आनुपातिक परिवर्तन आता है, उसे ही माँग की आय लोच कहते हैं।

 

वाटसन के अनुसार, “माँग की आय लोच से अभिप्राय आय में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँगी गई मात्रा में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन के अनुपात से है।”

 

निष्कर्ष किसी उपभोक्ता की आय में परिवर्तन के परिणामस्वरूप किसी वस्तु की माँग पर जो परिवर्तनात्मक प्रतिक्रिया होती है वही माँग की आय लोच है।

 

माँग की आय लोच ज्ञात करने का सूत्र– . 

 

 

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माँग की आय लोच के प्रकार

(Kinds of Income Elasticity of Demand) 

 

– माँग की आय लोच को निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जा सकता है .

(1) धनात्मक आय लोच या सामान्य वसतुओं की लोच (Positive income elasticity or Income elasticity for normal goods) – धनात्मक आय लोच उस समय होती है, जबकि आय व वस्तु की माँग में होने वाला परिवर्तन एक ही दिशा में हो अर्थात् आयं के बढ़ जाने पर माँग बढ़े तथा आय के घट जाने पर यह घट जाये । धनात्मक आय लोच सामान्य – वस्तुओं (normal goods) में पाई जाती है।

 

(2) ऋणात्मक आय लोच या घटिया वस्तुओं की आय लोच (Negative income elasticity or income elasticity for inferior goods) – जब किसी वस्तु की माँग में होने वाला परिवर्तन उपभोक्ता की आय के परिवर्तन की विरोधी दिशा में हो तो ऋणात्मक आय लोच कहलाती है। दूसरे शब्दों में, जब उपभोक्ता की आय के बढ़ने से किसी वस्तु की माँग कम तथा आय के घटने से माँग अधिक हो जाय तो ऋणात्मक आय लोच होती है । ऋणात्मक आय लोच घटिया (inferior) किस्म की वस्तुओं में पायी जाती है।

 

(3) माँग की शून्य आय लोच (Zero income elasticity of demand) – अनिवार्य वस्तुओं जैसे माचिस, नमक, मिट्टी के तेल, आदि के सन्दर्भ में यह देखा गया है कि उपभोक्ता की आय के परिवर्तन का इन वस्तुओं की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । अनिवार्य वस्तुओं की आय लोच शून्य होती है।

 

प्रश्न 2 – माँग की आड़ी (तिर्यक अथवा तिरछी) लोच की विचारधारा को समझाइये। उत्तर-किन्हीं भी दो वस्तुओं की माँग परस्पर इस प्रकार सम्बन्धित हो सकती है कि एक वस्तु की कीमत में परिवर्तन दूसरी वस्तु की माँग में परिवर्तन कर दे । सम्बन्धित वस्तुएँ दो प्रकार की हो सकती हैं

 

() स्थानापन्न वस्तुएँ (Substitutes Goods) – इसमें दोनों वस्तुएँ एक-दूसरे की स्थानापन्न होती है अर्थात् दोनों वस्तुओं को एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता है। जैसे चाय व कॉफी, कोका-कोला व थम्सअप ।

() पूरक वस्तुएँ (Complementary Goods) – ऐसी दशा में दो वस्तुएँ एक दूसरे की पूरक होती हैं जैसे कार व पेट्रोल. डबल रोटी व मक्खन ।

प्रायः चाय की कीमत में परिवर्तन होने पर कॉफी की माँग में परिवर्तन आ जाता है तथा । पेट्रोल की कीमत में परिवर्तन होने पर कार की माँग में परिवर्तन आ जाता है । इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के मूल्य में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप दूसरी वस्तु की माँग में जो सापेक्षिक परिवर्तन होता है, उसकी माप ही माँग की आड़ी लोच कहलाती है।

फर्गुसन के अनुसार, “माँग की आड़ी लोच सम्बन्धित वस्तु की कीमत में होने वाले सापेक्ष परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक्स वस्तु की माँगी गई, मात्रा में होने वाला आनुपातिक परिवर्तन है।”

निष्कर्ष माँग की आडी लोच एक ऐसी माप है जो दो परस्पर सम्बन्धित स्थानापन्न अथवा पूरक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप – दूसरी वस्तु की माँग में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन को स्पष्ट करती है।

 

माँग की आड़ी लोच ज्ञात करने का सूत्र –

 

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माँग की आड़ी लोच के प्रकार

(Kinds of Cross Elasticity of Demand)

 

(1) पूरक वस्तुओं की माँग की आड़ी लोच (Cross Elasticity of Demand for Complimentary Goods)- पूरक वस्तुओं की माँग की आड़ी लोच सदैव ऋणात्मक होती – है क्योंकि इनकी माँग संयुक्त रूप से की जाती है, जैसे-कार तथा पेट्रोल । अत: पेट्रोल की कीमत में वृद्धि के परिणामस्वरूप न केवल पेट्रोल की माँग कम होगी बल्कि कार की कार की – माँग में भी कमी आयेगी।

(2) स्थानापन्न वस्तुओं की माँग की आड़ी लोच (Cross Elasticity of Demand for Substitution)- स्थानापन्न वस्तुओं की माँग की आड़ी लोच सदैव धनात्मक होती है। उदाहरण के लिये जब चाय (Y-वस्तु) की कीमत बढ़ जाये परन्तु कॉफी (-वस्त) की कीमत पूर्ववत् ही रहती है तो उपभोक्ता चाय के स्थान पर कॉफी की माँग अधिक करेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि स्थानापन्न वस्तुओं की स्थिति में एक वस्तु की कीमत में जिस दिशा में परिवर्तन होगा दूसरी वस्तु की माँग में भी उसी दिशा में परिवर्तन होगा।

(3) असम्बन्धित वस्तुओं की माँग की आड़ी लोच (Cross Elasticity of Demand for Unrelated Goods)- परस्पर असम्बन्धित वस्तुओं की दशा में माँग की आड़ी लोच शून्य होती है।

निष्कर्षयदि माँग की आड़ी लोच धनात्मक है तो यह मानेंगे कि दोनों वस्तुएँ एक दूसरे की स्थानापन्न हैं । इसके विपरीत ऋणात्मक होने पर दोनों वस्तुओं को पूरक माना जाता है । यदि माँग की आड़ी लोच शून्य हो तो इसका अर्थ है कि दोनों वस्तुयें आपस में सम्बन्धित नहीं हैं।

प्रश्न 3-सीमान्त आगम, औसत आगम तथा माँग की लोच में सम्बन्ध बताइये।

 

उत्तर सीमान्त आगम, औसत आगम तथा माँग की लोच के सम्बन्ध को स्पष्ट करने से पूर्व उपयुक्त होगा कि आगम’ (Revenue) शब्द को भली प्रकार समझ लिया जाये । वस्तुओं के विक्रय से किसी विक्रेता को जो मौद्रिक प्राप्ति होती है उसे हम आगम कहते हैं । अर्थशास्त्री ‘आगप’ शब्द का प्रयोग प्रायः तीन अर्थों में करते हैं—कुल आगम, औसत आगम एवं सीमान्त आगम। अब हम इन तीनों धारणाओं की अलग-अलग व्याख्या करेंगे।

 

(1) कुल आगम (Total Revenue or TR) – किसी विक्रेता को वस्तुओं की बेची गई कुल मात्रा से जो मुद्रा प्राप्त होती है, उसी ही कुल आगम कहते हैं। सूत्रानुसार कुल आगम = वस्तु की बेची गई इकाईयाँ x प्रति इकाई कीमत उदाहरण के लिए, कोई विक्रेता किसी वस्तु की 50 इकाइयाँ, 10 रुपये प्रति इकाई की दर से बेचता है तो कुल आगम 50 x 10 = 500 रुपये होगी।

 

(2) औसत आगम (Average Revenue or AR) – कुल आगम में बिक्री की गई इकाइयों की संख्या से भाग देने पर जो भागफल आता है, उसे औसत आगम कहते हैं।

 

कुल आगम सूत्रानुसार

 

औसत आगम (AR) = कुल आगम / वस्तु की बेचीं गई इकाइयाँ

 

स्पष्ट है की औसत अगम सदैव वस्तु की प्रति इकाई कीमत को प्रदर्शित करता है |

 

(3) सीमान्त आगम (Marginal Revenue or MR) – उत्पादन की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आगम (TR) में जो वृद्धि होती है, उसे ‘सीमान्त आगम’ कहते हैं | उदाहरण के लिए, यदि एक फर्म किसी वस्तु की 10 इकाइयाँ बेचने से 100 रुपये प्राप्त करती है परन्तु 11 इकाइयाँ बेचने से 109 रुपये प्राप्त करती है तो उसकी सीमान्त आगम 9 रुपये होगी।

 

औसत आगम, सीमान्त आगम एवं माँग की लोच में सम्बन्ध

(Relation Between AR, MR and Elasticity of Demand)

 

औसत आगम, सीमान्त आगम एवं माँग की लोच में धनिष्ठ सम्बन्ध है।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन ने सीमान्त आगम, औसत आगम तथा माँग की लोच के सम्बन्ध को निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त किया है

 

माँग की लोच (e) = औसत अगम (AR)/औसत अगम (AR) – सीमान्त आगम (MR)

 

उपर्युक्त सूत्र के आधार पर औसत अगम एवं सीमान्त आगम को निम्नलिखित सूत्र की सहायता से ज्ञात क्र सकते है –

(i) औसत आगम (AR) = MR e/e – 1

(ii) सीमान्त आगम (MR) = AR e- – 1/e

 

स्पष्ट है कि औसत आगम, सीमान्त आगम एवं माँग की लोच इन तीनों में किहीं दो का जान हो तो तीसरे अज्ञात को ज्ञात किया जा सकता है । श्रीमती जॉन रॉबिन्सन द्वारा औसत आगम,सीमान्त आगम एवं माँग की लोच के उपर्युक्त वर्णित सम्बन्ध के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

 

(i) जब माँग की लोच एक से अधिक हो तो सीमान्त आगम धनात्मक होता है।

(ii) जब माँग की लोच एक से कम होती है तो सीमान्त आगम ऋणात्मक होती है।

(iii) जब माँग की लोच इकाई के बराबर होती है तो सीमान्त आगम शून्य होती है।

(iv) जब माँग की लोच अनन्त होती है तो सीमान्त आगम, औसत आगम के बराबर होती है।

(v) जब माँग की लोच शून्य होती है तो सीमान्त आगम एवं औसत आगम का अन्तर सबसे अधिक होता है।

 

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