BCom 1st Year Business Economics Iso Quants in Hindi
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समोत्पाद वक्र (Iso-quants)
प्रश्न 7 – समोत्पाद वक्र की परिभाषा और व्याख्या कीजिए |
अथवा
(2004 Back)
समोत्पाद वक्रों की व्याख्या दीजिए तथा बताइये कि ये उदासीनता वक्रों से किस प्रकार भिन्न हैं?
(2004, 2005)
उत्तर– प्रत्येक उत्पादक अथवा फर्म न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना , चाहते हैं, अत: उनके सामने प्रमुख समस्या यह होती है कि उत्पादन के विभिन्न साधनों को किस अनुपात में मिलाया जाए जिससे न्यूनतम लागत पर उत्पादन की अधिकतम मात्रा प्राप्त की जा सके। समोत्याद वक्र विश्लेषण एक उत्पादक को दो साधनों के एक ऐसे संयोग को प्राप्त करने में सहायक होता है जिससे वह न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त कर सकता है । समोत्पाद वक्र विश्लेषण को विकसित करके उत्पादन में उसका प्रयोग करने का श्रेय प्रो० हिक्स, बोल्डिंग, कार्लसन तथा स्नीडर जैसे अर्थशास्त्रियों को जाता है।
समोत्पाद वक्र का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Iso-quants)
समोत्पाद वक्र दो साधनों (श्रम एवं पूँजी) के उन विभिन्न संयोगों को प्रदर्शित करता है जिनसे समान मात्रा में उत्पादन प्राप्त होता है। इस वक्र के सभी संयोगों से समान उत्पादन प्राप्त होता है, इसीलिए एक उत्पादक इन संयोगों में चुनाव के प्रति तटस्थ हो जाता है, इसीलिए इसे उत्पादन तटस्थता वक्र भी कहा जाता है। समोरपाद वक्र की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
कीरस्टीड के अनुसार, “समोत्पाद वक्र दो साधनों के उन सभी सम्भावित संयोगों को बताता है जो समान कुल उत्पादन प्रदान करते हैं।”
प्रो० बिलास के अनुसार, “समोत्पाद रेखाएँ दो साधनों के उन विभिन्न संयोगों को प्रकट करती हैं जिनकी सहायता से एक फर्म वस्तु की एक समान मात्रा का उत्पादन कर सकती है।”
कोहन के शब्दों में, “एक समोत्पाद वक्र वह वक्र होता है जिस पर उत्पादन की अधिकतम प्राप्ति दर स्थिर होती है।”
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण– समोत्पाद वक्र की विचारधारा को एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। किसी वस्तु की 50 इकाइयों का उत्पादन करने के लिये श्रम तथा पूँजी के विभिन्न वैकल्पिक संयोगों को निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है –
संयोग | साधन X(श्रम) | साधन Y(पूँजी) | उत्पादनइकाइयाँ | पूँजी के लिए प्रतिस्थापन दर | |
A | 1 | + | 12 | 50 | _ |
B | 2 | + | 8 | 50 | 4:1 |
C | 3 | + | 5 | 50 | 3:1 |
D | 4 | + | 3 | 50 | 2:1 |
E | 5 | + | 2 | 50 | 1:1 |
तालिका को देखने से ज्ञात होता है कि एक इकाई श्रम व 2 इकाई पूँजी के लगाने से 50 इकाइयों का उत्पादन होता है। इतने ही उत्पादन के लिए दो इकाई श्रम व 8 इकाई पूंजी , लगाने की आवश्यकता होगी। 5 इकाई श्रम व 2 इकाई पूँजी लगाने पर भी 50 इकाइयों का . 121 उत्पादन होता है । तालिका के अनुसार प्रतिस्थापन 10 की सीमान्त दर घटते हुए क्रम में है । उत्पादक के द्वारा ज्यों-ज्यों X-श्रम की इकाइयों को बढ़ाया जा रहा है त्यों-त्यों Y-पूँजी की इकाइयों में कमी की जा रही है अर्थात् उत्पादन के स्तर को यथावत् बनाये रखने के लिए जहाँ श्रम (X) की मात्रा में वृद्धि की जाती है वहीं पूँजी (Y) की मात्रा में कमी करनी होती है।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण-उपर्युक्त तालिका के आधार पर श्रम तथा पूँजी के विभिन्न संयोगों से समोत्पाद वक्र की रचना की जा सकती है। तालिका में दिये गए विभिन्न संयोगों A, B, C, D तथा E को रेखांकित करने पर हमें समोत्पाद वक्र प्राप्त होता है। चित्र में X-axis पर श्रम तथा Y-axis पर पूँजी की मात्रा को व्यक्त किया गया है । इस वक्र के प्रत्येक बिन्दु से उत्पादक को समान उत्पादन प्राप्त होगा।
समोत्पाद वक्र की मान्यताएँ
(Assumptions of Iso-quants)
(1) समोत्पाद वक्र के अन्तर्गत यह मान लिया जाता है कि उत्पत्ति के केवल दो साधनों का प्रयोग ही उस वस्तु विशेष के उत्पादन में किया जाता है। यदि वस्तु के उत्पादन में दो से अधिक साधनों का प्रयोग किया जाता हो तो उस समय रेखाचित्र – के माध्यम से सम-उत्पाद वन की व्याख्या नहीं की जा सकती।
(2) उत्पादन की तकनीक स्थिर रहती है, अर्थात् उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
(3) उत्पादन के साधनों को छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है।
(4) उत्पादन के एक साधन को अन्य साधनों के साथ उनकी पूर्ण कुशलता के साथ प्रयोग में लाया जा सकता है।
(5) उत्पादन के साधनों का एक दूसरे से प्रतिस्थापन किया जा सकता है।
तटस्थता वक्र एवं सम उत्पाद वक्र में अन्तर
समोत्पाद वक्र एवं तटस्थता वक्र में बहुत सी समानताएँ पाई जाती हैं। जिस प्रकार उदासीनता वक्र दो वस्तुओं के उन सभी संयोगों को व्यक्त करता है जिनसे उपभोक्ता को समान्नु सन्तुष्टि प्राप्त होती है, उसी प्रकार समोत्पाद वक्र दो साधनों के उन सभी संयोगों को प्रदर्शित करता है जिनसे समान उत्पादन प्राप्त होता है। लेकिन समोत्पाद वक्र एवं तटस्थता वक्र में महत्त्वपूर्ण अन्तर भी हैं
(1) एक तटस्थता वक्र दो वस्तुओं के उन विभिन्न संयोगों को बताता है जिनसे कि उपभोक्ता को एक समान सन्तुष्टि स्तर प्राप्त होता है । इसके विपरीत, सम-उत्पाद वक्र दो वस्तुओं के स्थान पर दो उत्पादन साधनों के उन विभिन्न संयोगों को व्यक्त करता है जिनसे किसी वस्तु की एक दी हुई मात्रा का उत्पादन किया जा सकता है।
(2) समोत्पाद वक्रों को उत्पादन की इकाइयों की संख्या के रूप में व्यक्त किया जा सकता है, जबकि तटस्थता वक्रों को संख्या या भौतिक इकाई के रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि सन्तुष्टि एक मनोवैज्ञानिक विचारधारा है जिसे मापने के लिये हमारे पास भौतिक इकाइयाँ नहीं होती।
(3) तटस्थता वक्र के सम्बन्ध में यह बताना कठिन होता है कि एक ऊँचा तटस्थता वक्र उनके नीचे वाले तटस्थता वक्र की तुलना में कितनी अधिक सन्तुष्टि प्रदान करता है, परन्तु समोत्पाद वक्र के सम्बन्ध में यह बताया जा सकता है कि एक ऊँचा समोत्पाद वक्र, एक नीचे समोत्पाद वक्र की तुलना में कितना अधिक उत्पादन प्रदान करेगा।
समोत्पाद वक्रों के लक्षण अथवा विशेषताएँ
सम उत्पादनकों की विशेषताएँ लगभग वही हैं जो उदासीनता वक्रों की हैं। कुछ महत्वपूर्ण विशेषताणों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(1) सम–उत्पाद वक बायें से दायी ओर नीचे की तरफ गिरते हैं, अशवा उनका हाल जणात्मक होता है (IQ. product curves fall from left to the right bottom or their slope is always negative)- यह सम-उत्पाद वक्र की प्रमुख विशेषता है । इसका कारण यह है कि यदि एक दिये हुए उत्पादन को प्राप्त करने के लिए एक साधन की मात्रा में वृद्धि की जाती है तो दूसरे साधन की मात्रा में कमी करनी पड़ेगी । यदि एक साधन का अधिक प्रयोग करके अन्य साधन की मात्रा में कमी नहीं की जाती है तो उत्पादन की मात्रा अधिक हो जायेगी जो कि सम-उत्पाद वक्र के प्रतिकूल है।
(2) समोत्पाद वक्र कभी भी एक दूसरे को काट नहीं सकते (Equal Product Curves never cut each other) उदासीनता– वक्रों की भाँति समोत्पाद वक्र कभी भी एक-दूसरे को नहीं काट सकते । इसे रेखाकृति द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
इस रेखाचित्र में 11 तथा I, दो समोत्पाद वक्र हैं जो एक दूसरे को काटते हए दिखाए गए हैं, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता।
B बिन्दु समोत्पाद वक्र I2 पर स्थित है । इसी प्रकार,C बिन्दु समोत्याद वक्र , I1 पर स्थित है अतः C संयोग की तुलना में B संयोग अधिक उत्पादक है। लेकिन A . संयोग भी उतना ही उत्पादक है जितना कि B संयोग क्योंकि ये दोनों ही संयोग समोत्पाद वक्र I2 पर स्थित हैं। इसी प्रकार, A संयोग भी उतना ही उत्पादक है जितना कि C संयोग क्योंकि ये दोनों ही संयोग I2 समोत्पाद बक्र पर स्थित है। चूँकि A दोनों में ही उभयनिष्ट (common) है, अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि C संयोग भी उतना ही उत्पादक है जितना कि B संयोग । लेकिन यह निष्कर्ष स्पष्टतः असंगत है।
अतः स्पष्ट है कि समोत्पाद वक्र कभी-भी एक दूसरे को काट नहीं सकते।
(3) समोत्पाद वक्र मूल बिन्दुओं के प्रति उन्नतोदर होते हैं –उदासीनता वक्रों की तरह ही समोत्पाद वक्र भी मूल बिन्दु के प्रति उन्नतोदर होते हैं। जब एक साधन को दूसरे साधन से प्रतिस्थापित किया जाता है, तब तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दरं घटती जाती है । साधन एक दूसरे के पूर्ण प्रतिस्थापन नहीं होते, इसीलिए एक साधन की बढ़ती हुई मात्रा को दूसरे साधन की घटती मात्रा में प्रतिस्थापित किया जाता है। प्रतिस्थापन की सीमान्त दर के घटते . जाने के कारण ही समोत्पाद वक्र मूल बिन्दु के प्रति उन्नतोदर होते हैं।
(4) सम उत्पाद वक्र किसी भी अक्ष को स्पर्श नहीं कर सकता (No isoquant can touch either axis):- यदि एक सम-उत्पाद वक्र किसी अक्ष को स्पर्श करता है तो इसका अर्थ यह होगा कि उस वक्र द्वारा प्रदर्शित उत्पादन की मात्रा को केवल एक साधन द्वारा ही . उत्पादित किया जा रहा है।
उदाहरण के लियें,यदि सम-उत्पाद वक्र . Iq1, X-अक्ष को L बिन्दु पर स्पर्श करता है तो इसका अर्थ यह है कि उस निश्चित उत्पादन की मात्रा को श्रम की OL इकाइयों को प्रयुक्त करके उत्पादित किया जा रहा है। इसी प्रकार Iq2 वक्र Y अक्ष को K बिन्दु पर स्पर्श करता है जो इस बात को दर्शाता है कि पूँजी की OK इकाइयों का प्रयोग करके निश्चित उत्पादन किया जा सकता है, परन्तु वास्तविक जीवन में केवल एक साधन का प्रयोग करके । उत्पादन , करना असम्भव है।
(5) दायीं ओर स्थित समोत्पाद वक्र अधिक उत्पादन को प्रकट करता है (An iso-quant curve lying to the right represents a larger output)- जिस प्रकार दायीं ओर स्थित उदासीनता वक्र अधिक सन्तुष्टि को व्यक्त करता है उसी प्रकार दायों ओर स्थित समोत्पाद वक्र बायीं ओर स्थित वक्र की तुलना में अधिक उत्पादन को प्रकट करता है।
उदाहरण के लिये, P तथा P. बिन्दु क्रमशः Iq1 तथा Iq2 संमोत्पाद वक्रों पर स्थित हैं। ‘ I वक्र पर स्थित P बिन्दु X की OM तथा Y की ON मात्राओं के संयोग को व्यक्त करता है। इस संयोग से एक निश्चित उपज प्राप्त हाती है। 12 पर स्थित P. बिन्दु X की OM तथा Y की ON मात्राओं के संयोग को निरूपित करता है। इस संयोग से प्रथम संयोग की ।
तुलना में अधिक उत्पादन प्राप्त होगा। P. संयोग P संयोग की तुलना में X की अधिक मात्रा को निरूपित करता है।
(6) समोत्पाद वक्र रिज रेखाओं को अंकित करने में सहायक होते हैं (Iso-quant curves help Delineate Ridge Lines)- समोत्पाद वक्र व्यावसायिक फर्म के लिये उपयुक्त उत्पादन क्षेत्र का सीमांकन करते हैं। ये वक्र उन सीमाओं का निर्धारण करते हैं जिनके बीच उत्पादन करना . फर्म के लिये लाभदायक होता है। एक सीमा के पश्चात् सम-उत्पाद वक्र के सिरों का ढाल धनात्मक हो जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जब एक उत्पादक आवश्यकता से अधिक श्रम अथवा पूँजी अथवा दोनों का प्रयोग करता है, तो सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक होने लगता है। अत: फर्म समोत्पाद वक्र के उन्हीं भागों में उत्पादन निश्चित करेगी जो परिधि रेखाओं (ridge lines) के मध्य स्थित है।
(7) समोत्पाद वक्रों का समानान्तर होना आवश्यक नहीं (Iso-quant curve need not be parallel) – समोत्पाद वक्रों का आपस में समानान्तर होना आवश्यक नहीं है क्योंकि सभी सम मात्रा अनुसूचियों में दो साधनों की प्रतिस्थापन दर का समान होना जरुरी नहीं होता।
प्रश्न 8-रिज रेखाएँ क्या हैं? उत्पादन का आर्थिक क्षेत्र किस प्रकार निर्धारित किया जाता है?
(2006)
उत्तर–
उत्पादन का आर्थिक क्षेत्र
समोत्पाद वक्र व्यावसायिक फर्म के लिये उसके उत्पादन का आर्थिक क्षेत्र ज्ञात करने में सहायक होते हैं। ये वक्र फर्म को यह बताते हैं कि किन सीमाओं के भीतर उत्पादन करना फर्म के लिये लाभदायक होगा। सामान्यतया समोत्पाद वक्र बायें से दायें नीचे की ओर ढाल वाले तथा मूल बिन्दु के प्रति उन्नतोदर होते हैं, लेकिन एक सीमा के पश्चात् ये वक्र पीछे की. ओर मुड़ते हुए अर्थात् धनात्मक ढाल वाले हो जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि यदि एक उत्पादक आवश्यकता से अधिक श्रम अथवा पूँजी अथवा दोनों का प्रयोग करता है, तो सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक होने लगता है। अतः एक फर्म समोत्पाद वक्रों के उन्हीं क्षेत्रों में उत्पादन करना निश्चित करेगी जो मूल बिन्दु के उन्नतोदर या परिधि रेखाओं के बीच में स्थित हैं। इसे रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
रेखाचित्र में Iq1, Iq2, Iq3, Iq4. समोत्पाद वक्र हैं जो क्रमशः उत्पादन की 100, 200, 300 तथा 400 इकाइया प्रदाशत करत है। ये सम-उत्पाद वक्र क्रमशः नशा एवं D तथा H बिन्दुओं पर पीछे की ओर मोड़ लिये हुए हैं । सम उत्पाद वक्र
Iq1 के A बिन्दु पर पूँजी की अधिकतम मात्रा तथा श्रम की न्यूनतम मात्रा का प्रयोग करके वस्तु की 100 इकाइयों का उत्पादन किया गया है। यदि इस बिन्दु के ऊपर किसी अन्य बिन्दु पर रहकर पूँजी का और अधिक प्रयोग किया जाये तो उसकी उत्पादिता ऋणात्मक होगी। उदाहरण के लिए, यदि हम Iq1 वक्र K1 बिन्दु पर रहकर पूँजी की LK1, इकाइयों का तथा श्रम की OL इकाइयों का प्रयोग करके वस्तु की 100 इकाइयों का ही उत्पादन कर पायेंगे, जबकि Iq1 के K बिन्दु पर श्रम की उतनी ही इकाइयों (अर्थात् OL) के प्रयोग के साथ पूँजी की केवल KL इकाइयों का प्रयोग करके वस्तु की 100 इकाइयाँ उत्पादित की जा सकती हैं। इससे स्पष्ट है कि पूँजी की कुछ अतिरिक्त इकाइयों की सीमान्त उत्पादकता ऋणात्मक होगी। अतः कोई भी विवेकशील उत्पादकं Iq1 के K. बिन्दु पर उत्पादन करना पसन्द नहीं करेगा।
इसी प्रकार, यदि उत्पादक Iq1 के E बिन्दु से आगे किसी अन्य बिन्दु पर उत्पादन करता है तो श्रम का सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जायेगा। अतः Iq1 का केवल AE भाग ही उत्पादक के लिए महत्त्वपूर्ण है।
समोत्पाद मानचित्र में A, B, C, तथा D बिन्दुओं को मिलाने से OR रेखा तथा E, F G तथा H बिन्दुओं को मिलाने से OS रेखा प्राप्त होती है। इन्हें परिधि रेखाएँ कहा जाता है तथा इन रेखाओं के मध्य उत्पादन करना ही लाभप्रद होता है।
रिज रेखाएँ
(Ridge lines)
समोत्पाद वक्र के बिन्दुओं के मार्ग जिन पर साधनों की सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है, रिज रेखाएँ बनाते हैं। उपर्युक्त वर्णित समोत्पाद मानचित्र में दो रिज रेखाएँ OR तथा OS हैं। रिज रेखा OR श्रम की उन मात्राओं को व्यक्त करती है जो उत्पादन की विभिन्न मात्राओं के लिये न्यूनतम रूप से आवश्यक है तथा रिज रेखा OS पूँजी की न्यूनतम आवश्यक मात्राओं को व्यक्त करती हैं । OR रेखा को पूँजी रिज रेखा अथवा ऊपरी रिज रेखा भी कहा जाता है। रिज रेखा OR के विभिन्न बिन्दुओं जैसे A, B, C तथा D पर पूँजी की सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है । इसी प्रकार OS रेखा को श्रम रिज रेखा अथवा निम्न रिज रेखा भी कहा जाता है। इस रेखा के विभिन्न बिन्दओं जैसे E F G तथा H पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्यं होती है।
इन दोनों रिज रेखाओं OR तथा OS के बीच के क्षेत्र को उत्पादन के आर्थिक क्षेत्र की सज्ञा दी जा सकती है। उत्पादन के इस क्षेत्र में समोत्पाद वक्र सामान्य आकार वाले अर्थात ऋणात्मक ढाल वाले होते हैं । इन परिधि रेखाओं के क्षेत्र में उत्पादन करके ही उत्पादक अपने लाभों को अधिकतम कर सकते हैं।
रिज रेखाओं के बाहर के क्षेत्र उत्पादन के अनार्थिक क्षेत्र होते हैं। इनके बाहर साधनों की सीमान्त उत्पादकता ऋणात्मक होने लगती है तथा पूर्ववत् उत्पादन प्राप्त करने के लिये ही दोनों साधनों की अधिक मात्राओं की आवश्यकता होती है। अतः कोई भी विवेकशील उत्पादक रिज रेखाओं के बाहर साधन संयोगों का चयन नहीं करेगा। अतः स्पष्ट है कि रिज रेखाओं के . बीच का क्षेत्र ही उत्पादन का आर्थिक क्षेत्र होता है।
प्रश्न 9-साधनों के न्यूनतम लागत संयोग की क्या शर्ते हैं? सम लागत रेखाओं और समोत्पाद वक्रों की सहायता से उत्पादन के अधिकतमीकरण को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
समोत्पाद वक्र क्या है? समोत्पाद वक्रों की सहायता से उत्पादक के सन्तुलन की धारणा को समझाइए।
अथवा
‘साधनों के अनुकूलतम संयोगों‘ शब्दावली से आप क्या समझते हैं? समोत्पाद वक्र विश्लेषण की सहायता से समझाइये।
(Meerut, 2005 Back)
उत्तर–प्रत्येक उत्पादक विभिन्न उत्पादन साधनों का सामंजस्य इस प्रकार से करना चाहता है जिससे कि एक दिये हुए स्तर के उत्पादन की कुल लागत न्यूनतम हो। इस उद्देश्य की पूर्ति में समोत्पाद वक्र बहुत सहायक होते हैं। वास्तव में एक निश्चित स्तर के उत्पादन को प्राप्त करने के लिये उत्पादक के समक्ष कई वैकल्पिक साधन संयोग होते हैं । समोत्पाद वक्र उत्पादक को एक ऐसा संयोग देने में सहायक होते हैं जिससे वह न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन कर सकता है। इस प्रकार के साधन संयोग को सर्वोत्तम अथवा अनुकूलतम साधन संयोग कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, समोत्पाद वक्र फर्म को सन्तुलनांवस्था प्राप्त करने में उसी प्रकार सहायक होते हैं जिस प्रकार उदासीनता वक्र उपभोक्ता को सन्तुलन प्राप्त करने में सहायक होते हैं। फर्म को सन्तुलनावस्था प्राप्त करने के लिये अथवा अनुकूलतम साधन संयोग ज्ञात करने । के लिये निम्नलिखित उपकरणों की आवश्यकता होती हैं
(1) समोत्पाद मानचित्र (2) सम-लागत रेखा
समोत्पाद मानचित्र
जब एक ही रेखाचित्र में उत्पादन के विभिन्न स्तरों को व्यक्त करने वाले समोत्पाद वक्र दिखाए जाते हैं तो उसे समोत्पाद मानचित्र कहते हैं । यह मानचित्र वस्तु की विभिन्न मात्राओं का उत्पादन करने के लिए उत्पादक के सामने विभिन्न तकनीकी सम्भावनाओं का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तत करता है। इसे रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
प्रस्तत रेखाचित्र में कई समोत्पाद वक्र है तथा प्रत्येक वक्र उत्पादन के एक निश्चित स्तर .. को व्यक्त करता है।
संयोग पर उत्पादक OP मात्रा में पूँजी तथा ON मात्रा में श्रम लगाकर 100 कुन्तल चावल का उत्पादन कर सकता है जो Iq1 की स्थिति है।
B संयोग पर पूंजी की मात्रा OP पूर्ववत् रहती है, जबकि श्रम की मात्रा बढ़कर ON, हो जाती है। अब उत्पादन 100 कुन्तल से बढ़कर 200 कुन्तल हो जाता है,जो IQ पर स्थित है । अतः Iq1 की अपेक्षा Iq2 पर उत्पादन का स्तर ऊँचा है।
C संयोग पर पूर्ववत् पूँजी तथा ON2 मात्रा में श्रम की इकाई लगायी जाती है जिससे उत्पादन बढ़कर 300 कुन्तल हो जाता है। अतः Iq2 की अपेक्षा Iq+3 उत्पादन के उच्च स्तर को दिखाता है है। यही स्थिति अन्तिम Iq, वक्र में देखने को मिलती है। इस व्याख्या से स्पष्ट है कि प्रत्येक अलग समोत्पादक वक्र पहले समोत्पादक वक्र से अधिक उत्पादन के स्तर को व्यक्त करता है।
सम लागत रेखा
सम लागत रेखा दो साधनों के उन विभिन्न संयोगों को व्यक्त करती है जिन्हें फर्म एक दी हुई राशि से दी हुई कीमतों पर खरीद सकती है। इस प्रकार सम लागत रेखा दो बातों को व्यक्त करती है –
(i) दोनों साधनों की कीमतें तथा
(ii) फर्म द्वारा किया जाने वाला । कुल व्यय
एक काल्पनिक उदाहरण की सहायता से सम लागत रेखा को स्पष्ट किया जा सकता है। माना एक उत्पादक के पास 100 रुपये हैं, जिन्हें वह श्रम तथा पूँजी पर व्यय करके उत्पादन करना चाहता है। माना श्रम की लागत 4 रुपये और पूँजी की लागत 10 रुपये है, इस स्थिति में उत्पादक के सामने निम्न विकल्प होंगे –
(i) 25 श्रमिक व शून्य मशीनें
(ii) 10 मशीने व शून्य श्रमिक
(ii) इन दोनों सीमाओं के मध्य साधनों का कोई भी एक संयोग।
इन स्थितियों को रेखाचित्र के द्वारा प्रदर्शित किया जाए तो हमे AB सम लागत रेखा प्राप्त हो जाती है। यह रेखा पूँजी तथा श्रम की अधिकतम मात्रा के साथ उन सभी संयोगों को प्रदर्शित करती है जिन्हें उत्पादक दी हुई कीमतों पर 100 रुपये की धनराशि से क्रय कर सकता हैं |
साधनों का अनकलतम संयोग अथवा उत्पादक का साम्य साधनों के अनुकूलतम संयोग की प्राप्ति के लिये समोत्पाद मानचित्र तथा समलागत. वक्र दोनों को एक ही रेखाचित्र के अन्तर्गत बनाया जाता है। अब फर्म के सामने यह समस्या रहती है कि वस्तु की किसी विशेष मात्रा को उत्पादित करने के लिये साधनों के कौन से संयोग का चुनाव किया जाए। यहाँ पर फर्म साधनों के उस संयोग का चुनाव करेगी जिस पर उत्पादन लागत न्यूनतम हो अथवा दिये हए लागत व्यय पर अधिकतम उत्पादन हों ।
उत्पादक के साम्य की दो शर्ते होती हैं
(i) साम्य बिन्दु पर साधन लागत न्यूनतम हो तथा
(ii) साम्य बिन्दु पर तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर तथा कीमत अनुपात एक . दूसरे के बराबर हों।
(1) साधन संयोग की लागत न्यूनतम हो-साधन संयोग की लागत उस बिन्दु पर न्यूनतम होती है जहाँ समोत्पाद वक्र, समलागत रेखा को स्पर्श करता है। इस संयोग बिन्दु को ही अनुकूलतम साधन संयोग कहा जाता है । इसकी विवेचना दो प्रकार से की जा सकती है
(i) लागत को न्यूनतम करना, जबकि उत्पादन की मात्रा दी हुई है –उत्पादन की मात्रा दी हुई होने पर उत्पादक का सन्तुलन उस बिन्दु पर होता है जहाँ समलागत रेखा, समोत्पाद वक्र को स्पर्श करती है । इसे रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
माना एक फर्म 100 इकाइयों का उत्पादन करना चाहती है। इसके लिये फर्म का समोत्पाद वक्र Iq है । वस्तु की 100 इकाइयों का उत्पादन Iq पर स्थित किसी भी साधन संयोग जैसे A, E, B आदि द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु इन विभिन्न संयोगों में सेकेवल E बिन्दु ही फर्म का न्यूनतम 5 लागत संयोग होगा क्योंकि इस पर Iq सम लागत रेखा को स्पर्श करता है।
समोत्पाद वन पर स्थित अन्य बिन्दु A तथा B ऊँची सम लागत रेखा पर स्थित हैं, अतः इनकी उत्पादन लागत अधिक होगी। अतः एक विवेकशील उत्पादक E साम्य बिन्दु के अतिरिक्त अन्य किसी संयोग का चयन नहीं करेगा।
(ii) लागत व्यय दिया होने पर उत्पादन को अधिकतम करना– इस स्थिति में फर्म के सामने यह समस्या होती है कि वह अपने दिये हुए कुल व्यय की सहायता से किस साधन संयोग का चुनाव करे जिससे कि अधिकतम उत्पादन हो सके । इसमें फर्म का साम्य उस बिन्दु होता है जहाँ समलागत रेखा उच्चतम समोत्पाद वक्र पर एक स्पर्श रेखा हो। इस स्थिति को रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
रेखाचित्र में Iq1, Iq2 तथा Iq3 तीन समोत्पाद वक्र हैं जो उत्पादन की क्रमश: 100. 200 तथा 300 इकाइयों को प्रदर्शित करते हैं। फर्म की दी हई सम का साम्य । बन्दु पर होगा. जहा पर सोत्पाद वक्र IC2 सम लगत वक्र MN को स्पर्श करती है । इस संयोग से प्राप्त होने वाला उत्पादन A तथा B संयोगों की तुलना में अधिक है क्योंकि बिन्दु A तथा B नीचे समोत्पाद वक्र Iq पर स्थित है। इसी प्रकार यदि फर्म Iq पर स्थित E बिन्दु के अतिरिक्त किसी अन्य बिन्दु जैसे C का चुनाव करती है तो उसके प्रयोग हेतु उसे अधिक लागत-व्यय का प्रबन्ध करना पड़ेगा | अत: स्पष्ट है की E बिन्दुही अनुकूलतम सयोंग है जहाँ फर्म पूँजी की OK तथा श्रम की OL इकाइयों के द्वारा दिए हुए लगत व्यय से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करती है |
(2) तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर तथा साधनों का कीमत अनुपात बराबर होना– साम्य बिन्दु पर तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर तथा साधनों का कीमत अनुपात बराबर होता है। किसी विशिष्ट बिन्दु पर समोत्पाद वक्र की ढाल, उस बिन्दु पर तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर को व्यक्त करती है। इसी प्रकार किसी विशिष्ट बिन्दु पर सम-लागत रेखा की ढाल दोनों साधनों के कीमत अनुपात को व्यक्त करती है । फर्म का अनुकूलतम साधन … संयोग उस बिन्दु द्वारा व्यक्त किया जाता है जहाँ पर समोत्पाद वक्र एवं सम-लागत रेखा दोनों . की ढाल बराबर हो जाती है । रेखाचित्र से स्पष्ट है कि A तथा B बिन्दु साम्य बिन्दु नहीं हो सकते क्योंकि A बिन्दु पर पूँजी के स्थान पर श्रम के तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर, दोनों साधनों के कीमत अनुपात से अधिक है। अतः अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये फर्म E बिन्दु तक पूँजी का श्रम से प्रतिस्थापन करती जाएगी। इसी प्रकार र बिन्दु पर श्रम की तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर, साधनों के कीमत अनुपात से कम है। अतः फर्म श्रम के स्थान पर पूँजी का प्रतिस्थापन करेगी तथा यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि फर्म E बिन्दु पर नहीं पहुँच जाती
लघु उत्तरीय प्रश्न
(Short Answer Questions)
प्रश्न – तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर को समझाइए।
उत्तर– उत्पादन लागतों में बचत करने के लिये उत्पादक अधिकतर एक उत्पादन साधन का दूसरे उत्पादन साधन से प्रतिस्थापन करता रहता है। उदाहरण के लिये, श्रम के स्थान पर पूंजी का तथा पूँजी के स्थान पर श्रम का सरलता से प्रयोग किया जा सकता है। तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर से आशय उस दर से है, जिस पर उत्पादन की मात्रा में कोई परिवर्तन । किए बिना उत्पादन के एक साधन को दूसरे साधन से सीमान्त पर प्रतिस्थापित किया जाता है। साधन X की साधन Y के लिये तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर का अर्थ है कि x साधन की एक इकाई Y साधन की कितनी इकाइयों के स्थान पर प्रयोग हो सकती है. बशर्ते कि उत्पादन की मात्रा में कोई परिवर्तन न हो।
सरल शब्दों में, “दो साधनों के बीच तकनीकी सीमान्त प्रतिस्थापन दर से आशय एक साधन की उस मात्रा से है जिसे कुल उत्पादन के स्तर को पूर्ववत् बनाए रखने के लिये दूसरे साधन की मात्रा से प्रतिस्थापित करना होगा।”
तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRTS) को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है
MRTs= ΔY/ΔX
ΔY = पूँजी के उपयोग में परिवर्तन;
ΔX = श्रम के उपयोग में परिवर्तन
तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर को अग्रलिखित सारणी की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
सयोंग | X-साधन (श्रम) | Y-साधन (पूँजी) | उत्पादन | पूँजी की श्रम के लिए प्रतिस्थापन दर |
A | 1 | 17 | 100 किंवटल | _ |
B | 2 | 14 | 100 किंवटल | 3:1 |
C | 3 | 12 | 100 किंवटल | 2:1 |
D | 4 | 11 | 100 किंवटल | 1:1 |
उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि श्रम व पूँजी. के प्रत्येक संयोग A, B, C तथा D उत्पादक को समान उत्पादन अर्थात 100 इकायाँ देते हैं। ये सभी समोत्पाद संयोग हैं। यदि हम A तथा B संयोग की तुलना करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि पूँजी की 3 इकाइयों को श्रम की 1 इकाई से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। अतः इस प्रथम चरण में तकनीकी स्थानापत्ति की सीमान्त दर (MRTs) 3 : 1 है । इसी प्रकार, B तथा C संयोगों की तुलना से इस तथ्य का पता चलता है, कि पूँजी की 2 इकाइयों को उत्पादन की मात्राओं में कोई परिवर्तन किये बिना श्रूम की 1 इकाई से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। अतः उत्पादन के इस द्वितीय चरण में तकनीकी स्थानापत्ति की सीमान्त दर 2 : 1 है । इसी प्रकार,C तथा D संयोगों के बीच तकनीकी स्थानापत्ति की सीमान्त दर 1 : 1 है।
प्रश्न 3-तकनीकी प्रतिस्थापन की घटती हुई सीमान्त दर के क्या कारण होते हैं? इस नियम के अपवाद भी बताइए।
उत्तर– सामान्यतया दो साधनों X और Y के बीच तकनीकी प्रतिस्थापन की दर घटती हुई होती है। इस सिद्धान्त को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-“दो साधनों X तथा Y के संयोग में यदि एक साधन X की मात्रा बढ़ाई जाती है तो दूसरे साधन Y की मात्रा घटानी पड़ेगी, ताकि कल उत्पादन समान रहे । ऐसी स्थिति में साधन X की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई को साधन की घटती हुई मात्रा द्वारा प्रतिस्थापित (Substitute) किया जायेगा। इसको X की Y के तकनीकी प्रतिस्थापन की घटती हुई सीमान्त दर का सिद्धान्त कहा जाता है।”
जब पूँजी के लिये श्रम का अधिकाधिक प्रतिस्थापन किया जाता है तो श्रम की पूँजी के लिये तकनीकी प्रतिस्थापन की ΔY/ΔX सीमान्त दर घटती जाती है। जब श्रम की मात्रा को बढ़या तथा पूँजी की पूर्ति को घटाया जाता है तो श्रम की अतिरिक्त इकाई से प्रतिस्थापित होने वाली पूँजी की मात्रा में कमी का होना आवश्यक है क्योंकि इसके बिना उत्पादन की मात्रा को स्थिर नहीं रखा जा सकता । श्रम एवं पूँजी में उत्पत्ति ह्रास नियम की क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप ह। तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर घटती चली जाती है। जैसे-जैसे श्रम की मात्रा बढ़ायी जाती है और पूँजी की पूर्ति को घटाया जाता है, श्रम की सीमान्त भौतिक उत्पादकता तो घटती है, लेकिन पूँजी की सीमान्त उत्पादकता बढ़ती चली जाती है। परिणामतः उत्पादन के स्तर को यथास्थिर बनाये रखने के लिए श्रम की अतिरिक्त इकाई अधिकाधिक कम होने वाली पूँजी की मात्रा को प्रतिस्थापित करती चली जाती है। दूसरे शब्दों में, तकनीकी प्रतिस्थापन की ह्रासमान सीमान्त दर का सिद्धान्तः कार्यशील हो उठता है।
लेकिन तकनीकी प्रतिस्थापन की घटती हुई सीमान्त दर के सिद्धान्त के दो अपवाद भी हैं –
(1) यदि दो साधन एक दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न हैं— जब दो साधन पूर्ण स्थानापन्न होते हैं तो उत्पादन का कोई भी साधन एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है । ऐसी स्थिति में उनके बीच तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर घटती नहीं, बल्कि स्थिर रहती है । इस स्थिति में समोत्पाद वक्र एक सीधी रेखा के रूप में होगा जो बायें से दायें नीचे गिरता चला जाता है। इस स्थिति में फर्म को श्रम की एक इकाई बढ़ाने के लिये पूँजी की भी एक इकाई की कमी करनी पड़ती है। अत: इस अवस्था में तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर 1 : 1 होगी। लेकिन वास्तविक व्यवहार में ऐसा बहुत ही कम होता है क्योंकि दो साधन एक-दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न नहीं होते हैं।
(2) यदि दो साधन एक दूसरे के पूर्ण पूरक हैं— यदि दोनों साधन एक दूसरे के पूर्ण पूरक होते हैं तो इसका अर्थ यह है कि वस्तु की एक निश्चित मात्रा के उत्पादन में उनका एक निश्चित अनुपात में ही प्रयोग किया जाता है । अत: यदि एक साधन की मात्रा को स्थिर रखते हुए दूररे साधन की मात्रा को बढ़ाया जाता है, तो उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होगी क्योंकि इस स्थिति में उनका अनुपात परिवर्तित हो जाएगा तथा बढ़ाए गए सांधन की इकाइयाँ दूसरे . साधन के अभाव में व्यर्थ ही जाएंगी। इस स्थिति में समोत्पाद वक्र X-अक्ष पर 45° का कोण बनाती है तथा प्रतिस्थापन की लोच शून्य होती है।
प्रश्न 10-विस्तार पथ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर– दो साधनों की कीमतें दी हुई होने पर एक फर्म वस्तु की एक विशेष मात्रा के उत्पादन के लिये कौन-सा संयोग चुनेगी, यह एक स्थैतिक दृष्टिकोण है। किन्तु दीर्घकाल में यह भी सम्भव है कि फर्म साधनों पर अपना व्यय बढ़ाकर उत्पादन की मात्रा का विस्तार करें। तकनीकी भाषा में इसे विस्तार प्रभाव या उत्पादन प्रभाव कहते हैं।
विस्तार पथ में हम इस बात का अध्ययन करते हैं कि एक फर्म उत्पादन का विस्तार करने पर साधन संयोग को किस प्रकार बदलेगी, जबकि कीमतें पूर्ववत् रहती हैं। जब फर्म साधनों पर कुल व्यय को बढ़ा देती है, तो इस बढ़े हुए व्यय को प्रदर्शित करने के लिये एक नयी सम-लागत बनानी पड़ेगी। साधनों की कीमतें स्थिर रहने पर, नई सम लागत रेखा पुरानी सम-लागत रेखा के समानान्तर होगी तथा नया अनुकूलतम संयोग उस बिन्दु पर स्थित होगा जिस पर नयी सम लागत रेखा, अगले ऊँचे समोत्पाद वक्र को स्पर्श करेगी। इस स्थिति को रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
रेखाचित्र में MN, M1.N2, तथा M2N2, तीन समलागत रेखाएँ हैं जोकि बढ़ते हुए कुल व्यय के स्तरों को व्यक्त करती हैं। Iqi, Iq, तथा Iq क्रमश: उत्पादन की 100, 200 तथा 300 इकाइयों को व्यक्त करते हैं। इन विभिन्न सम-लागत वक्रों पर सन्तुलन के बिन्दु क्रमश: E, E1 तथा E2, हैं। अब यदि इन साम्य बिन्दुओं को एक दूसरे से मिला दिया जाए तो इससे बनी रेखा को विस्तार पथ अथवा पैमाने की रेखा कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि विस्तार पथ समोत्पाद रेखाओं तथा सम–लागत रेखाओं के बीच स्पर्श बिन्दुओं का रास्ता है। इसका अभिप्राय कि विस्तार पथ साधनों के न्यूनतम लागत वाले संयोगों (या साधनों के अनुकूलतमसंयोगों) को बताता है जिनके द्वारा उत्पादन की विभिन्न मात्राएँ उत्पादित की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में,विस्तार पथ उत्पादन के विभिन्न स्तरों को उत्पादित करने के सर्वोत्तम तरीकों को बताता है।
विस्तार पथ पर कोई भी बिन्दु मूल बिन्दु से जितना दूर होगा, उतना ही वह उत्पादन की अधिक मात्रा को प्रदर्शित करेगा।
विस्तार पथ रेखा एक उत्पादक के लिये बहुत ही व्यवहारिक महत्त्व रखती है क्योंकि वह उत्पादन का विस्तार करते समय इस पथ का अनुसरण करके उत्पादन लागतों को न्यूनतम कर सकता हैं।
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