Self Development And Communication Business Communication Notes In Hindi

Self Development And Communication Business Communication Notes In Hindi

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Self Development And Communication Business Communication Notes In Hindi
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Meaning Of Self – Development ( स्व- विकाश का अर्थ )

स्व विकास व्यक्तिनिष्ठ एंव सापेक्षित है जिसका अध्यन मानव व्यवहार की पूर्णता को जानने के लिए किया जाता है | भिन्न – भिन्न लोगो के लिए इसके भिन्न –भिन्न अर्थ होते है | उदाहरनार्थ – आध्यामिक व्यक्ति के लिए चेतना के उच्च स्तरों की खोज , वैज्ञानिक के लिए उसकी खोजी में सफलता और वृधि तथा एक खिलाडी के लिए पुराने कीर्तिमानो को तोडना और नये कीर्तिमानो को बनाना आदि आत्म्विकाश हो सकता है | प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व एंव व्यक्तित्व के अनुसार इसको परिभाषित करता है और इसका विस्तार करता है | स्व-विकाश दो शब्दों ‘आत्म’ तथा ‘विकास’ से मिलकर बना है यहाँ स्व शब्द का आशय व्यक्ति के गुणों की समग्रता से है जो उसके निजी गुणों एंव लक्षणों से सम्बंधित है | विकास का आशय व्यक्ति में नई-नई विशेषताओ एंव क्षमताओं  का विकसित होना है जो प्रारम्भिक जीवन में शुरू होकर परिप्क्वाव्स्ता तक चलता है |

स्व-विकास शरीर के गुणात्मक परिवर्तनों का नाम है जिसके कारण व्यक्ति की कार्यक्षमता एंव व्यवहार में प्रगति या अव्निती होती है | दुसरे शव्दों में , आत्म-विकास में आशय एक व्यक्ति में शरीरिक , बौधिक , आध्य्मिक भौतिकवाद आदि गुणों के संतुलन शैली में विकास में विकास से है |

संछेप में , ‘स्व-विकास’ एक व्यक्ति में शारीरक , बौधिक , भौतिक व् आद्य्मिक गुणों के विकास की एक प्रक्रिया है |



OBJECTIVES OF SELF – DEVELOPMENT ( स्व-विकास के उद्देश्य )

स्व-विकास के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है –|

(1) अनुकूल व्यक्तित्व का विकास – स्व-विकास का प्रमुख उदेश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का उचित एवं संतुलित विकास करना है | समाज म्नोवैनके अनुसार व्यक्तिगत विभिन्न गुणों का एक समूह है जो मनुष्य की प्रकति एवं व्यवहार को प्रदर्शित करता है |

(2) आत्मसम्मान का विकास – स्व-विकास से स्वाभिमान अथवा स्व-सम्मान का विकास होता है | स्व-विकास से आशय है कि हम स्वयं के बारे में क्या अनुभव करते है | स्व-विकास एक व्यक्ति को शिष्ट तथा नम्र बनाता है | स्व-विकास अपने व्यवहार के आधार पर व्यक्ति को स्वयं को विश्लेषित करने की परेणा देता है |

(3) सकारात्मक द्रष्टिकोण का विकास – स्व-विकास सकारात्मक द्रष्टिकोण का कारण व् परिणाम दोनों ही है | द्रष्टिकोण की प्रक्रति प्रतिकूल अथवा अनुकूल प्रदर्शन की होटी है जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों की प्रक्रति व् दशा पर निर्भर होता है | स्व-विकास व्यक्ति को प्रतिकूल भावनाओ से ब्चास्ता है व् उसकी अनुकूल द्रष्टि को बढाता है | सकारात्मक द्रष्टिकोण व्यक्ति क्र जीवन के व्यक्ति को आशावादी अ सुखमय है |

(4) समग्र विकास – आत्म-विकास एक मनुष्य में शारीरिक, भौतिक, बौध्दिक व आध्यात्मिक/धार्मिक गुणों को विकसित करता है | ये सभी बाते एक व्यक्ति के समग्र विकास में सहायक होती है |

(5) संस्क्रतिक समरसता को विकासित करना – आत्म-विकास व्यक्ति की द्रष्टि को विस्तारित करता है | एक विस्तृत/व्रहद द्रष्टिकोण वाला व्यक्ति ही विभिन्न संस्क्रतियो या धर्मो या समुदायों के मूल्य का आदर करता है | यह प्रवर्ती देश की संस्क्रतिक एकाग्रता मर वृध्दि करती है |

(6) विचार शक्ति का विकास – आत्म-विकास व्यक्ति की विचार शक्ति की बढ़ाने में सहायक है | एक विचारशील व्यक्ति ही उचितनिर्णय लेने में सूक्षम होता है | यह व्यक्ति को क्रपालु, दयालु, सहयोग की भावना कोई विकासित कर चिन्तनशील बनती है |

(7) संगठन क्षमता का विकास – आत्म-विकास एक व्यक्ति में संगठन क्षमता को बढाता है | एक अच्छा संगठक समाज के लिए वरदान होता है |

(8) आत्म-विश्वास का विकास – आत्म-विश्वास आत्म-विकास को बढ़ाने में सहायक है | यह एक व्यक्ति में नेतत्व क्षमता को विकासित करता है | एक आत्म-विश्वासी अन्य की अपेक्षा अधिक साहसी होता है व् जोखिम उठाने में सक्षम होता है |

(9) अच्छे गुणों को विकास – आत्म-विकास व्यक्ति में अच्छे गुणों के विकाश की पूर्व आवश्यकता है | अच्छी आदते समय, धन व ऊर्जा की बचत मर सहायक है | साथ ही साथ एक व्यक्ति को साधन-सम्पन्न बनाती है |

(10)  ज्ञान क विकास – स्व-विकास का उदेश्य व्यक्ति में कुछ सीखने व करने की  भावना को विकासित करना होता है |इससे व्याक्ति में सिखने की इच्छा, तथा विश्लेषण करने की शक्ति बढती है | स्व-विकास की आधिक साहसी तथा गतिशील बनता है |




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( INTER –DEPENDENCE OF SELF-DEVELOPMENT AND COMMUNICATION )स्व-विकास व संचार की पारस्परिक निर्भरता

स्व-विकास तथा संचार प्रक्रिया परस्पर एक दुसरे पर निर्भर होते है | स्व-विकास जहा एक तरफ संचार को आधिक गतिशील एवं प्रभावी बनता है भी दुसरी तरफ प्रभावी संचार स्व-विकास में स्थायी वृध्दि करता हैं इस प्रकार स्व-विकास के द्वारा संचार को प्रभावशाली बनाने में सहायता मिलती है तथा प्रभावपूर्ण संचार के माध्यम से स्वविकास सम्भव हो पाता है | स्व-विकास व् सप्रेशन की पारस्परिक निर्भरता को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है –

(IMPROVEMENT IN COMMUNICATION THROUGH SELF-DEVELOPMENT)स्व-विकास द्वारा संचार में सुधार

स्व-विकास, संचार कुशलता में सुधार करके उसे आधिक प्रभावशाली बनाने में सहायक होता है | स्व-विकास व् संचार के मध्य सम्बन्ध की निम्नलिखित बिन्दुओ के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) स्व-विकास द्वारा संचार कुशलता में सुधार – स्व-विकास के दुवारा संचार कुशलता में सुधार लाकर उसे आधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है | विभिन्न संचार कुशलताओ जैसे लिखना, बोलना, सुनना तथा शारीरिक भाषा में स्व-विकास के द्वारा सुएधर लाया जा सकता है | स्व-विकास व्यक्ति को अधिक योग्य, शिक्षित व शारीरिक रूप से सक्षम बनाता है | बौध्दिक विकास से व्यक्ति की लेखन शैली अधिक रचनात्मक व उपयोगी बन जाती है |

(2) स्व-विकास द्वारा व्रहद्र द्रष्टिकोण का विकास – स्व-विकस व्यक्ति के द्रष्टिकोण को व्रहद्र स्वरूप प्रदान करता है | इससे व्यक्ति की विभिन्न प्रकार के संचार को समझने में व्यक्तियों की शीघ्रता से जाच परख कर  सकता है |

(3) स्व-विकस द्वारा विश्लेषण शक्ति का विकास – आत्म-विकास विश्लेषण शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है | आत्म-विकासित व्यक्ति जटिल या कठिन स्थितियों में भी सम्बधित समस्याओ का हल ढूढने में सक्षम होता है | वह समस्याओ के अनुरूप वाद-समवाद करने में सक्षम होता है व श्रोताओ का विश्लेषण भी कर सकता है | अत: उक्त गुणों के चलते वह एक संचार प्रक्रिया में अपना योगदान अत्यन्त ही प्रभावी ढंग से दे सकता है |

(4) स्व-विकास द्वारा आलोचनात्मक शैली का विकास – स्व-विकास व्यक्ति में आलोचनात्मक शैली का विकास करता है | स्व-विकास के द्वारा उसमे संचार नियोजन, संशोधन व सम्पादन करने की क्षमता विकसित होती है | स्व-विकसित होती है | वह संवाद का आलोचनात्मक विश्लेषण करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में भी सक्षम होता है |

(5) स्व-विकास द्वारा अन्य, क्षमताओं का विकास – स्व-विकास के द्वारा व्यक्ति में कुछ अन्य क्षमताओं जैसे पूर्णता, स्पष्टता, सूक्ष्मता, चैतन्यता आदि का भी विकास होता है |




( IMPROVEMENT IN SELF-DEVELOPMENT THROUGH COMMUNICATION )सम्प्रेषण द्वारा स्व-विकास में सुधार

जिस प्रकार स्व-विकास के द्वारा संचार में कुशलता में सुधार करके उसे प्रभावशाली बनाया जा सकता है | उसी प्रकार के प्रभावशाली संचार के द्वारा स्व-विकास में भी वृध्दि की जा सकती है  एक प्रभावशाली संचार आत्म-विकास का महत्वपूर्ण उपकरण है | संचार के मुख्य माध्यम जैसे मौखिक व अभाषिक आत्म-विकास को बढ़ाते है | भाषा-प्रवाह, प्रभावशाली लेखन, शारीरिक भाषा व् श्रवण शक्ति आदि ऐसे तत्व है जो आत्म-विकास को बढ़ाते है | अंत: प्रभावी व्यावसायिक संचार आत्म-विकास में निम्न रूप से सुधार कर सकता है –

(1) शारीरिक भाषा द्वारा स्व-विकास – शारीरिक भाषा के विभिन्न स्वरूप जैसे, भाव-भंगिमा, मुद्रा या आसन आदि आत्म-विकास में वृध्दि करते है | शारीरिक भाषा के निरन्तर प्रयोग व समझ से व्यक्ति की बौध्दिक क्षमता का विकास होता है |

(2) मौखिक संचार द्वारा स्व-विकास – मौखिक संचार के विभिन्न स्वरूप जैसे सावर्जनिक भाषण, वाद-विवाद स्व-विकास में वृध्दि के महत्वपूर्ण साधन है | डेल्काननेगी के अनुसार, “प्रगति के लिए बुध्दिमानी से अधिक आवश्यक भाषा एवं विचार पवाह है”| यदि एक वक्ता अपने विषय पर ग्रहण चिन्तन क्र व्यक्तित्त्व में तर्को तथा तथ्यों को सम्मिलित करते हुए भाषण देता है तो वह आधिक प्रभावशाली होता है |

(3) लिखित सम्प्रेषण व आत्म-विकास – किसी भी प्रकार के लेखन का प्रारम्भ एक विचार से होता है | एक विचार की उत्पति मानव मास्तिष्क में होती है | लेखन ही व्यक्ति की रचनात्मक व् कल्पनाशीलता में वृध्दि करता है | ये बाते ही आत्म-विकास को बढाती है |

(4) श्रवण क्षमता व आत्म-विकास – श्रवणता प्रभावशाली सम्प्रेषण का एक विशिष्ट अंग है | एक सफल व्यवसायी अपने ग्राहकों को बात को ध्यानपूर्वक सुनता है तथा उनके द्वारा दिए गए उपयोगी सुझावों को अपनाता है इससे उसके स्व-विकास में सुधार होता है |

( MEANING OF ATTITUDES )द्रष्टिकोण से आशय

द्रष्टिकोण से अभिप्राय किसी एक व्यक्ति, समूह, वस्तु या विचार के विश्लेषण करके की एक मान मानसिक प्रक्रिया से है | द्रष्टिकोण का एक व्यक्ति की पसन्द तथा नापसन्द एवं उसके व्यवहार के ऊपर अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है अर्थात द्रष्टिकोण एक भागवत घटना है |

मोरगन रवम आइसिंग के अनुसार, द्रष्टिकोण किसी व्यक्ति, वस्तु तथा परिस्थिति के लिए सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया को अभिव्यक्त करने की प्रवर्ती है | इसमें मुख्यत: तीन तत्व होते है – ज्ञान, भावना एवं कार्य |”

सेकण्ड एवं बैकमेन के अनुसार, “वातावरण के कुछ पहलुओ के प्रति व्यक्ति के भावो/विचारो व अनुक्रिया करने की पूर्व प्रवतियो को मनोव्रती खा जाता है |”

बोगार्ड्स के अनुसार, “यह एक कार्य करने की प्रवर्ती है जो की कुछ वातावरणीय तत्वों के पक्ष में या विपक्ष में होती है जिसके फलस्वरूप यह एक सकारात्मक अथवा नकारात्मक मूल्य अपना लेती है |”

( MEANING OF POSITIVE ATTITUDES  )सकारात्मक द्रष्टिकोण से आशय

किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारा द्रष्टिकोण सकारात्मक, नकारात्मक एवं तटस्थ हो सकता है | सकारात्मक द्रष्टिकोण से आशय किसी विषय या तथ्य के सम्बन्ध में अनुकूल विश्लेषण से है अर्थात किसी विषय के लिए पसन्द एवं अनुकूल व्यवहार की उत्पति का होना सकारात्मक द्रष्टिकोण प्रदर्शित करता है | सकारात्मक द्रष्टिकोण या मनोव्रती की उत्पति परेणा के माध्यम से होती है | द्रढ इच्छा शक्ति, आत्मविश्वास, कर्तव्य के प्रति समप्रण, रचनातमक कार्य एवं विचारो के प्रति निष्ठा, सकारात्मक द्रष्टिकोण के परिचायक होते है |

सकारात्मक द्रष्टिकोण वाला व्यक्ति कठिनाइयो समस्याओ का सरलतापूर्वक सामना करते हुए अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाने में सहायक होता है | सकारात्मक द्रष्टिकोण, व्यक्ति को अनावश्यक चिन्ताओ से मुक्ति प्रदान करता है | सकारात्मक द्रष्टिकोण को आशावादी या स्वस्थ द्रष्टिकोण भी कहते है |

सकारात्मक द्रष्टिकोण होना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की सफलता का प्रथम सोपान है | अत: एक व्यवसायी को स्वयं के व्यवसाय को सुचारू रूप से चलाने के लिए सकारात्मक द्रष्टिकोण अर्थात आशावादी मनोव्रति का होना अत्यन्त आवश्यक होता है |




( BUILDING A POSITIVE ATTITUDE )सकरात्मक द्रष्टिकोणका निर्माण

मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ काल से ही मनोव्रती या द्रष्टिकोण बना लेता है, भी उसके सम्पूर्ण जीवन काल तक साथ रहती है, अंत: यह आवश्यक है की व्यक्ति को जीवन के प्रारम्भिक काल से ही उचित्त अनुकूल द्रष्टिकोण के निर्माण के लिए व्यक्ति को सफल बनने इच्छा, सफल व्यक्ति बनाने वाले नियमो की जानकारी एवं स नियमो के अनुपालन सम्बन्धी निष्ठा व् अनुशासन आवश्यक है | एक व्यक्ति को सकारात्मक द्रष्टिकोण के निर्माण के लिए निम्न बातो का अनुसरण करना चाहिए –

(1) सकारात्मक मनोव्रती के निर्माण के लिए व्यक्ति को प्रत्येक दिन की शुरुआत अनुकूल विचारो से करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति को अनुकूल सोच एवं बातो का अनुसरण करना चाहिए –

(2) व्यक्ति में सकारात्मक द्रष्टिकोण का विकास करने के लिए अनुकूल स्वाभिमान का निर्माण करना अनिवार्य है | स्वाभिमान के द्वारा ही स्वयं को समझने की क्षमता पैदा होती है, क्योकि हम किसी तथ्य के सम्बन्ध में जिस प्रकार महसूस करेगे, उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करेगे |

(3) व्यक्ति को नकारात्मक तत्वों से दूर रहना चाहिए | एक व्यक्ति जिस प्रकार के जीवन को जीना चाहता है, उसे उस जीवन से सम्बन्धित नियमो अर्थात तौर-तरीको को सीखना चाहिए | एक व्यक्ति विशेषकर जिस प्रकार के वातावरण में रहता है, वह उसी वातावरण में ढल जाता है | अत: व्यक्ति को नकारात्मक सोच को स्वयं के ऊपर हावी होने स रोकना चाहिए |

(4) व्यक्ति को स्वयं की सोच को बदलना चाहिए तहत प्रत्येक तथ्य में अच्छाई वाले भाग को खोजना चाहिए, क्योकि सदैव किसी व्यक्ति या तथ्य में कमियों या गलतियों को देखने से व्यक्ति/तथ्य की अच्छाई की अपेक्षा कमियों को ढूढने का आदी हो जाता है | किसी व्यक्ति में अच्छाईयो को खोजने का अर्थ यह नही की उसकी कमियों की उपेक्षा की जाये | सकारात्मक द्रष्टिकोण के निर्माण के लिए व्यक्ति का आशावादी होना अत्यन्त आवश्यक है |

(5) व्यक्ति को प्रत्येक कार्य को समय पर क्र्न्मे की आदत डालनी चाहिए क्योकि कार्य के प्रति लापरवाही सदैव नकारात्मक सोच को बढ़ावा देती है | किसी भी कार्य को लापरवाही के कर्ण टालना कार्य की क्षमता को कम करना है |

(6) व्यक्ति को क्रतज्ञता का आचरण अपनाना चाहिए | किसी भी तथ्य को अपने प्रकार से ही नही समझना चाहिए  सामान्यत: व्यक्तियों में किसी भी तथ्य की अपने अधिमान पर आधारित अर्थ निकालने की आदत होती है |

(7) सकारात्मक द्रष्टिकोण के विकास के लिए व्यक्ति को सदैव ज्ञान प्राप्त करने की आदत डालनी चाहिए | अनुकूल शिक्षा व्यक्ति के ह्दय व् मष्तिक पर असरकारक होती है  अत: व्यक्ति को शिक्षा केवल श्रेणी अर्जन के लिए ही प्राप्त नही करनी चाइये बल्कि ज्ञानार्जन के लिया करनी चाइये क्योंकि एक अच्छी शिक्षा सदैव सकारात्मक द्रष्टिकोण को प्रबलता प्रदान करती है |

(DEVELOPMENT OF PERSONAL POSITIVE ATTITUDE) व्यक्तिगत सकारात्मक द्रष्टिकोण का विकास

व्यक्तिगत सकारात्मक द्रष्टिकोण का विकास करने में प्रवर्तक की महत्व्पूर्ण भूमिका होती है | प्रवर्तक से आशय सम्प्रेषण के द्वारा द्रष्टिकोण का निर्माण करना , उसमे परिवर्तन करना तथा उसके पुन:निर्माण से होता है |

द्रष्टिकोण से परिवर्तन वास्तविक हो या क्रत्रिम , इसमें तीन बाते सम्मलित होती है – परिवर्तन लेन वाले एजेंट अथवा सन्देश वाहक , सन्देश तथा प्राप्तकर्ता | अतएव परिवर्तन लेन में सम्प्रेषण अत्यंत महत्वपूर्ण है | कौन, क्या किससे कहता है और इसका क्या परभाव पड़ता है ? ये प्रशन ही हमें द्रष्टिकोण परिवर्तन को समझने में सहायता देते है | याधापोई द्रष्टिकोण परिवर्तन सम्पूर्ण प्रक्रिया सँव संचालित नही होती | एक व्यक्ति को सुचना उपलब्ध करना अत्यंत आसान कार्य है , परन्तु उस  व्यक्ति को सुचना के सम्बन्ध में विचार करने या कार्य करने के लिए विवश नही किया जा सकता | एक व्यक्ति की सूचनाओ के सम्बन्ध में प्रतिक्रिया के आधार पर प्रवर्तक की प्रभावशीलता को निश्चित किया जाता है | यधपि प्रवर्तक निम्न दो प्रकार के हो सकते है –

बाह्र्य प्रवर्तक – बाह्र्य प्रवर्तक से अभिप्राय एक व्यक्ति के द्रष्टिकोण को बाह्र्य प्रभावों के आधार पर परिवर्तित करने से है | उदहारण के लिए, श्रोता प्राय: लम्बे सन्देशो या तथ्यों पर आधारित सन्देश देने वाले विशेषज्ञों पर अधिक विश्वास करते है |

व्यवस्थित प्रवर्तक – व्यवस्थित प्रवर्तक से अभिप्राय एक व्यक्ति को अपने द्रष्टिकोण पर अधिकतम ध्यान, तर्को व् शक्ति तथा गुणवत्ता व वार्तालाप की प्रक्रति के आधार पर देने से है | जब श्रोता सन्देश को सुनता है, विषय-सूची को समझता है व अनुकूल प्रतिक्रिया देता है जो यह कहा जा सकता है की सन्देश, प्रवर्तक है | इन प्रभावपूर्ण सन्देशो के द्वारा जो परिवर्तन आता है, वह आधिक समय तक स्थायी होता है, जबकि बाह्र्य प्रवर्तक से आने वाला परिवर्तन कम स्थायी होता है |

प्रवर्तक संचार को परिक्रिया की विधि निम्न प्रकार होती है –

(1) सन्देश प्राप्त करना – संचार इस प्रकार से होना चाहिए की वह संदेश प्राप्तकर्ता का ध्यान तुरंत आकर्षित करे तथा उसे संदेश को देख्जने व् सुनने के ,लिये विवश करे |

(2) सन्देश ग्राहण करना – संचार मूल उदेश्य संदेश प्राप्तकर्ता को सन्देश ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना होता

है | संचार के प्रति श्रोता को प्रेरित करने के लिए यह आवश्यक है की सन्देश सरल हो जिससे श्रोता को आसानी से समज सके तथा ग्रहण कर सके |

(3) सन्देश की प्रतिक्रिया – व्यक्ति सन्देश को पढने व् सुनने के बाद उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है | यह प्रतिक्रिया अनुकूल व् प्रतिकूल किसी भी प्रकार की हो सकती है जब श्रोताओ की प्रतिक्रिया अनुकूल होती है तो संचार की विषय सामग्री के आधार पर वे जिस विस्तार का सर्जन करते है उसमे उन्हें प्रेरित करने में महत्वपूर्ण योगदान होता है |

(4) सन्देश को स्वीकार करना –  जब एक सुव्यवस्थित सन्देश श्रोताओ के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह प्रवर्तक सन्देश कहलाता है जब मनुष्य तथ्यों को अपने विभिन्न तर्कों के आधार पर प्रस्तुत करता है तो इससे सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती है इससे व्यक्तियों में सकारात्मक द्रष्टिकोण विकसित करने का कार्य सुगम व प्रभावी हो जाता है जो लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है |



∗(SWOT ANALYSIS ) स्वाट विश्लेषण

 किसी व्यक्ति , संस्था , अथवा व्यवसाय को उसकी वास्तविकता से अवगत कराने अर्थात् उनकी शक्तियों , कमियों , अवसरों , कठिनाइयों को विश्लेषित करने के लिया जो तकनीक प्रयोग की जाती है , उसे SWOT विश्लेषण कहा जाता है | यह विश्लेषण किसी व्यवसाय द्वारा  आंतरिक एंव बाह्य वातावरण को समझने के लिए किया जाता है इससे संस्था की संगठनात्मक रणनीति तैयार करने में सहायता मिलती है | अत: स्पष्ट है की एक कम्पनी की शक्तियों , दुर्बलताओ , अवसादो व कठिनाइयों  सम्बन्धी सम्पूर्ण मूल्याकन ही स्वाट विश्लेषण कहलाता है | स्वाट (SWOT) निम्नकिंत चार शब्दों से मिलकर बना है –

SWOT ANALYSIS www.sdak24.com
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इस विश्लेषण के अनुसार ,” एक प्रभावपूर्ण संगठात्मक रणनीति वह कहलाती है जिसमे एक व्यवसाय अपनी तमाम शक्तियों का प्रयोग करके अपने अवसरों का अधिकाधिक लाभ उठता है एंव विधमान – कमजोरियों के प्रभाव को न्यूनतम करके समस्याओ को प्रभावहीन बना देता है |”

अन्य शव्दों में , “ स्वाट विश्लेषण एक व्यवसाय को प्राप्त अवसरों का अधिकाधिक लाभ लेकर अपनी क्षमता का अधिकतम प्रयोग करना शिखता है |” इस तरह से अक्षमताओ को कम कर तमाम समस्याओ व कठिनो को व्यवसाय से दूर रखा जाता है |

( COMPONENTS OF SWOT ANALYSIS )  स्वोट विश्लेषण के अंग  

स्वीट विश्लेषण के प्रमुख अंग निम्नलिखित है –

(1) वातावरण ( Environment ) – वातावरण से आशय उन परिस्थितियो, घटनाओ एवं प्रभावों से है जिसके अन्तर्गत व्यवसाय आपना कार्य करता है | वह वातावरण निम्न दो प्रकार का सकता है –

(A) आन्तरिक वातावरण ( Internal Environment ) – वह व्यवसायिक स्थितियाँ जिसके अंतर्गत व्यवसाय किया जा रहा है उन्हें व्यवसाय का आन्तरिक वातावरण कहते है | यह तत्व जहां व्यवसाय को शक्ति प्रदान करते है वही उसको दुर्बल भी बनाते है |

(B) बाह्रा वातावरण ( External Environment ) – ऐसे तत्व जो व्यवसाय को बाहर से पभावित करते है जैसे गला काट प्रतिस्पर्धा, सरकार की औघोगिक नीति, कर नीति, विदेशी व्यापार नीति आदि बाह्रा वातावरण कहलाते है | इसी वातावरण के कारण व्यवसाय को अवसर भी मिलते है और कठिनाईयो का सामना भी करना पड़ता है |

(2) शक्ति तथा क्षमताएँ ( Strengths ) – व्यावसायिक संगठन में विघमान ऐसे तत्व जिनके प्रयोग से व्यवसाय आधिक आर्जित कर सकता है जैसे प्रबन्धको की योग्यता, शोध सुविधाएँ, पूँजी की मात्रा आदि उसकी मात्रा शक्ति तथा क्षमताएँ कहलाती है | प्रत्येक व्यवसाय की स्वयं में विघमान शक्तियों व क्षमताएँ का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए |

(3) दुर्बलताएँ ( Weaknesses ) – व्यवसाय में कुछ सीमाएँ भी होती है जो दुर्बलताएँ का कारण बनाती है, जैसे कच्चे माल के लिए दूसरे व्यापारी पर निर्भर होना आदि दुर्बलताएँ व्यवसायी के कार्य की सीमा तय कर देती है तथा कभी-कभी हानि का कारण भी बन जाती है |

(4) अवसर ( Opportunities ) – एक व्यवसाय के वातावरण में स्थित सभी अनुकूल परिस्थितियों ही अवसर कहलाती है | ये परिस्थितियाँ ही व्यवसाय को अपने प्रतिद्निद्यो का सामना करने व् स्वयं को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है | प्रत्येक व्यवसाय को यह जानकारी होनी चाहिए की वातावरण द्वारा प्रदत्त अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम है या नहीं |

(5) चुनौतियॉं ( Threats ) – संगठन में विघमान विपरीत परिस्थितियाँ ही व्यवसाय के लिए चुनौतियाँ व समस्याएँ कहलाती है जैसे – क्षम असन्तोष, सरकारी नीतियों में प्रतिकूल परिवर्तन आदि | अत: स्पष्ट है की स्वोट विश्लेषण व्यवसाय के वातावरण को समझने के लिए एक सुव्यवस्थित तरीका है |





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