BCom 1st Year Business Economics Marginal Productivity Theory in Hindi
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सीमान्त उत्पादकता सिध्दान्त्त
Marginal Productivity Theory
प्रश्न 18 – वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिध्दान्त का आलोचनात्मक परीक्षण किजिये |
अथवा
वितरण के सीमांत उत्पादकता सिध्दान्त को समझाइये तथा उसकी सीमाओं को बताइये|
उत्तर:-
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिध्दान्त
(Marginal Productivity Theory of Distribution)
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त राष्ट्रीय आय के वितरण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त इस बात
की व्याख्या करता है कि उत्पादक के साधनों की कीमत किस प्रकार निर्धारित होती है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम जे० बी० क्लार्क ने 1809 में अपनी पुस्तक ‘Distribution of Wealth’ में किया। इसके पश्चात् वान थूनन, विकस्टीड, वालरस तथा ब्रोन आदि ने इस सिद्धान्त को विकसित किया। इस सिद्धान्त की वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या करने का श्रेय मार्शल, श्रीमती जोन रॉबिन्सन तथा हिक्स को दिया जाता है।
अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition)
इस सिद्धान्त के अनुसार एक साधन की कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है। अन्य साधनों को स्थिर रखकर एक साधन की एक अतिरिक्त इकाई के वृद्धि करने से कुल उत्पादन में जितना परिवर्तन होता है, वह उस साधन का सीमान्त उत्पादन कहलाता है। एक उद्यमी किसी साधन को उत्पादन में तब तक लगाता रहेगा, जब तक उसकी सीमान्त उत्पादकता उसकी सीमान्त लागत से अधिक रहती है। वह उस साधन की इकाइयों का तब तक प्रयोग करता रहेगा, जब तक उस साधन का सीमान्त उत्पादन उसकी सीमान्त लागत के बराबर न हो जाये । यदि उस साधन की सीमान्त लागत उसके सीमान्त उत्पादन से अधिक हो जाये,तो उद्यमी उस साधन की ओर अधिक इकाइयों का प्रयोग नहीं करेगा। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक साधन को जो पारिश्रमिक दिया जाता है, वह उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। … प्रो० साइमन्स के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता और उत्पत्ति के साधनों की पूर्ण गतिशीलता की दशाओं में श्रमिक को कार्य पर लगाने से सीमान्त उत्पादन के बराबर ही मजदूरी मिलती है।”
सिद्धान्त की मान्यताएँ
(Assumptions)
यह सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है
(1) यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि साधन की सीमान्त उत्पादकता को मापा जा सकता है।
(2) साधन की सभी इकाइयाँ एक जैसी होती हैं।
(3) उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होता है।
(4) साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।
(5) साधन द्वारा उत्पादित वस्तु के बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।
(6) यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की स्थिति को मानकर चलता हैं।
(7) एक साधन की इकाइयों में परिवर्तन होता रहता है जबकि अन्य साधन स्थिर रहते है
सीमान्त उत्पादकता की माप
(Measurement of Marginal Productivity)
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि सीमान्त उत्पादकता का माप किस प्रकार से किया जायेगा? सीमान्त उत्पादकता को सामान्यतः निम्न तीन प्रकार से मापा जा सकता है
(1) सीमान्त भौतिक उत्पाद या उत्पादकता (Marginal Physical Productivity or MPP) – अन्य साधनों के स्थिर रहने पर किसी साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कल भौतिक उत्पादन में जो वृद्धि होती है, उसे उस साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता कहते हैं। उदाहरणार्थ, 5 श्रमिक किसी वस्तु की 50 इकाइयाँ उत्पन्न करते हैं। यदि एक श्रमिक की वृद्धि होने से कुल उत्पादन बढ़कर 56 इकाई हो जाता है तो 6वें श्रमिक के कारण कुल उत्पादन में 56 – 50 = 6 इकाई की हुई वृद्धि ही MPP कहलायेगी।
(2) सीमान्त आगम उत्पादकता (Marginal Revenue Productivity or MRP) – अन्य साधनों की मात्रा स्थिर रहने पर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल आगम में जो वृद्धि होती है, उसे उस साधन की सीमान्त आगम उत्पादकता (MRP) कहते हैं । सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) को सीमान्त आगम (MR) से गुणा करने पर सीमान्त आगम उत्पादकता (MRP) प्राप्त हो जाती है ।
सूत्रानुसार –
सीमान्त आगम उत्पादकता = सीमान्त भौतिक उत्पादकता x. सीमान्त आगम
MRP = MPP X MR
(3) सीमान्त उत्पादकता का मूल्य (Value of Marginal Product) – सीमान्त उत्पादकता का मूल्य उस राशि का प्रतीक है, जो सीमान्त भौतिक उत्पाद को बाजार में बेचने से प्राप्त होती है। यदि सीमान्त भौतिक उत्पाद (MPP) को वस्तु की कीमत (P) से गुणा कर दिया जाये तो सीमान्त उत्पादकता का मूल्य (VMP) अथवा सीमान्त मूल्य उत्पादकता (VPM) प्राप्त हो जाती है। सूत्रानुसार
सीमान्त उपज का मूल्य = सीमान्त भौतिक उपज x बाजार कीमत
VMP = MPP X P (or AR)
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में P = MR = AR
VMP = MRP
अपूर्ण प्रतियोगिमा की दशा में P # R अथवा P > MR
VMP > MRP
साधन की कीमत निर्धारण अथवा फर्म का सन्तुलन
साधन बाजार में किसी फर्म के सन्तुलन से हमारा अभिप्राय यह जानना है कि एक.फर्म प्रत्येक साधन की कितनी इकाइयों का प्रयोग करती है और उसके लिये उसे कितना मल्य चुकाना पड़ता है ? एक फर्म किसी साधन को उस सीमा तक प्रयोग करती है, जहाँ पर कि उस साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग करने से कुल आगम (MRP) में होने वाली वृद्धि उस अतिरिक्त इकाई की लागत (MFC) के बराबर हो जाती है । अत: किसी साधन की कितनी इकाइयों का प्रयोग किया जाए यह निर्णय लेने YA के लिये फर्म MRP तथा MFC की तुलना करती है। यदि MRP MFC से अधिक होता है, तो ! फर्म साधन की अतिरिक्त इकाई का प्रयोग करके लाभ को बढ़ाएगी, लेकिन यदि MRP, MFC ‘ से कम है,तो फर्म अतिरिक्त इकाइयों का उत्पादन नहीं करेगी,क्योंकि ऐसा करने से उसे हानि होगी। अतः एक फर्म किसी साधन को इकाइयों का प्रयोग उस सीमा तक करेगी जहाँ पर MRP = MFC के है। अब हम श्रम साधन की कीमत निर्धारण के विशेष सन्दर्भ में पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म के सन्तुलन की विवेचना करेंगे।
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म का सन्तुलन – इस स्थिति में श्रम के मूल्य अर्थात् मजदूरी का निर्धारण श्रम की कुल माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है। इस निर्धारित मजदूरी पर फर्म श्रम की जितनी चाहे इकाइयाँ उत्पादन कार्य में लगा सकती है। अत: फर्म के लिये औसत मजदूरी (AW) तथा सीमान्त मजदूरी (MW) वक्र एक समान तथा पड़ी हुई रेखा के रूप में होता है। पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म अधिकतम लाभ उसी समय प्राप्त करेगी, जबकि MRP = MW (MFC) हो जाता है। इस सन्तुलन स्थिति को चित्र के द्वारा स्पष्ट किया गया है।
चित्र द्वारा स्पष्ट है कि E बिन्दु फर्म का सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर MR = MFC = W है। ऐसी दशा में फर्म OW पारिश्रमिक पर साधन की ON मात्रा का प्रयोग करेगी।
अल्पकाल में फर्म को साधन की इकाइयों का प्रयोग करते समय लाभ भी हो सकता है और हानि भी हो सकती है।
प्रस्तुत चित्र में लाभ की स्थिति दिखाई गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है, जहाँ MRP = MFC है। साधन की कीमत = ME, साधन को प्रयुक्त इकाइयाँ = OM | चूँकि ARP’> . AFC, अतः फर्म को PELR के बराबर असामान्य लाभ प्राप्त हो रहा है।
चित्र में हानि की स्थिति दिखाई गयी है। E सन्तुलन बिन्दु है, जहाँ MRP = MFCI E साधन की कीमत =ME, साधन की प्रयुक्त इकाइयाँ = OM । चूंकि ARP < AFC, अतः फर्म को RPEL के बराबर हानि हो रही है।
दीर्घकाल में साधनों का प्रयोग करने पर फर्म को केवल सामान्य लाभ प्राप्त होता है, उसे . 5 न तो असामान्य लाभ मिलता है और न हानि ।
दीर्घकाल में एक फर्म के सन्तुलन के लिए – निम्न दोहरी शर्तों का पूरा होना आवश्यक होता ।
(1) MRP = MFC
(2) ARP = AFC
प्रस्तुत रेखाचित्र के द्वारा इस स्थिति को स्पष्ट किया जा सकता है । इसमें सन्तुलन की दोनों शर्ते पूरी हो रही हैं अर्थात् MRP = MFC तथा ARP = AFC. अर्थात् MRP = MFC = ARP = AFC |
साधन की सिद्धान्त की आलोचनाएँ
(1) यह सिद्धान्त वास्तविक मान्यताओं पर आधारित है।
(2) संयुक्त उत्पादन में किसी एके साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना अत्यन्त कठिन होता है।
(3) इस सिद्धान्त में साधनों की माँग पर ही ध्यान दिया गया है तथा पूर्ति पक्ष की अवहेलना की गई है।
(4) यह सिद्धान्त उत्पत्ति के सभी साधनों के मूल्य निर्धारण की स्पष्ट तथा पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता । उत्पत्ति के कुछ साधन ऐसे होते हैं जिनका पुरस्कार सीमान्त उत्पादन के आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता।
(5) यह सिद्धान्त अल्पकाल में लागू नहीं होता। इस कारण इस सिद्धान्त की व्यवहारिक उपयोगिता बहुत ही सीमित रह जाती है।
(6) उत्पादन के कुछ साधन अविभाज्य होते हैं अर्थात् उन्हें छोटे-छोटे भागों में विभाजित नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 19–“साधन मूल्यों का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है ।” विवेचना कीजिए।
अथवा
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– इस सिद्धान्त को माँग एवं पूर्ति का सिद्धान्त भी कहते हैं। इसके अनुसार, जिस प्रकार किसी वस्तु का मूल्य उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है, उसी प्रकार उत्पादन के विभिन्न साधनों का मूल्य भी उनकी माँग एवं पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है।
साधन की माँग– किसी भी साधन की माँग उसकी सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करती । है । एक फर्म किसी सोधन विशेष को उस सीमा तक ही प्रयुक्त करती है जहाँ तक कि साधन की सीमान्त उत्पादकता (MRP) उसको दिये जाने वाले पुरस्कार अर्थात् उसकी सीमान्त लागत (MFC) से अधिक होती है। जब साधन की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य, उसकी सीमान्त लागत के बराबर हो जाता है तो इसके बाद फर्म उस साधन की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग बन्द कर देती है। इस प्रकार फर्म के लिये सीमान्त उत्पादकता उसकी कीमत निर्धारण की – अधिकतम सीमा होती है।
किसी भी साधन की माँग अनेक बातों से प्रभावित होती है,जैसे कि साधन द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग, साधन की सीमान्त उत्पादकता, अन्य साधनों की कीमत, अन्य साधनों से प्रतिस्थापन क्षमता आदि।
साधन की पूर्ति – साधनों की पूर्ति के लिये, उसकी एक न्यूनतम सीमा होती है, जिससे कम कीमत पर वह साधन विशेष सेवा के लिये तैयार नहीं होगा। इस न्यूनतम सीमा का निर्धारण साधन विशेष के सीमान्त त्याग द्वारा निश्चित होता है । आधुनिक अर्थशास्त्री सीमान्त त्याग की माप अवसर लागत से करते हैं। ।
अवसर लागत – द्रव्य की वह मात्रा होती है जो किसी साधन को दूसरे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग में प्राप्त हो सकती है। एक साधन को वर्तमान कार्य में कम से कम इतनी आय अवश्य प्राप्त होनी चाहिए जितनी की उसे दूसरे सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय में प्राप्त हो सकती है, अन्यथा वह साधन कार्य को छोड़कर दूसरे व्यवसाय में चला जाएगा। इस प्रकार, किसी साधन की पूर्ति कीमत उसकी अवसर लागत के बराबर होती है।
साधनों की पूर्ति भी अनेक घटकों जैसे कि साधन का पुरस्कार, साधन की गतिशीलता. साधन के प्रशिक्षण की लागत, साधन की एक स्थान से दूसरे स्थान के जाने की लागत आदि पर निर्भर करती है।
साधन का मूल्य निर्धारण – साधन के मूल्य का निर्धारण उसकी सीमोन्त उत्पादकता तथा सीमान्त त्याग की क्रमशः उच्चतम तथा निन्नतम सीमाओं के बीच में होता है। साधन का वास्तविक मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ पर साधन की माँग,उसकी पूर्ति के बराबर हो जाती है। इसे रेखाचित्र के द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है।
रेखाचित्र के द्वारा स्पष्ट है कि साधन की माँग तथा पूर्ति E बिन्दु पर एक दूसरे के बराबर है, अत:E सन्तुलन बिन्दु है तथा साधन का मूल्य OP निर्धारित होगा। यदि साधन की कीमत बढ़कर OP1 हो जाती है तो साधन की पूर्ति बढ़कर P1B तथा मांग घटकर P1A रह जाएगी। पूर्ति अधिक होने के कारण कीमत घटेगी तथा पुनः OP पर आ जाएगी। इसी प्रकार यदि साधन की कीमत घटकर OP2 हो जाती है तो साधन की मांग बढ़कर P2T तथा पूर्ति घटकर P2C रह जाएगी। इस स्थिति में में माँग, पूर्ति से अधिक है, अतः साधन की कीमत बढ़ना प्रारम्भ कर देगी तथा पुनः OP के बराबर हो जाएगी। अतः स्पष्ट है कि साधन का सामान्य मूल्य OP ही होगा, जहाँ साधन की माँग तथा पूर्ति दोनों बराबर हैं।
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