BCom 1st Year Business Economics Monopoly in Hindi
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एकाधिकारी
Monopoly
प्रश्न 12-एकाधिकार क्या है ? एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य कैसे निर्धारित होता है? क्या एकाधिकारी मूल्य सदैव प्रतियोगी मूल्य से ऊँचा होत है ?
(2009)
अथवा
एकाधिकार का अर्थ बताइये। इसमें कीमत का निर्धारण कैसे होता है ? (1990 R)
उत्तर–
एकाधिकार का अर्थ एवं परिभाषा
एकाधिकार का अंग्रेजी शब्द ‘Monopoly’ दो शब्दों Mono + Poly से मिलकर बना है । Mono का अर्थ है ‘अकेला’ तथा Poly का अर्थ है ‘उत्पादक’ । इस प्रकार Monopoly का अर्थ अकेले उत्पादक से से है। दूसरे शब्दों में, एकाधिकार बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें वस्तु का एक ही उत्पादक होता है तथा वस्तु की समस्त पूर्ति पर उसका पूर्ण नियन्त्रण होता है । एकाधिकारी बाजार में वस्तु का एक ही उत्पादक होने के कारण फर्म तथा उद्योग में कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् एकाधिकार में उद्योग ही फर्म है अथवा फर्म ही उद्योग है। एकाधिकार उसी वस्तु के सम्बन्ध में हो सकता है जिसकी कोई निकट स्थानापन्न वस्तु नहीं होती। इसके कारण वस्तु की कीमत में होने वाला परिवर्तन अन्य वस्तुओं की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता है। विशुद्ध एकाधिकार की स्थिति व्यावहारिक जीवन में सामान्यतः नहीं पाई जाती है।
स्टोनियर एवं हेग के अनुसार, “एकाधिकार उस बाजार स्थिति को कहते हैं जिसमें किसी वस्तु का केवल एक ही उत्पादक होता है और उसका अपनी वस्तु की पूर्ति पर, जिसका कोई निकट स्थानापन्न नहीं होता, पूर्ण नियन्त्रण होता है।”
वाट्सन के अनुसार, “एकाधिकारी एक वस्तु का अकेला उत्पादक होता है, जिसकी कोई निकट स्थानापन्न वस्तु नहीं होतो है।”
एकाधिकार की विशेषताएँ
(Characteristics of Monopoly)
(1) एकाधिकारी बाजार में वस्तु का एक मात्र उत्पादक अथवा विक्रेता होता है।
(2) एकाधिकारी द्वारा उत्पादित वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न नहीं होता है।
(3) एकाधिकार में फर्म एवं उद्योग एक-दूसरे के पर्यायवाची होते हैं।
(4) उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रभावपूर्ण रुकावटें होती हैं।
(5) एकाधिकारी का अपनी वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है।
(6) बाजार में अकेला उत्पादक अथवा विक्रेता होने के कारण एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत स्वयं तय करता है।
एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण
(Price Determination under Monopoly)
एकाधिकार में किसी वस्तु का मूल्य निर्धारण दो विधियों के आधार पर किया जाता है
(1) कुल आगम तथा कुल लागत विधि (Total Revenue and Total Cost Method)
(2) सीमान्त आगम एवं सीमान्त लागत विधि (Marginal Revenue and Marginal Cost Method)
(1) कुल आगम तथा कुल लागत रोति (Total Revenue and Total Cost Method) – इस रीति का प्रतिपादन मार्शल ने किया है। इस रीति के अनुसार, जिस · स्थान पर कुल लागत व कुल आगम के मध्य दूरी
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अधिकतम होती है, वहीं पर साम्य की स्थिति होती है अर्थात् अधिकतम लाभ प्राप्त होता है।
चित्र में साम्य की दशा में फर्म वस्तु की OQ मात्रा का उत्पादन करेगी, क्योंकि इस बिन्दु पर फर्म को EQ – FQ = FE अधिकतम लाभ प्राप्त हो रहा है।
(2) सीमान्त आगम एवं सीमान्त लागत विधि (Marginal Revenue and Marginal Cost Method)-इस रीति का प्रतिपादन श्रीमती जॉन रॉबिन्सन ने किया है। उनके अनुसार, एकाधिकारी को अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिये सदैव सीमान्त आय और सीमान्त व्यय को बराबर करने का प्रयत्न करना चाहिये। जिस बिन्दु पर ये दोनों बराबर हो जाती हैं, वही मूल्य एकाधिकारी को निश्चित कर देना चाहिये
यह मूल्य ऐसा होगा जहाँ एकाधिकारी को अधिकतम लाभ प्राप्त होगा। इसके बाद भी यदि एकाधिकारी उत्पादन को बढ़ाता है तो सीमान्त आय, सीमान्त लागत से कम हो जायेगी, जिससे एकाधिकारी को हानि होगी। इस विधि को चित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।
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संलग्न चित्र में MR एकाधिकारी फर्म की सीमान्त आगम रेखा तथा AR औसत आगम रेखा अथवा माँग रेखा है। इसे कीमतYA रेखा भी कहते हैं। MC सीमान्त लागत वक्र है | MR व MC एक-दूसरे को E बिन्दु पर काट रहे हैं। यह एकाधिकारी का साम्य बिन्दु है। इस अवस्था में ही एकाधिकारी का लाभ अधिकतम होता है। एकाधिकारी OQ मात्रा का उत्पादन व विक्रय करेगा तथा उसकी वस्तु का मूल्य QP के बराबर होगा। E बिन्दु से कम या ज्यादा उत्पादन करना उसके हित में है नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से उसके कुल लाभ में कमी आयेगी। साम्य बिन्दु से । पहले, जैसा कि चित्र से स्पष्ट है MR, MC से ज्यादा है। अतः एकाधिकारी अपने कुल लाभ को बढ़ाने के लिए उत्पादन को बढ़ायेगा तथा इस बिन्दु से आगे MC, MR से ज्यादा है। इस कारण एकाधिकारी आगे नहीं जायेगा, क्योंकि आगे जाने से सीमान्त इकाई की लागत भी नहीं निकल पाती है । स्पष्ट है कि ‘E’ परिवर्तन रहित बिन्दु है। इससे आगे-पीछे जाना लाभप्रद नहीं है।
एकाधिकारी सान्य की सामान्य विवेचना करने के बाद अब अल्पकाल.एवं दीर्घकाल में एकाधिकारी मूल्य एवं उत्पादन का निर्धारण करने की प्रक्रिया का विवेचन करेंगे।
अल्पकाल में एकाधिकारी साम्य अथवा मूल्य एवं उत्पादन निर्धारण
(Equilibrium or Price and Output Determination under Monopoly in the Short Period)
अल्पकाल वह समयाविधि होती है जिसमें कि उत्पादक अपनी पूर्ति को केवल अपनी वर्तमान उत्पादन क्षमता तक ही बढ़ा सकता है । उत्पादन क्षमता में कमी अथवा वृद्धि के लिए उत्पादक के पास पर्याप्त समय नहीं होता है। दूसरी ओर माँग में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। एकाधिकार की अवस्था में भी एकाधिकारी अल्पकाल में पूर्ति को माँग के अनुरूप करने । ‘में पूरी तरह समर्थ नहीं होता है। वह केवल परिवर्तनशील साधनों की मात्रा को घटा-बढ़ा कर एक सीमा तक ही. पूर्ति को घटा-बढ़ा सकता है । इसका परिणाम यह होता है कि अल्पकाल में मूल्य को प्रभावित करने में माँग ज्यादा प्रभावित भूमिका अदा करती है। इस स्थिति के कारण एकाधिकारी अल्पकाल में लाभ की स्थिति में भी हो सकता है तथा हानि की स्थिति में भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि वह केवल अपनी लागत को ही निकाल पाये अर्थात् वह सामान्य लाभ की स्थिति में भी हो सकता है। कुछ लोग समझते हैं कि एकाधिकारी हानि की स्थिति में तो हो ही नहीं सकता है, लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। अल्पकाल में मांग कमजोर होने पर वह हानि की स्थिति में भी हो सकता है।
उपरोक्त तीनों स्थितियों को चित्रों द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है।
(1) लाभ की अवस्था– रेखाचित्र में एकाधिकारी का अल्पकालीन साम्य दिखाया
गया है, इस अवस्था में फर्म लाभ की स्थिति में है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि एकाधिकारी की माँग, पूर्ति से ज्यादा होने के कारण वह ऊँचे मूल्य प्राप्त करने में सफल हो रहा है। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है । E बिन्दु साम्य बिन्दु है जहाँ पर MR व MC रेखाएँ एक-दूसरे को काट रही हैं। उकसा साम्य उत्पादन OQ के बराबर है । उसे प्रति इकाई OP कीमत मिल रही है जबकि उसकी प्रति इकाई लागत QT के बराबर है जोकि OP से कम है। उसे प्रत्येक इकाई पर PT के बराबर लाभ हो रहा है तथा उसका कुल लाभ PTMN के बराबर है।
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(2) सामान्य लाभ की अवस्था – चित्र द्वारा सामान्य लाभ की स्थिति को प्रदर्शित किया गया है । चित्र में E साम्य बिन्दु है, जहाँ पर सीमान्त लागत एवं सीमान्त आगम दोनों बराबर हैं। इस बिन्दु पर ही एकाधिकारी उत्पादन निश्चित करता है, जिसे साम्य मात्रा कहते हैं। इस उत्पादन स्तर पर फर्म की औसत लागत (AC), औसत आगम (AR) अथवा कीमत के बराबर है, जोकि OR के तुल्य है। एकाधिकारी फर्म की कुल आगम 45 भी उतना ही है अर्थात् फर्म केवल अपनी लागत निकालने में समर्थ हो रही है। कुल लागत OQRP के बराबर है तथा सामान्य लाभ लागत का अंश होता है, अतः फर्म को सामान्य लाभ ही प्राप्त हो रहा है।
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(3) हानि की अवस्था– चित्र में हानि की स्थिति को दिखाया गया है। में एकाधिकारा का आसत लागत उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर उसकी औसत आय अथवा कीमत से अधिक होती है। इस कारण उसे हानि उठानी पड़ती है । एकाधिकारी फर्म अल्पकाल में केवल यह प्रयल करती है कि किस प्रकार इस हानि. को न्यूनतम किया जाए। इसके लिए वह उत्पादन को उस स्तर पर निर्धारित करती है, जहाँ सीमान्त लागत व सीमान्त आगम बराबर होते हैं। इस उत्पादन स्तर पर ही हानि न्यूनतम होती है।
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चित्र में E बिन्दु साम्य बिन्दु है, जहाँ MR = MC के हैं। बिन्दु में X-अक्ष पर लम्ब डालने से साम्य मात्रा 00 ज्ञात हो जाती है । इस अवस्था में एकाधिकारी फर्म को कीमत QR के बराबर मिल रही है जबकि उसकी औसत लागत QC के बराबर है । QC, OR से ज्यादा है; अत: उसे प्रत्येक इकाई पर RC के बराबर हानि हो रही है तथा उसकी कुल हानि 00 x RC के बराबर है। उसकी कुल हानि को RCMN आयत द्वारा दर्शाया गया है।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि एकाधिकारी हानि की अवस्था में उत्पादन क्यों करेगा? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि अल्पकाल में लागतें दो प्रकार की होती हैं-स्थिरएवं परिवर्तनशील। स्थिर लागतें उत्पादन करने व न करने की। दोनों ही अवस्थाओं में समान रूप से आती हैं। जबकि परिवर्तनशील लागतें केवल उत्पादन करने पर ही आती हैं। यदि एकाधिकारी अल्पकाल में परिवर्तशील लागतों को वसूल करने में समर्थ हो जाता है तो वह उत्पादन करता रहेगा। यह उसका उत्पादन बंद बिन्दु (shut-down Point) होता है । इस स्थिति को रेखाचित्र में दिखाया गया है। चित्र में एकाधिकारी साम्य की अवस्था में परिवर्तनशील लागत को तो वसूल करने में समर्थ है ही.स्थिर लागत का भी एक अंश वसल कर रहा है। अत: उत्पादन न करने पर उसे जहाँ स्थिर लागत के बराबर हानि होती, उत्पादन करने पर उससे कम हानि हो रही है; अतः उत्पादन करना ही उसके हित में है। एकाधिकारी की अधिकतम हानि स्थिर लागत AC के बराबर हो सकती है, लेकिन उत्पादन करने पर उसे केवल RC के बराबर ही हानि हो रही है और वह AR के बराबर स्थिर लागत वसूलने में भी समर्थ हो रहा है। उपरोक्त से स्पष्ट है कि एकाधिकारी के लिए हानि की अवस्था में भी उत्पादन करना लाभदायक है।
दीर्घकाल में मूल्य एवं उत्पादन निर्धारण
(Price and Output Determination in the Long Period)
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दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म को इतना समय मिल जाता है कि वह अपने संयंत्र के पैमाने में परिवर्तन करके उत्पादन की मात्रा को अपनी इच्छानुसार घटा-बढ़ा सकती है, अत: वह अपने उत्पादन को इस प्रकार व्यवस्थित करती है जिससे कि उसे वस्तु की बिक्री से लाभ हो । उसकी औसत आगम सदैव औसत लागत FY से अधिक होती है । इस प्रकार दीर्घकाल में फर्म अतिरिक्त लाभ प्राप्त करती है। दीर्घकालीन साम्य की स्थिति को रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है। चित्र में LAC दीर्घकालीन औसत लागत वक्र, LMC दीर्घकालीन सीमान्त । लागत वक्र, LMR दीर्घकालीन सीमान्त आगम वक्र तथा LAR दीर्घकालीन औसत आगम वक्र है। LMR व LMC दोनों एक-दूसरे को E बिन्दु पर काट रहे हैं। यह एकाधिकारी फर्म का दीर्घकालीन साम्य बिन्दु है। इस बिन्दु पर एकाधिकारी OQ मात्रा का उत्पादन एवं विक्रय करेगा। इस उत्पादन स्तर पर फर्म की औसत लागत QC के बराबर है तथा औसत आगम OT के बराबर। फर्म को प्रत्येक इकाई पर CT के बराबर लाभ हो रहा है तथा उसका कुल लाभ CTMN के बराबर है। इस स्तर पर फर्म का कुल आगम OMTQ के बराबर है तथा बेचे गये उत्पादन की कुल लागत ONCQ के बराबर है । दोनों का अन्तर NMTC. ही कुल लाभ है, जिसे चिन्हांकित करके दर्शाया गया है।
क्या एकाधिकारी कीमत सदैव प्रतियोगी कीमत से ऊँची होती है?
(Is Monopoly Price always Higher than Competitive Price ?)
एक एकाधिकारी अपने क्षेत्र में अकेला विक्रेता होता है, उसका पूर्ति पर पूरा नियन्त्रण होता है और वह कीमत को प्रभावित करने की स्थिति में होने के कारण अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए सदैव प्रयन्तशील रहता है, अत: यह मान लिया जाता है कि एकाधिकारी कीमत, प्रतियोगी कीमत से सदैव ऊँची होती है, किन्तु यह पूरी तरह सत्य नहीं है । सामान्यत: एकाधिकारी कीमत प्रतियोगी कीमत से सदैव ऊँची ही होती है, किन्तु निम्न दशाओं में एकाधिकारी को अपनी कीमत प्रतियोगी कीमत से नीची रखनी पड़ती है
(1) जब वस्तु की माँग लोचदार है और उसका उत्पादन लागत ह्रास नियम के अन्तर्गत हो रहा है अर्थात् जब AC और MC वक्र तेजी से नीचे गिर रहे हैं।
(2) जब किसी क्षेत्र में उत्पत्ति के बड़े पैमाने की बचतों के आधार पर एकाधिकारी स्थिति प्राप्त की गई है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
(Short Answer Questions)
प्रश्न 1-“एकाधिकार अमिश्रित वरदान नहीं है।” स्पष्ट कीजिए।
“Monopoly is not an unmixed blessing.” Explain. (2006; 2004 Back)
उत्तर– एकाधिकार के परिणाम अच्छे व बुरे दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।
एकाधिकार के लाभ
एकाधिकार के कुछ महत्त्वपूर्ण लाभ इस प्रकार हैं
(1) बड़े पैमाने के उत्पादन की मितव्ययिताएँ– प्रायः एकाधिकारी उपक्रमों में उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, जिससे अनेक आन्तरिक एवं बाह्य बचतें प्राप्त होती हैं।
(2) नीची विक्रय लागते– एकाधिकारी स्थिति में प्रतिस्पर्धा या तो पूर्णरूप से समाप्त हो जाती है या सीमित हो जाती है। फलस्वरूप विज्ञापन और विक्रय पर किये जाने वाले अनावश्यक व्यय कम हो जाते हैं।
(3) साधनों का अनुकूलतम प्रयोग– एकाधिकारी उपक्रमों में उत्पत्ति के सीमित साधनों का अनुकूलतम आबंटन होता है । फलस्वरूप देश का आर्थिक विकास तेजी के साथ होता है।
(4) अनुसन्धान को प्रोत्साहन– एकाधिकारी उपक्रम आसानी से अनुसन्धान कार्यों के लिये वित्त एवं अन्य आवश्यक साधन उपलब्ध करा सकते हैं, जिससे अनुसन्धान कार्यों को प्रोत्साहन मिलता है।
(5) व्यावसायिक स्थायित्व– एकाधिकारी वस्तुओं अथवा सेवाओं की माँग और पूर्ति में उचित सामंजस्य स्थापित करने में सफल हो जाता है, जिससे मन्दी-तेजी के कुचक्र नहीं चलते।
(6) सार्वजनिक उपयोगिता वाली सेवाओं के लिए उपयुक्त – सार्वजनिक सेवाओं जैसे टेलीफोन, डाक-सेवाएँ, रेल, जल तथा विद्युत आपूर्ति आदि क्षेत्रों में एकाधिकार स्थापित होने से कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। वस्तुतः इनमें सार्वजनिक एकाधिकार ही उपयुक्त रहता है।
(7) नीचा विक्रय मूल्य– बड़े पैमाने की बचतों एवं नीची विक्रय लागतों के कारण एक ” एकाधिकारी अपनी वस्तु का नीचा विक्रय मूल्य रखकर उपभोक्ताओं को लाभान्वित कर सकता है।
एकाधिकार के दुष्परिणाम (दोष या बुरे प्रभाव या हानियाँ)
एकाधिकार के मुख्य दोष इस प्रकार हैं
(1) उपभोक्ताओं का शोषण– एक एकाधिकारी ऐसी वस्तु का उत्पादन एवं विक्रय करता है, जिसके बाजार में निकट प्रतिस्थापन्न उपलब्ध नहीं होते हैं, अतः वह अपनी वस्तु का अधिक ऊँचा मूल्य वसूल करके उपभोक्ताओं का शोषण करता है । एकाधिकारी मूल्य-विभेद की नीति अपना कर क्रेताओं के साथ भेदभाव भी कर सकता है तथा अनेक बार वह वस्तु की कृत्रिम कमी उत्पन्न कर देता है।
(2) श्रमिकों का शोषण – एकाधिकारी केवल उपभोक्ताओं का ही शोषण नहीं करता है, बल्कि वह श्रमिकों को भी कम मजदूरी देकर उनका शोषण करता है, क्योंकि प्रतियोगी उद्योग न होने पर श्रमिक उद्योग छोड़कर अन्य कहीं कार्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
(3) आर्थिक सत्ता का केन्द्रीयकरण – एकाधिकार से आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण को बढ़ावा मिलता है, जिससे समाज में धन का वितरण असमान होने लगता है।
(4) नये उपक्रमों में बाधा– एक एकाधिकारी अपने एकाधिकार को बनाये रखने के लिए नये उपक्रमों की स्थापना में हर सम्भव कठिनाइयाँ उत्पन्न करता है तथा उन्हें हतोत्साहित करता है।
(5) तकनीकी विकास में बाधक– एकाधिकार की स्थिति के अन्तर्गत चूंकि प्रतिस्पर्धा का अभाव होता है, इसलिये इस स्थिति में वस्तु की किस्म में सुधार लाने अथवा तकनीकी विकास एवं अनुसन्धान करने के लिए पर्याप्त प्रेरणा नहीं मिलती।
(6) भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन – एकाधिकारी अपनी निरंकुश स्थिति बनाये रखने की दृष्टि से राजनीतिज्ञों को चन्दे देते हैं, जिससे आर्थिक ओर राजनैतिक भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एकाधिकार अमिश्रित वरदान नहीं है क्योंकि एकाधिकार.. के अच्छे एवं बुरे दोनों तरह के प्रभाव होते हैं।
प्रश्न 2-एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले तत्त्वों का विवेचन करो
Describe the factors limiting the monopoly power. (2004)
उत्तर-
एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले तत्त्व
अथवा
एकाधिकारी शक्ति की सीमायें
यद्यपि एकाधिकारी फर्म का वस्तु विशेष की पूर्ति तथा उसके मूल्य पर प्रभावशाली नियन्त्रण होता है, परन्तु वास्तव में वह एक सीमा तक ही वस्तु की कीमत को ऊँचा रख सकता
है। संक्षेप में, एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले मुख्य तत्त्व इस प्रकार हैं
(1) सम्भावित प्रतियोगिता का भय – यद्यपि एकाधिकारी को प्रत्यक्ष प्रतियोगिता का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन उसको सदैव यह भय बना रहता है कि कहीं उसके नये प्रतिद्वन्दी उत्पन्न हो जायें। इस प्रतियोगिता के भय के कारण ही एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत अधिक ऊँची नहीं रखता है, क्योंकि ऊँची कीमत निर्धारित करने पर उस उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश की सम्भावना बढ़ जाती है।
(2) स्थानापन्न वस्तुओं का भय – एकाधिकारी द्वारा अपनी वस्तु की बहुत ऊँची कीमत रखने पर बाजार में उस वस्तु के निकट स्थानापन्न विकसित होने लगते हैं। चूंकि ऐसी स्थिति में एकाधिकारी की वस्तु की माँग कम हो जाती है, इसलिये एकाधिकारी इस भय से अपनी वस्तु की कीमत बहुत ऊँची नहीं रख सकता।
(3) सरकारी हस्तक्षेप का भय – जब सरकार यह देखती है कि एकाधिकारी द्वारा निर्धारित , ऊँची कीमत से उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है, तो सरकार सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुए या तो एकाधिकारी वस्तु की कीमत स्वयं निर्धारित कर देती है अथवा एकाधिकारी फर्म को अपने अधिकार में कर लेती हैं। अतः सरकारी हस्तक्षेप के भय के कारण एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत बहुत ऊँची नहीं रखता ।
(4) उपभोक्ताओं द्वारा बहिष्कार– एकाधिकारी इसलिए भी मनमानी कीमत नहीं ले पाता क्योंकि कीमत के अत्याधिक ऊँचा होने पर उपभोक्ता अप्रसन्न हो जाते हैं और वे उस वस्तु के उपयोग का बहिष्कार कर देते हैं।
(5) वस्तु की माँग की लोच– एकाधिकारी फर्म अपनी वस्तु की कीमत निश्चित करते … समय उसकी माँग की लोच का भी ध्यान रखती है। यदि उसकी वस्तु की माँग लोचदार है, तो एकाधिकारी मनमानी कीमत निश्चित नहीं कर सकता, बल्कि ऐसी स्थिति में उसे अपनी .. – वस्तु की अपेक्षाकृत नीची कीमत ही निर्धारित करनी पड़ती है
प्रश्न 3-मूल्य विभेद से आप क्या समझते हैं? (2004 Back)
What do you understand by price discrimination?
उत्तर-
मूल्य विभेद अथवा विभेदात्मक एकाधिकार
(Discriminating Monopoly or Price Discrimination)
एकाधिकारी का उद्देश्य अपने कुल लाभ को अधिकतम करना होता है । इसके लिए वह सदैव ऊँची से ऊँची कीमत प्राप्त करना चाहता है तथा अधिक से अधिक वस्तु की बिक्री करना चाहता है । प्रायः एकाधिकारी अपनी वस्तु की एक ही कीमत निश्चित करके अपने लाभ को अधिकतम नहीं कर सकता क्योंकि उस कीमत पर बहुत से क्रेता उस वस्तु को क्रय नहीं करना चाहेंगे। अतः वह अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए एक ही वस्तु के लिये विभिन्न व्यक्तियों से या विभिन्न बाजारों (स्थानों) पर भिन्न-भिन्न कीमत वसूल करता है। एकाधिकारी के इसी व्यवहार को अर्थशास्त्री ‘मूल्य विभेद’ अथवा विभेदात्मक एकाधिकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में,जब एकाधिकारी अपनी एक ही वस्तु के लिये विभिन्न व्यक्तियों से या विभिन्न बाजारों (स्थानों) पर भिन्न-भिन्न कीमत वसूल करता है, तो इस प्रक्रिया को मूल्य विभेद या विभेदात्मक एकाधिकार कहते हैं। उदाहरण के लिए, विद्युत कम्पनियाँ बिजली को घरेलू उपयोग की अपेक्षा औद्योगिक उपयोग के लिए सस्ती दरों पर देती हैं।
श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “एक ही नियन्त्रण के अन्तर्गत उत्पादित एक ही वस्तु को विभिन्न क्रेताओं को भिन्न-भिन्न कीमतों पर बेचने की प्रक्रिया को कीमत-विभेद कहा जाता
प्रोफेसर स्टिगलर के अनुसार, “समान वस्तु के लिए दो या दो से अधिक कीमतें वसूल करने को कीमत-विभेद कहते हैं ।”
मूल्य विभेद का वर्गीकरण (स्वरूप या प्रकार)
(1) व्यक्तिगत विभेद– जब एक ही वस्तु या सेवा के लिए भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से अलग-अलग कीमतें वसूल की जाती हैं, तो इसे व्यक्तिगत विभेद कहते हैं । उदाहरण के लिए. डाक्टर द्वारा अमीर से अधिक एवं गरीब से कम फीस लेना व्यक्तिगत विभेद कहलायेगा।
(2) स्थान विभेद– जब एकाधिकारी अपनी वस्तु के लिए विभिन्न स्थानों या क्षेत्रों में अलग-अलग मूल्य वसूल करता है, तो उसे स्थान विभेद कहते हैं। उदाहरण के लिए, घरेलू बाजार में अधिक तथा विदेशी बाजार में कम मूल्य लिया जा सकता है। एकाधिकारी सम्पूर्ण देश को विभिन्न क्षेत्रों में बाँटकर विभिन्न क्षेत्रों के लिए विभिन्न मूल्य निर्धारित कर सकता
है।
.
(3) व्यावसायिक विभेद या प्रयोग विभेद– जब कोई एकाधिकारी अपनी वस्तु या सेवा के लिए विभिन्न प्रयोगों में अलग-अलग मूल्य वसूल करता है, तो इसे व्यावसायिक विभेद या प्रयोग विभेद कहते हैं। उदाहरण के लिए, बिजली बोर्ड कृषि, उद्योग तथा घरेलू प्रयोग के लिए अलग-अलग विद्युत दरें वसूल करते हैं।
(4) समय विभेद – जब एकाधिकारी एक ही वस्तु या सेवा के लिए विभिन्न समयों पर विभिन्न मूल्य वसूल करता है, तो उसे समय विभेद कहते हैं । उदाहरण के लिए, रात्रि के समय नीची दर से टेलीफोन सेवा प्रदान करना अथवा ऑफ सीजन के दौरान नीचा मूल्य रखना।
मूल्य विभेद की अनिवार्य शर्ते
(Essential conditions of Price Discrimination)
(1) मूल्य विभेद के लिए सबसे अनिवार्य दशा यह है कि मूल्य विभेद करने वाली फर्म एकाधिकारी हों अथवा कुछ प्रतियोगी फर्मे हों, तो ऐसी परिस्थिति में उनके बीच समझौता हो कि वे एक ही मूल्य नीति का पालन करेंगी।
(2) बाजार अनेक भागों में विभाजित होना चाहिए, जिससे एकाधिकारी को यह सुविधा मिल सके कि वह विभिन्न बाजारों में क्रेताओं से अलग-अलग मूल्य प्राप्त कर सके।
(3) विभिन्न बाजारों में वस्तु की माँग की लोच अलग-अलग हो । यदि दो बाजारों में माँग की लोच समान हो, तो सीमान्त आय एवं मूल्य समान होगा। यदि लोच में भिन्नता हो तो कम लोचदार माँग वाले बाजार में एकाधिकारी ऊँचा मूल्य तथा अधिक लोचदार माँग वाले. बाजार में कम मूल्य ले सकने में समर्थ होगा।
(4) मूल्य विभेद के लिए यह भी अनिवार्य है कि जो वस्तु एक बाजार से क्रय की जाय वह पुनः दूसरे बाजार में बेची न जाय क्योंकि यदि यह सम्भव होगा, तब सस्ते बाजार से वस्तु महँगे बाजार में जायेंगी और मूल्य विभेद नहीं हो पायेगा।
(5) मूल्य विभेद के लिए यह भी अनिवार्य है कि विभिन्न क्रेताओं में सन्देशवाहन का अभाव हो। एक ग्राहक को दूसरे ग्राहक से यह पता नहीं लगे कि दूसरे ग्राहकों से कितना मूल्य लिया गया है।
Business Economics Monopoly Notes
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