Pricing Bcom Notes

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Pricing Bcom Notes:- In this post, we will give you notes of Principal of Marketing of BCom 3rd year English and
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मूल्य निर्धारण (Pricing)

 

मूल्य निर्धारण का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Price Determination)

विपणन प्रबन्ध के निर्णयों में मूल्य निर्धारण अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि मूल्य निर्धारण व्यावसायिक उपक्रम की प्रतियोगी स्थिति एवं उसके बाजार अंश को प्रभावित करते हैं। कीमत निर्णय से ही व्यावसायिक उपक्रम के कुल आगम और शुद्ध लाभ प्रभावित होते हैं। इसके अतिरिक्त मूल्य निर्धारण से विक्रय एवं विज्ञापन संवर्द्धन कार्यक्रम भी प्रभावित होते हैं। अतः विपणन प्रबन्धक को उत्पाद का मूल्य निर्धारण काफी सोच-विचार करके करना चाहिए।

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मूल्य निर्धारण को प्रभावित करने वाले घटक (Factors Affecting Price Determination)

(1) उत्पाद की लागत (Cost of the Product) – किसी वस्तु की लागत हो उस वस्तु के मूल्य निर्धारण को सर्वाधिक प्रभावित करती है। एक फर्म द्वारा मूल्य निर्धारित करते समय निम्नलिखित लागतों पर विचार करना चाहिए।

(i) स्थायी लागत (Fixed Cost) – स्थायी लागत का सम्बन्ध उत्पादन की मात्रा से न होकर एक निश्चित अवधि से होता है। यह लागत उत्पादन के घटने अथवा बढ़ने के साथ परिवर्तित नहीं होती है, जैसे भूमि व भवन का कर एवं किराया, वेतन, हास आदि।

(ii) परिवर्तनशील लागत (Variable Cost) – परिवर्तनशील लागत का उत्पादन की मात्रा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता है अर्थात् ये लागतें उत्पादन की मात्रा व बिक्री के अनुसार उसी अनुपात में घटती-बढ़ती रहती हैं, जैसे कच्चा माल, प्रत्यक्ष मजदूरी, विद्युत व्यय, भण्डारण व्यय आदि।

(iii) संवृद्धि लागत (Incrermental Cost) – उत्पाद को एक स्तर से आगे के स्तर पर ले जाने के सम्बन्ध में जो अतिरिक्त लागत आती हैं, उसे संवृद्धि लागत कहते हैं। अतिरिक्त माल का उत्पादन तभी किया जाता है जबकि उससे प्राप्त होने वाली आय उसकी संवृद्धि लागत से अधिक होती है।

जिस बिन्दु पर उत्पाद की कुल लागत उसके विक्रय मूल्य के बराबर होती है उस स्थिति को सम-विच्छेद बिन्दु (Break even point) कहा जाता है। यह बिन्दु उत्पाद की उस मात्रा को बताता है जिसके विक्रय पर संस्था को न तो लाभ होता है न हानि।

(2) बाजार (Market) – अनुकूलतम मूल्य के चुनाव में बाजार ज्ञान से भी सहायता मिलती है क्योंकि मूल्य निर्धारण को विभिन्न बाजार घटक प्रभावित करते हैं। प्रमुख बाजार घटक निम्नलिखित हैं –

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(i) उत्पाद की उत्पाद जीवन चक्र में अवस्था (Stage of Life Cycle of the Product) – कीमत निर्धारण वस्तु की जीवन चक्र अवस्था (स्थिति) पर निर्भर करता है। वस्तु की प्रारम्भिक या प्रस्तुतीकरण अवस्था में फर्म या संस्था को वस्तु का मूल्य कम रखना चाहिए। उत्पाद बाजार वृद्धि की अवस्था में मूल्य स्थिर रखना चाहिए और वस्तु की उत्तरोत्तर अवस्थाओं में बाजार में प्रतिस्पर्द्धा आ जाते हैं, अत: फर्म को इन अवस्थाओं में बाजार विस्तार के लिये कीमतों में कमी करनी पड़ती है।

(ii) उत्पाद विभिन्नीकरण (Product Differentiation) वस्तु का बाजार उनकी कीमत के स्थान पर उत्पाद की विभिन्नताओं पर अधिक निर्भर करता है। अतः ऐसी स्थिति में उत्पाद में रंग, आकार, वैकल्पिक प्रयोग आदि विभिन्नताएँ उत्पन्न कर दी जाती है जिससे कि अधिक से अधिक ग्राहकों को आकर्षित किया जा सके।

(iii) उपभोक्ताओं के क्रय प्रारूप – कीमत निर्धारण में उपभोक्ताओं की वस्तु क्रय करने की आदत एवं तरीकों आदि का भी प्रभाव पड़ता है। यदि किसी वस्तु की क्रय बारम्बारता अधिक है तो ऐसी वस्तु को निम्न लाभ सीमा पर बेचा जाना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति में निम्न लाभ सीमा होते हुए भी कुल विक्रय शीघ्र और अधिक होने के कारण कुल लाभ की मात्रा अधिक हो जाती है।

(iv) उत्पाद की माँग (Demand of the Product) – मूल्य निर्धारण में उत्पाद की माँग प्रायः आधारशिला का काम करती है उत्पाद की माँग पाँच प्रकार की होती है—

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(अ) पूर्णतया लोचदार माँग (Perfectly Elastic Demand) – जब किसी वस्तु के मूल्य में अत्यन्त सूक्ष्म परिवर्तन होने पर उसकी माँग में बहुत अधिक वृद्धि या कमी हो जाती है तो वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार कहलाती है।

(ब) अत्यधिक लोचदार माँग (Highly Elastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग में परिवर्तन उसके मूल्य परिवर्तनों के अनुपात से अधिक है तो उसकी माँग अधिक लोचदार मानी जाती है।

(स) लोचदार माँग (Elastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग में परिवर्तन ठीक उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ है तो वस्तु की माँग लोचदार कहलाती है।

(द) बेलोचदार माँग (Inelastic Demand) – जब किसी वस्तु की माँग में अनुपातिक परिवर्तन उस वस्तु के मूल्य के अनुपातिक परिवर्तन से कम होता है तो ऐसी स्थिति में उस वस्तु की माँग को बेलोचदार माँग कहते हैं।

(ई) पूर्णतया बेलोचदार माँग (Perfectly Inelastic Demand) – जब किसी वस्तु के मूल्यों में भारी कमी अथवा वृद्धि होने पर भी उसकी माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता तो ऐसी स्थिति में उस वस्तु की माँग पूर्णतया बेलोचदार कहलाती है।

(v) प्रतियोगिता (Competition) – प्रतिस्पर्द्धियों की नीति, कोमत नीति को प्रभावित करती है। अधिकांश निर्माता अपनी वस्तु की कीमत प्रतिस्पर्द्धा में आने वाले अन्य निर्माताओं की वस्तु को देखते हुए निश्चित करते हैं। इसके अतिरिक्त वे कीमत निर्धारण करते समय प्रतिस्पर्द्धियों की वस्तु की किस्म को भी ध्यान में रखते हैं। यदि उनकी वस्तु की किस्म अच्छी है या संस्था की ख्याति अच्छी है। तो अपनी वस्तु की कीमत अधिक निर्धारित कर सकते हैं।

(vi) व्यापार परम्पराएँ (Trade Customs) – कुछ वस्तुओं का मूल्य व्यापार परम्पराओं से भी प्रभावित होता है। ऐसे मूल्यों को परम्परागत मूल्य के नाम से सम्बोधित किया जाता है। उदाहरणार्थ एक टॉफी या कुल्फी का मूल्य 50 पैसे प्रायः परम्परागत मूल्य बन गया है। अतः उत्पाद की किस्म में कमी करके या आकार को छोटा करके भी परम्परागत मूल्य का पालन करना पड़ता है।

(vii) वितरण वाहिकाएँ (Distribution Channels) – वितरण वाहिका सम्बन्धी नीति भी कीमत निर्धारण पर प्रभाव डालती है। यदि ऐसी वितरण वाहिका का चयन किया जाता है जिससे मध्यस्थों द्वारा वस्तु विक्रय करने के लिए स्कन्ध, विज्ञापन आदि के लिए अधिक लागते वहन करनी पड़ती है तो ऐसी स्थिति में निर्माता को वस्तु के फुटकर मूल्य अधिक निर्धारित करने पड़ते हैं। इसके विपरीत यदि मध्यस्थों द्वारा वस्तु के विक्रय करने के लिए विपणन लागतों को वहन नहीं करना पड़ता है निर्माता वस्तु की कीमत कम निर्धारित कर सकता है।

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(3) सन्नियम (Legislation) – आधुनिक समय में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा पारित अधिनियम या कानून भी मूल्य निर्धारण में सहायता करते हैं। भारत में भी सरकार प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से मूल्यों पर नियन्त्रण रखती है। सरकार को आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 (Essential Commodities Act. 1955) के अधीन अनेक वस्तुओं पर मूल्य नियन्त्रण लागू करने का अधिकार प्राप्त

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(4) आर्थिक एवं राजनीतिक वातावरण (Economic and Political environment) – देश के आर्थिक एवं राजनैतिक वातावरण से भी मूल्य निर्धारण प्रभावित होता है। मूल्य निर्धारण करते समय आर्थिक दशाओं में होने वाले संभावित परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना होता है। यदि देशवासी शिक्षित हैं, बेरोजगारी कम है तथा व्यक्तियों का जीवन स्तर ऊँचा है तो मूल्य अधिक रखा जा सकता है। यदि देश में राजनीतिक वातावरण आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने तथा ऊँचे मूल्यों व एकाधिकारी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने वाला है तो मूल्य कम रखना होगा।

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नवीन उत्पाद या बाजार प्रवेश मूल्य नीतियाँ एवं व्यूहरचनाएँ (New Product or Market-entry Pricing Policies and Strategies)

नवीन उत्पाद से तात्पर्य ऐसे उत्पाद से है जिसे बाजार में पहली बार प्रवेश करवाया जाता हो। ऐसे उत्पाद दो प्रकार के हो सकते हैं –

(अ) विद्यमान उत्पाद की नकल वाला उत्पाद,

(ब) अभिनव उत्पाद इन दोनों ही उत्पादों के लिए मूल्य निर्धारण की नीति एवं व्यूहरचना भिन्न-भिन्न पायी जाती है।

(अ) विद्यमान उत्पाद की नकल वाले उत्पाद जब कोई संस्था किसीnविद्यमान उत्पाद की नकल करके किसी उत्पाद का विकास करती है तो उसे बाजार में प्रवेश कराने तथा जमाने के लिए उचित रणनीति अपनानी पड़ती है।

सामान्यतः ऐसे उत्पाद के लिए निम्नांकित में से कोई भी रणनीति अपनायी जा सकती है।

  1. प्रीमियम या उच्चतम मूल्य रणनीति – इस रणनीति के अनुसार उच्च किस्म के उत्पाद के लिए उच्चतम मूल्य (High quality product and highest price) ही निर्धारित किया जाता है।
  2. मितव्ययी मूल्य रणनीति – इस रणनीति के अन्तर्गत निम्न किस्म के उत्पाद के लिए कम मूल्य निर्धारित किया जाता है।

ये दोनों ही रणनीतियाँ एक साथ अपनायी जा सकती है यदि बाजार में उपभोक्ताओं के दो ऐसे वर्ग विद्यमान हों जिनमें से एक उच्च किस्म चाहता हो तथा दूसरा मूल्य पर विशेष ध्यान देता हो।

  1. अच्छी उपयोगिता (Good value) – रणनीति इसमें उच्च किस्म के उत्पाद के लिये कम मूल्य रखा जाता है।
  2. अधिक मूल्य (overcharging) रणनीति- इसमें उत्पाद की किस्म की तुलना में अधिक मूल्य वसूल किया जाता है।

(ब) अभिनय (Innovative) उत्पाद- अभिनव या नवाचार वाले उत्पादों से तात्पर्य ऐसे उत्पादों से है, जो पहले कभी बाजार में उपलब्ध नहीं थे तथा जिनका मूल्य निर्धारण पहली बार ही किया जा रहा है। ऐसे उत्पादों के लिए निम्नांकित दो रणनीतियों में से कोई भी रणनीति अपनायी जा सकती है –

  1. मलाई उतार (Skimming the cream) – मूल्य रणनीति या प्रारम्भिक उच्चतम कीमत नीति (A High Initial Price Policy) – कई संस्थाएँ जब किसी नवीन उत्पाद का आविष्कार करती हैं तो वे बाजार की मलाई उतारने की रणनीति अपनाती हैं। इस रणनीति के अन्तर्गत सर्वप्रथम उत्पाद के प्रवेश के समय बहुत अधिक मूल्य रखते हैं। तत्पश्चात् वे इस मूल्य को प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ने के साथ-साथ क्रमागत रूप से घटाते हैं। इस प्रकार वे बाजार की परत दर परत मलाई उतारते जाते हैं। जब बाजार में कई प्रतिस्पर्खी उत्पाद उपलब्ध हो जाते हैं तो वे इस नीति को छोड़ देते हैं।

लाभ या उपयोगिता – यह रणनीति निम्नांकित दशाओं में लाभदायी या उपयोगी सिद्ध हो सकती है –

(i) उत्पाद की किस्म बहुत अच्छी हो।

(ii) उत्पाद की छवि बहुत अच्छी हो।

(iii) उस मूल्य पर उत्पाद क्रय करने वाले उपभोक्ता पर्याप्त मात्रा में हों।

(iv) कम मात्रा में उत्पादन करने पर भी उत्पादन लागत में विशेष वृद्धि न होती हो।

(v) उत्पाद का पेटेण्ट किया हुआ हो।

(vi) उस उत्पाद का स्थानापन्न या प्रतिस्पर्द्धा उत्पाद शीघ्र बाजार में उपलब्ध होने की सम्भावना न हो।

(vii) स्थानापन्न उत्पाद का मूल्य भी संस्था द्वारा निर्धारित मूल्य से कम नहीं रखा जा सकता हो।

  1. बाजार भेदन या वेधन मूल्य रणनीति (Market Penetration Pricing strategy) या कम मूल्य प्रवेशक कीमत नीति (Low Price penetration pricing policy) – बाजार भेदन मूल्य नीति के अन्तर्गत नये उत्पाद को बाजार में प्रवेश कराने तथा जमाने के लिए उसका प्रारम्भिक मूल्य अपेक्षाकृत कम रखा जाता है। इससे नया उत्पाद बाजार को भेद कर या वेध कर उसमें प्रवेश कर सकता है। इस मूल्य रणनीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नानुसार हैं –

(i) नये उत्पाद को बाजार में आसानी से प्रवेश दिलाना।

(ii) नये उत्पाद के लिए बहुत बड़े बाजार को शीघ्र विकसित करना।।

(iii) शोघ्रता से विक्रय की मात्रा को बढ़ाना।

(iv) उत्पाद का बड़ा बाजार भाग (Market share) बनाना।

(v) अन्य संस्थाओं को प्रतिस्पद्ध उत्पाद लाने से हतोत्साहित करना।

बाजार भेदन नीति निम्नलिखित दशाओं में ही सफल होती है।

  1. जब ऊँचे मूल्य पर उत्पाद की माँग उत्पन्न नहीं की जा सकती हो।
  2. उत्पाद के लिये बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध हो ।
  3. उत्पाद की माँग पूर्णतया लोचदार होनी चाहिए।
  4. अधिक विक्रय के द्वारा विपणन लागतों को घटाया जा सकता हो ।
  5. सरकारी नीति के कारण अधिक मूल्य रखना सम्भव न हो।

उपर्युक्त दोनों आधारभूत रीति-नीतियों के विस्तार द्वारा ई०आर० हॉकिन्स ने मूल्य निर्धारण नीतियों की एक सूची तैयार की है जिन्हें संक्ष मे यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है।

(1) विषम मूल्य निर्धारण (Odd Pricing) – इसके अन्तर्गत ऐसे मूल्यों का प्रयोग किया जाता है जिनकी समाप्ति विषम संख्या (Odd Number) में होती है। फुटकर व्यापारियों की यह सामान्य धारणा होती हैं कि मूल्य को विषम संख्या में रखकर विक्रय में वृद्धि की जा सकती है। अतः एक वस्तु का मूल्य 400 रूपये के स्थान पर 395 रुपये रखना अधिक अच्छा रहता है यद्यपि ऐसा करने से गणना सम्बन्धी कार्य कुछ बढ़ जाता है।

(2) मनोवैज्ञानिक मूल्य निर्धारण (Psychological Pricing) – विषम मूल्य निर्धारण से काफी समान होने के बावजूद भी मनोवानिक मूल्य निर्धारण उससे कुछ भिन्नता लिए हुए है। मनोवैज्ञानिक मूल्य निर्धारण में भी मूल्यों को सम संख्या (Round Figure) में न रखकर उससे कुछ कम पर रखा जाता है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वह संख्या विषम (Odd) ही हो, जैसे- एक कार की कीमत 3 लाख रु० के स्थान पर 2,95,000 रुपये रखकर ग्राहक पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने का प्रयास किया जाता है कि मूल्य कम है। यद्यपि विषम और मनोवैज्ञानिक मूल्य काफी लोकप्रिय हैं परन्तु फिर भी इनके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। प्रायः प्रतिष्ठा गृहों (Prestige Stores) द्वारा एवं ऊँचे मूल्यों वाले उत्पादों के विक्रेताओं द्वारा इनका प्रयोग नहीं किया जाता।

(3) परम्परागत मूल्य (Customary Prices) – कुछ वस्तुओं अथवा सेवाओं के लिए परम्परागत मूल्यों का प्रयोग किया जाता है, जैसे-एक टॉफी का मूल् 50 पैसे या कुल्फी का मूल्य 2.00 रुपये आदि। इन मूल्यों में परिवर्तन का उपभोक्ता तीव्र विरोध करते हैं। अतः वस्तु के आकार को कम करके भी उत्पाद मूल्यों को स्थिर बनाये रखने का प्रयास करते हैं।

(4) प्रतिस्पर्द्धा का सामना (Meeting the Competition) – यह मूल्य निर्धारण की वैज्ञानिक विधि नहीं है क्योंकि इसके अन्तर्गत लागत के आधार पर मूल्य निर्धारण नहीं किया जाता है। मूल्य युद्ध (Price War) से बचने के लिए प्रतिस्पर्द्धियों के अनुसार ही मूल्य निर्धारण किया जाता है।

(5) प्रतिष्ठा मूल्य निर्धारण (Prestige Pricing) – इसके अन्तर्गत प्रतिस्पड़ों एवं स्थानापन्न वस्तुओं की तुलना में काफी ऊँचा मूल्य निर्धारित किया जाता है। यह मलाई उतारने (Skimming the Cream) की रीति-नीति के समान है। यह रीति-नीति उस समय अधिक सफल होती है, जबकि वस्तु को अन्य प्रतिस्पद्ध वस्तुओं से आसानी से भिन्न करना सम्भव हो ।

(6) भौगोलिक मूल्य निर्धारण (Geographical Pricing) – इस नीति का प्रयोग उस समय किया जाता है जब विपणनकर्त्ता काफी बड़े क्षेत्र में सेवाएँ प्रदान कर रहा हो। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण बाजार को क्षेत्रों (Zones) में विभक्त कर दिया जाता है और तत्पश्चात प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक निश्चित मूल्य तय कर दिया जाता है, जैसे— भारत में वनस्पति घी की कीमतें। प्रायः पेट्रोल के मूल्य भी भौगोलिक आधार पर ही निर्धारित किये जाते हैं।

(7) द्वैत मूल्य निर्धारण रीति-नीति (Dual Pricing Strategy) – इसके अन्तर्गत विपणनकर्ता एक ही वस्तु का दो भिन्न-भिन्न कीमतों पर विक्रय करता है, जैसे सरकार द्वारा चीनी का विक्रय।

(8) नेता अनुकरण मूल्य नीति (Bait Pricing Policy)-  यह वह नीति है जिसके अन्तर्गत दो विभिन्न मूल्यों वाले उत्पादों का निर्माण किया जाता है और एक उत्पाद का कम और दूसरे उत्पाद का अधिक मूल्य रखा जाता है। इसके अन्तर्गत सबसे पहले ग्राहक को कम मूल्य वाला उत्पाद दिखाया जाता है, तत्पश्चात पहले उत्पाद की कमियों को बताते हुए दूसरा अधिक मूल्य वाला उत्पाद ग्राहक को दिखाया जाता है। इस प्रकार ग्राहक को अधिक मूल्य वाला उत्पाद क्रय करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस प्रकार इस मूल्य नीति का उद्देश्य ग्राहक को कम मूल्य वाले उत्पाद की ओर आकर्षित कर उसे अधिक मूल्य वाला उत्पाद बेचना होता है।

 

Pricing Bcom Notes PDFमूल्य निर्धारण विधियाँ (Pricing Methods)

(1) लागत जमा विधि (Cost Plus Method) – मूल्य निर्धारण की यह सरल विधि है। इसके अन्तर्गत एक निर्माता उत्पादित उत्पादों की औसत लागत निकाल लेता है और फिर उसमें इच्छानुसार लाभ की मात्रा जोड़कर मूल्य निर्धारित कर देता है। इस विधि द्वारा मूल्य निर्धारित करते समय प्रतिस्पर्द्धियों के मूल्यों को भी ध्यान में रखा जाता है।

(2) सीमान्त लागत विधि (Marginal Cost Method) – इस विधि में मूल्य सीमान्त लागत के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं। इस विधि के अन्तर्गत स्थायी लागतों को वस्तु के मूल्यों में सम्मिलित नहीं किया जाता है। सीमान्त लागत का आशय उस लागत से होता है जो एक सीमा के पश्चात अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से आती है। यह लागत परिवर्तनशील लागत पर आधारित होती है।

(3) सम – विच्छेद बिन्दु और कीमत निर्धारण – सम-विच्छेद बिन्दु उत्पादन की वह मात्रा होती हैं जहाँ पर फर्म को न लाभ होता है और न हानि। इसमें स्थिर व परिवर्तनशील दोनों ही प्रकार की लागतों को सम्मिलित किया जाता है।

(4) प्रतियोगिता उन्मुख मूल्य निर्धारण – इस विधि में कम्पनियाँ उत्पाद, मूल्यों को माँग और बिक्री से निरपेक्ष रखकर अन्य प्रतियोगियों द्वारा निर्धारित मूल्य अथवा उनसे भी कम मूल्य निर्धारित करती हैं।

(5) भेदभावपूर्ण मूल्य निर्धारण – इस प्रकार के मूल्य निर्धारण में भिन्न ग्राहकों से उनकी आर्थिक क्षमता अथवा उनके स्थान के आधार प्राप्त किये जाते हैं।

(6) अल्पाधिकारी बाजार में मूल्य निर्धारण – जब बाजार में कुछ ही विक्रेता होते हैं जो एक दूसरे की कीमत निर्धारण युक्तियों के प्रति अति संवेदनशील होते है को अल्पाधिकारी प्रतियोगिता कहते हैं। इसके कोई भी विक्रेता निर्धारित मूल्य में परिवर्तन नहीं करना चाहता।

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बट्टा नीतियाँ या कीमत भिन्नताएँ (Discount Policies or Price Differentials)

ग्राहकों में भिन्नता के अनुसार उनसे लिये जाने वाले मूल्यों में भी भिन्नता की जाती है। यह मूल्य भिन्नता क्रय के आकार, ग्राहक के प्रकार, क्रेता की भौगोलिक स्थिति, भुगतान विधि के आधार पर हो सकती है। इस मूल्य भिन्नता का लाभ उन सभी ग्राहकों को प्रदान किया जाता है जो समान शर्तों को पूरा करते हैं। प्रायः सभी कम्पनियाँ मूल्य भिन्नता लाने के लिए विभिन्न बट्टा नीतियों का प्रयोग करती हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं –

(1) परिमाण या मात्रा बट्टा (Quantity Discount) – प्रायः विक्रेता अपने ग्राहकों को उनके स्तर को ध्यान में रखे बिना परिमाण बट्टा देता है। ऐसा बट्टा उन ग्राहकों को दिया जाता है जो एक निश्चित मात्रा से अधिक माल का आदेश देते हैं। परिमाण बट्टा देने से विक्रेता को दो लाभ प्राप्त होते हैं— प्रथम, विक्रय खर्च अथवा लागत में कमी हो जाती है क्योंकि बड़ी मात्रा में माल का आदेश मिलने से पैकिंग, यातायात व अन्य विक्रय व्यय कम हो जाते हैं। द्वितीय विक्रय में वृद्धि होती है जिसका अन्तिम परिणाम लाभ में वृद्धि होता है।

(2) नकद बट्टा (Cash Discount) – मुद्रा में समय उपयोगिता होती है। अतः नकद भुगतान करने वाले क्रेताओं को अतिरिक्त बट्टा दिया जाता है जिसे नकद बट्टा कहते हैं।

(3) प्रकार्यिक (क्रियात्मक) अथवा व्यापारिक छूट (Functional or Trade Discount) विभिन्न विपणन वाहिकाओं (Marketing Channels) – द्वारा ग्राहकों को विभिन्न प्रकार की सेवाएँ प्रदान की जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह उचित है कि अतिरिक्त सेवाएँ प्रदान करने वाली संस्था को निर्माता द्वारा अतिरिक्त बट्टा दिया जाये जिससे उनके द्वारा दी जाने वाली सेवा की क्षतिपूर्ति की जा सके। क्षतिपूर्ति की इस नवीन पद्धति को ही प्रकायिक बट्टे के नाम से जाना जाता है।

(4) गैर-मौसम बट्टा (Off Season Discount) – कुछ वस्तुओं का अधिकांश विक्रय केवल एक विशेष मौसम में ही होता है। अतः वर्ष के शेष भाग में भी क्रय को प्रोत्साहन देने के लिए गैर-मौसम बट्टा दिया जाता है जिससे आकर्षित होकर क्रेता मौसम आने से पूर्व ही उन वस्तुओं का क्रय कर लेते हैं, जैसे—बिजली के पंखे, रेफ्रीजरेटर, कूलर आदि। इससे विक्रेता का भण्डारण व्यय कम हो जाता है एवं वर्षपर्यन्त थोड़ा-बहुत विक्रय का कार्य चलता रहता है जिससे विक्रय में वृद्धि होती है।

(5) भौगोलिक छूट (Geographical Discount) – जैसे-जैसे वस्तु के निर्माण स्थल व विक्रय स्थल की दूरी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे यातायात व्ययों में भी वृद्धि होती जाती है। अतः यातायात व्यय ग्राहकों की भौगोलिक स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। इन यातायात व्ययों की पूर्ति दो प्रकार से की जाती है— प्रथम समस्त भार प्रत्यक्ष रूप से ग्राहकों पर डालकर एवं द्वितीय विक्रय कीमत में यातायात व्ययों को सम्मिलित करके।

ग्राहकों पर प्रत्यक्ष रूप से यातायात व्ययों का भार डालने के लिए कीमत कारखाने के लिए उद्धरित की जाती है। इसे एफ०ओ०बी० प्राइसिंग (F.O.B. Pricing) कहते हैं। इसके अन्तर्गत कारखाने से लेकर क्रेता के स्थान तक का समस्त यातायात व्यय क्रेता को ही वहन करना पड़ता है।


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Pricing

 

MEANING OF PRICE AND PRICING POLICY

Price is the machanism for allocating goods and services among potential purchasers and for ensuring competition among sellers in an open market economy.

To a buyer, price is the value placed on what is exchanged. Almost anything of value-ideas, services, rights and goods-can be assessed by a price because in our society the financial price is the measurement of value commonly used in exchanges. Financial price easily quantifies value and affords a comparability for choosing products. In short, it is the basis of most market exchanges. Prices are never constant they keep on changing. Pricing is the process of determining price of a product/ service; and also a managerial policy to achieve marketing goals.

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IMPORTANCE/SIGNIFICANCE OF PRICING OR PRODUCT PRICE POLICY

  1. Source of Revenue: The seller’s revenue or income depends upon the price of the merchandise sold.
  2. Determinant of Profitability: Price affects the profit equation in several ways. It has a direct bearing on the profit.
  3. Decision Variable: Pricing consideration is an imperative factor in marketing decision making.
  4. Legal Basis of a Sale Transaction: “Price” is an essential requisite of “sale”. As per the Sale of Goods Act, a “sale” is a transfer of property in goods to a buyer for a price.
  5. Complexity in Pricing: The question of a ‘correct price’ to a product is still a complicated problem before the marketing managers.
  6. Competitive Strategy: Pricing is an important instrument for dealing with the competitors in the market. Strategy of price cutting or low pricing is resorted to defend company’s market share against competitor’s challenge.
  7. Influencing Factor of Demand: There is inverse relation between price of a product and volume of sale. Law of demand says that demand falls when prices go up and vice-versa. Price of a product influences the purchase decision of a consumer. 8. Economic Catalytic Agent: Price is the prime regulator of production, distribution and consumption of goods.

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FACTORS TO BE CONSIDERED WHILE FORMULATING A PRODUCT PRICE POLICY

A company’s price decisions are influenced by the following factors:

(A) Internal Factors/Built-In-Factor: These are the forces which can be controlled by a firm to a certain extent. These are:

(i) Organizational Factors: It is important to decide who should set the prices. It is the top management who should retain the primary responsibility for determining price, objectives, policies and strategies.

(ii) Costs: The most decisive factor in determining price is the cost of production.

(iii) Marketing Mix: Pricing policies have to be coordinated with policies relating to product, promotion and distribution.

(iv) Product Life Cycle: Pricing strategies change with different stages of product life cycle. In introduction stage, prices may be low, may rise during growth and maturity and gradually be reduced in declining stage.

(v) Firm’s Marketing Objectives: Pricing policies should be oriented to achieve firm’s marketing objectives such as: (a) maximisation of sales, (b) stabilising price, (c) increasing market share, (d) build favourable image, (e) ensure customer satisfaction, (f) survival of the company, (g) good cash flow, (h) achieve product-quality leadership.

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(B) External Factors: These are the factors over which the firm has no control. These are:

(i) Elasticity of Demand: There is close relationship between the demand and its price. A rise in price affects demand for product and reduction in price boosts sales. The degree of responsiveness of demand to the changes in price is called elasticity of demand. Thus, while fixing price, company could keep the elasticity of demand factor in mind so that impact of price changes on potential demand can be predicted.

(ii) Market Competition: No manufacturer is free to fix the price of his product without considering competition unless he has a monopoly. The pricing policy varies according to type of market competition viz-perfect competition, monopoly, monopolistic, oligopoly.

(iii) Distribution Channels: There are a number of middleman working in the channel of distribution between the producer and consumer. Therefore, each middleman is to be compensated for his services. This compensation must be included in the ultimate price which the consumer is required to pay.

(iv) Legal Restrictions: Government interference such as control of prices, levying of taxes etc. also affect pricing of products.

(v) Economic Environment: Economic environment of the country i.e., production, national income, per capita income, standard of living of people, stage of trade cycle-boom, recession, depression, recovery etc. have to be considered while formulating price policy.

(vi) Consumer: The nature and behaviour of consumers and user for the purchase of a particular product, brand or service affect pricing, particularly if their number is large.

(vii) Supplier: Price changes made by suppliers of raw materials have their effect on the cost of production. Thus, scarcity or abundance of raw material affect the pricing decisions.

(viii) Competitor’s Reactions and Strategies: While formulating pricing policy, the marketing manager has to consider the price strategies of competitors and their possible reactions. Price policy should attempt to minimize conflict with competitors.

(ix) Market Position of the Company: The market position of the company or the image of company in the minds of consumers regarding quality products influence the pricing decisions of a company.

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METHODS OF PRICING OF A NEW PRODUCT

Pricing of a new product is an art. It is an important and puzzling marketing problems faced by a company. The price of a new product should be fixed in such a way:

(i) Which is generally acceptable to consumers.

(ii) Capable in maintaining the market of the product.

(iii) Competent in retaining reasonable profits to manufacturer. Fixation of unfavourable price of a new product can lead to product failure. Generally the following three methods are adopted in setting the price of a new product. These are:

(A) Skim the Cream Pricing/Skimming Pricing/Market Skimming (High Price) Policy: This strategy involves setting a very high price for a product at the initial stage by the seller. The price may subsequently be reduced as the demand starts falling. The initial high price serves to skim the cream of the market. By this the investment made in product may be quickly realised.

According to Joel Deal, “Launching a new product with high price is an effective device for breaking up the market into segments that differ in price elasticity of demand.”

If a product is entirely new in all respects, skimming method I could be used. It is usually followed in case of fashionable items, luxuries, books on current topics, computers and other electronic gadgets which have faster rate of obsolescence.

This strategy is beneficial when following conditions exist:

  1. The product demand should be less elastic.
  2. The manufacturer wants to recover initial investment in a very short time.
  3. The market can be segmented on income basis i.e., rich, middle, poor.
  4. The product has high quality and image to substantiate its higher price.
  5. There should not be fear of entry of new competitors in the short run.
  6. The initial demand is high but likely to be reduced gradually.
  7. The company wants to keep the production within installed capacity.
  8. The small scale production should not upset gains of high price.

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(B) Market Penetration (Low Price Strategy)/Penetration Pricing Policy: Under this method, low price is fixed of a new product in the initial stage or till such time the product is accepted by the consumers, so as to get entry and share in the market. As soon as the product becomes popular, the price starts increasing. The rationale of this strategy is to increase sales, which would bring in economies of large scale operation and cut down costs. It aims at capturing the market or eliminating the competitors from he market. For the success of this method the following conditions are required:

  1. Demand for the product must be elastic.
  2. There should be possibility of severe competition to the product.
  3. There should exist a wide market for the sale of the product.
  4. The product is of low quality and meant for mass consumption without significant segmentation of market.
  5. When the stability of price is required.
  6. The low price should be able to attract more sales and consequently to reap economies of operations. (C) Leader Pricing Policy: This type of pricing is used mainly by retailers such as supermarkets. Under this method, low price is fixed for a popular or leader product so as to attract the consumers.

For Instance: If you happen to visit a retail store you will see that low prices are charged for certain popular items such as salt, sugar, match-box etc. which are consumed by all types of consumers. He will get the some compensated by charging high prices of remaining items which are not commonly consumed. In this way, the overall sales are increased considerably along with rapid increase in overall profits of the firm. Leader pricing is most often used.

 

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