Bcom 2nd Year Public Finance Public Debt

Bcom 2nd Year Public Finance Public Debt

 

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Bcom 2nd Year Public Finance Public Debt
Bcom 2nd Year Public Finance Public Debt

लोक ऋण (Public Debt)

प्रश्न 24, सार्वजनिक ऋण क्या है ? सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण कीजिए।

(Garhwal, 2008 B)

अथवा

सार्वजनिक ऋण भुगतान की विभिन्न विधियों को समझाइए।

(Avadh, 2008)

अथवा

सार्वजनिक ऋण’ क्या है ? आधुनिक समय में सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि क्यों होती है ? आन्तरिक सार्वजनिक ऋण का भार किस प्रकार बाहरी सार्वजनिक ऋण के भार से भिन्न होता है ?

अथवा

 सार्वजनिक ऋण भुगतान के विभिन्न तरीकों का विवेचन कीजिए। क्या राज्य को अपनी विकास योजनाएँ ऋणों द्वारा पूरी करनी चाहिएँ ?

(Meerut, 2007)

उत्तर- जब सरकार (राज्य) का व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है और सरकार देश या विदेशों से ऋण लेकर इस व्यय को पूरा करती है तो उसे सार्वजनिक (लोक) ऋण कहा जाता है। सरकार को न केवल ऋण ही वापिस करना होता है बल्कि उस पर ब्याज का भी भुगतान करना पड़ता है।

फिण्डले शिराज के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिए कोई सरकार अपने देश के नागरिकों अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति जिम्मेदार होती है।”

जे० के० मेहता के अनुसार, “सार्वजनिक आय वह प्राप्ति होती है जिसको उसके देने वाले को वापिस करने के लिए सरकार बाध्य नहीं होती, दूसरी ओर सार्वजनिक ऋण सरकार पर ऐसा बोझ है जिसे लौटाना अनिवार्य होता है।’

सार्वजनिक ऋण (लोक ऋण) का वर्गीकरण (प्रकार),

लोक ऋण का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया गया है। मुख्य वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार हैं-

(1) आन्तरिक ऋण एवं बाह्रां (Internal Debt and External Debt)—  जब सरकार अपने ही देश के नागरिकों को प्रतिभूतियाँ बेचकर उनसे ऋण प्राप्त करती है तो इसे आन्तरिक ऋण कहते हैं। इसके विपरीत जब विदेशी व्यक्तियों, विदेशी सरकारों या विदेशी संस्थाओं से विदेशी मुद्रा में ऋण प्राप्त किये जाते हैं तो उन्हें बाह्य ऋण कहते हैं।

आन्तरिक एवं बाह्य ऋणों के भार को अग्र प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

आन्तरिक ऋण का भार (Burden of Internal Debt)- जब सरकार देश के नागरिकों से ही ऋण लेती है तो इसमें लोगों के पास से क्रय-शक्ति का हस्तान्तरण सरकार को होता है अर्थात् साधनों का पुनर्वितरण होता है। इन ऋणों का भार किस पर पड़ता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऋणों का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है। यदि इनके प्रयोग से उत्पादकता में वृद्धि होती है एवं वितरण में समानता स्थापित होती है तो इन ऋणों का भार नगण्य होता है। किन्तु यदि ऋणों को अनुत्पादक कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है तथा इनके भुगतान के लिए निर्धन व्यक्तियों पर कर लगाया जाता है तो इससे वितरण में असमानता बढ़ती है और लोगों पर इसका भार पड़ता है।

बाह्य ऋणों का भार (Burden of External Debt)— जब सरकार बाह्य ऋणों की वापसी करती है तो मूलधन और ब्याज की राशि देश के नागरिकों पर कर लगाकर वसूल की जाती है। इससे जो हानि देश के लोगों को होती है, वही इन ऋणों का प्रत्यक्ष वास्तविक भार है। यदि ऋणों की वापसी के लिए धनी व्यक्तियों पर ही कर लगाया जाता है, तो ऋणों का भार अपेक्षाकृत कम होता है। बाह्य ऋणों का भार इस बात पर निर्भर करता है कि इन ऋणा का प्रयोग किस प्रकार किया जा रहा है। यदि इन ऋणों के प्रयोग से उत्पादकता में वृद्धि होती है तथा देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है जिससे ऋण की अदायगी की जा सकती है, तो देश के नागरिकों पर इन ऋणों का भार बहुत कम पड़ता है। ,

(2) ऐच्छिक एवं अनिवार्य ऋण (Voluntary and Compulsory Debt) ऐच्छिक ऋण से तात्पर्य ऐसे ऋण से है जिसे जनता अपनी इच्छा से सरकार को देती है अर्थात् ऐसे ऋणों की प्राप्ति में सरकार का कोई दबाव नहीं होता। सरकार ऋण की राशि, भगतान का समय, ब्याज की दर इत्यादि के बारे में घोषणा और विज्ञापन करती है। जो व्यक्ति या संस्था इन शर्तों को उचित तथा अनुकूल समझते हैं, वह सरकार को ऋण प्रदान कर देते हैं।

अनिवार्य ऋण से अभिप्राय ऐसे ऋण से है, जिसके सम्बन्ध में सरकार देश के नागरिकों को ऋण देने के लिए मजबूर करती है। आन्तरिक ऋण ही अनिवार्य हो सकते हैं। बाह्य ऋण नहीं क्योंकि सरकार विदेशी नागरिकों या सरकारों को ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।

(3) उत्पादक एवं अनुत्पादक ऋण (Productive and Unproductive Debt)उत्पादक ऋण वे ऋण होते हैं जिनकी धनराशि को ऐसे व्यवसायों में लगाया जाता है जिनकी आय से उसके मूलधन और ब्याज को ऋण की परिपक्वता के बाद लौटाया जा सके। उदाहरण के लिए, सिंचाई योजना, विद्युत उत्पादन योजना, परिवहन के साधनों का विकास आदि कार्यों के लिए लिया गया ऋण उत्पादक ऋण कहलाता है।

अनुत्पादक ऋण वह ऋण होता है, जो ऐसे कार्यों पर व्यय किया जाता है जिनसे कोई प्रत्यक्ष मौद्रिक आय प्राप्त नहीं होती है, जैसे युद्ध, अकाल तथा बाढ़ आदि के लिये लिया गया ऋण।

(4) अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन ऋण (Short-term and Long-term Debt)— सरकार द्वारा जब कम समय के लिए ऋण प्राप्त किए जाते हैं तो उन्हें अल्पकालीन ऋण कहा जाता है। सामान्यतः इनकी अवधि एक वर्ष होती है। इन ऋणों को प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य बजट की अस्थायी कमी को पूरा करना होता है। उदाहरणार्थ, भारत सरकार ट्रेजरी बिल्स द्वारा तीन महीने से छ: महीने के लिए ऋण लेती है। सरकारें इन ऋणों की अदायगी के लिए किसी कोष की व्यवस्था नहीं करती। इसके विपरीत, जब सरकार द्वारा लम्बी अवधि के लिए ऋण लिये जाते हैं तो उन्हें दीर्घकालीन ऋण कहते हैं। ऐसे ऋण लेते समय ऋणों की अदायगी अवधि तथा अन्य शर्तों को निश्चित कर दिया जाता है। ऐसे ऋण प्राय: 10 वर्ष या इससे अधिक अवधि हेतु लिये जाते हैं।

(5) शोध्य एवं अशोध्य ऋण (Redeemable and Irredeemable Debt)शोध्य ऋण वे ऋण हैं जिनको सरकार द्वारा एक भावी तिथि पर भुगतान करने का वचन दिया जाता है। इसके विपरीत यदि ऐसा वायदा नहीं किया जाता तो उन्हें अशोध्य ऋण कहते हैं। अशोध्य ऋणों में सरकार ब्याज के भुगतान की गारन्टी तो करती है परन्तु मूलधन के भुगतान की तिथि निश्चित नहीं करती।

सार्वजनिक ऋण क्यों लिये जाते हैं?

या

सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य (Objects of Public Debt)

सरकार द्वारा मुख्य रूप से निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋण लिये जाते है

(1) राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए- राज्य (सरकार) की वित्तीय आवश्यकताएँ सामान्यत: कर तथा अन्य साधनों से पूरी कर ली जाती हैं, परन्त कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि कर-भार अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। ऐसी स्थिति में वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राज्य ऋण का सहारा लेते हैं।

(2) प्राकृतिक संकटों से निपटने के लिए- प्राकृतिक संकटों, जैसे-अकाल, बाढ़, महामारी आदि के समय राज्य की अर्थव्यवस्था असन्तुलित हो जाती है। ऐसे समय में राज्य का दायित्व नागरिकों के प्रति और भी अधिक बढ़ जाता है। प्राकृतिक संकटों से पीड़ित लोगों पर कर लगाना भी अन्यायपूर्ण ही होता है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में सरकार अपने दायित्व को पूरा करने के लिए (बढ़े हुए व्यय को पूरा करने के लिए) सार्वजनिक ऋण को ही आय का साधन बनाती है।

(3) सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना हेतु- सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग-धन्धों की स्थापना करने तथा अथवा लोक निर्माण कार्यों को करने के लिए सार्वजनिक ऋणों का सहारा लेना पड़ता है।

(4) आर्थिक विकास के लिए ऋण- आजकल प्रायः सभी विकासशील देश आर्थिक विकास के लिये नियोजन की विधि अपना, रहे हैं, जैसे, भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ। इन योजनाओं पर भारी मात्रा में राशि व्यय होती है जिसकी आंशिक व्यवस्था के लिए ऋणों का सहारा लिया जाता है।

(5) आर्थिक स्थायित्व बनाये रखने हेतु- सार्वजनिक ऋणों का उद्देश्य आर्थिक स्थायित्व को बनाये रखना भी है। मन्दी काल में सरकार वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेकर सार्वजनिक निर्माण कार्य शुरू कर देती है, जिससे लोगों की आय, रोजगार व क्रय-शक्ति का स्तर ऊँचा उठ जाता है और इस प्रकार आर्थिक दशायें सामान्य होने लगती हैं। इसके विपरीत मुद्रा स्फीति अथवा तेजी काल में सरकार ऋण लेकर, लोगों के हाथ से अतिरिक्त क्रय-शक्ति वापिस खींच लेती है जिससे कीमतों में स्थायित्व आने लगता है।

(6) लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए- आधुनिक युग में प्रत्येक देश की सरकार का उद्देश्य लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना है। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आजकल प्रत्येक देश की सरकार शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, आवास आदि सामाजिक सेवाओं पर अधिक से अधिक व्यय करती हैं, जिसके लिए सरकार आवश्यकता पड़ने पर ऋण ले लेती है।

(7) युद्धकालीन वित्त-व्यवस्था के लिए- आधुनिक समय में युद्ध व्यवस्था अत्यधिक खर्चीली हो गई है। प्रतिरक्षा सम्बन्धी उपकरणों और व्यवस्थाओं का व्यय इतना अधिक बढ़ गया है कि युद्धकालीन स्थिति में केवल करारोपण से इनकी पूर्ति नहीं हो पाती और लोक ऋण अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है।

(8) सार्वजनिक निर्माण कार्यों के लिए- सरकार को सार्वजनिक निर्माण कार्यों जैसे—सड़क, निर्माण, रेलवे विकास, बाँध निर्माण इत्यादि पर भारी राशि व्यय करनी होती है। इस राशि की पूर्ति कुल आय के सामान्य साधनों से नहीं की जा सकती और न ही साधनों की कमी के कारण कार्यों को अधिक समय तक स्थगित किया जा सकता है। अत: इन कार्यों की वित्त-व्यवस्था के लिए सार्वजनिक ऋणों को लेना आवश्यक हो जाता है।

(9) बजट में अस्थाई घाटों की पूर्ति के लिए- कभी-कभी सरकार को अपने व्यय करने और उनके लिये आय प्राप्त करने की अवधि के अन्तर के कारण अस्थाई घाटे की समस्या का सामना करना पड़ता है। इस घाटे की पूर्ति के लिए भी सरकार अल्पकालीन ऋण प्राप्त कर सकती है।

(10) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग- वर्तमान समय में एक देश द्वारा दूसरे देश से ऋण प्राप्त करने के जहाँ अनेक आर्थिक दृष्टिकोण रहते हैं वहाँ दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना के आधार पर भी यह ऋण लिये जाते हैं। इससे विदेशी विनिमय की समस्या के समाधान में भी सुविधा मिलती है।

क्या राज्य को अपनी विकास योजनाएँ ऋणों द्वारा पूरी करनी चाहिए? (Should the State Carry Out its Development Plans with the Aids of Loan?)

आर्थिक विकास की दृष्टि से जो परियोजनायें चालू की जाती हैं, वह पूँजीगत दीर्घकालीन व्यय-विनियोग का ही रूप है। चूंकि दीर्घकालीन विनियोग का भार वर्तमान पीढ़ी पर नहीं डाला जा सकता, इसलिये इनकी पूर्ति के लिये ऋण-साधन ही श्रेष्ठ माना जाता है। लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जिस साधन से बिना मुद्रा-प्रसार हुये विनियोग-वृद्धि हो सके, वह साधन अधिकं उपयुक्त माना जायेगा। चूंकि कर लगने पर लोगों की बचत या उनका वर्तमान उपभोग कम हो जाता है। अत: यदि करों का भुगतान लोगों द्वारा अपनी बचतों के बजाय आय में से किया गया है अर्थात् बचतें पूर्णतया ऐच्छिक हैं और व्यय करने की क्षमता पर उनका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता, तब करारोपण का साधन ही श्रेष्व कहा जायेगा। वैसे आमतौर से विकास-वित्त की विशाल धनराशि को करारोपण द्वारा पूरा करना सम्भव नहीं होता, इसलिये इसकी पूर्ति ऋणों द्वारा ही की जाती है।

सार्वजनिक ऋण के शोधन (भुगतान) की रीतियाँ (Methods of Redemption of Public Debt)

एक व्यक्ति की तरह सरकार को भी लिये गये ऋण की राशि की वापसी, ब्याज सहित करनी पड़ती है। ऋण एक भार होता है, अतः लोक ऋण का यथाशीघ्र भुगतान किया जाना ही देश के लिए कल्याणकारी होता है। लोक ऋणों का जब तक भुगतान नहीं हो जाता, तब तक उनका भार वर्तमान और भावी पीढ़ी पर निरन्तर पड़ता रहता है। सार्वजनिक ऋणों को चुकाने की मुख्य रीतियाँ इस प्रकार हैं-

(1) ऋण चुकाने से मना करना अथवा ऋण-निषेध (Debt Repudiation)कभी-कभी सरकार अपने ऋणों को भुगतान करने में असमर्थ हो जाती है। ऐसी स्थिति में सरकार लोक ऋण का भुगतान करने के लिए “ऋण निषेध” विधि को अपना सकती है। इस विधि के अन्तर्गत सरकार लिये गए ऋणों का भुगतान करने से मना कर देती है। ऐसी स्थिति में सरकार न तो मूलधन का भुगतान करती है और न ही उस पर ब्याज का। वस्तुतः इस विधि से ऋण का भुगतान होता ही नहीं है। सामाजिक व न्यायिक दृष्टि से यह विधि उचित नहीं है क्योंकि इसमें-

(i) सरकार के प्रति जनता का विश्वास समाप्त हो जाता है।

(ii) समाज में असन्तोष फैलता है,

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सरकार की साख गिरती है एवं

(iv) बचतकर्ताओं को आर्थिक हानि के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी सहन करना पड़ता है।

(2) ऋण का परिवर्तन (Conversion of Debt)— इस विधि के द्वारा ऋण का वास्तव में भुगतान नहीं होता बल्कि उनका रूप परिवर्तित कर दिया जाता है। सरल शब्दों में, यदि सरकार ऋण की विभिन्न शर्तों में परिवर्तन करने की दृष्टि से ऋण भुगतान करने की तिथि से पूर्व पुराने ऋणों के बदले में नये ऋण निर्गमित करती है तो इसे “ऋण का परिवर्तन” कहते हैं। स्पष्ट है कि इस विधि से ऋण का भार समाप्त नहीं होता वरन् भविष्य के लिए टाल दिया जाता है।

(3) शोधन कोष पद्धति (Sinking Fund Method)— इस पद्धति के अन्तर्गत सरकार लोक ऋण का भुगतान करने के लिए एक कोष की व्यवस्था करती है। इस कोष में सरकार प्रतिवर्ष एक निश्चित या उपलब्ध राशि जमा करती रहती है। कोष में जमा की जाने वाली राशि को कहीं लाभदायक रूप में विनियोजित कर दिया जाता है। इस प्रकार प्रतिवर्ष विनियोजित राशि तथा ब्याज की राशि निरन्तर बढ़ती जाती है और ऋण के भुगतान की तिथि आने तक उसमें उतनी राशि जमा हो जाती है जिससे ऋण का भुगतान सरलता से किया जा सकता है। ऋण भार को कम करने के दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि शोधन कोष में जमा की जाने वाली रकम की व्यवस्था चालू आय में से की जाये। यदि कोई ऋण लेकर शोधन कोष बनाया जाता है तो उससे ऋण भार को कम करने का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। इसीलिए शोधन कोष का निर्माण सरकार अपनी वार्षिक आय में से ही करती है।

(4) वार्षिक वृत्ति (Terminal Annuities)— जब सरकार द्वारा सार्वजनिक ऋण का भुगतान वार्षिक किश्तों के रूप में प्रतिवर्ष किया जाता है तो इस विधि को “वार्षिक वृत्ति’ कहते हैं। इस विधि से ऋण का भुगतान करने के लिए ऋण की रकम, ब्याज की दर और ऋण अवधि के आधार पर वार्षिक किश्त की गणना कर ली जाती है जिसका भुगतान ऋणदाताओं को नियमित रूप से प्रतिवर्ष कर दिया जाता है। इस रीति का मुख्य लाभ यह है कि सरकार पर ऋण के भुगतान का भार एक साथ नहीं पड़ता बल्कि धीरे-धीरे ऋण का भार कम होता जाता है।

(5) क्रमानुसार भुगतान (Payment by Serial Number)-  इस रीति में भी लोक ऋण का भुगतान धीरे-धीरे किया जाता है, परन्तु यह भुगतान क्रमानुसार होता है। सरकार निर्गमित किये गये ऋण-पत्रों या बाण्डों पर क्रम संख्या डाल देती है और प्रतिवर्ष भुगतान किये जाने वाले ऋण-पत्रों अथवा बाण्डों की क्रम संख्या पहले ही तय कर दी जाती है। इस प्रकार ऋण का एक निश्चित भाग प्रतिवर्ष अदा हो जाता है तथा बॉण्ड धारकों को यह जानकारी रहती है कि उनके ऋण-पत्रों या बॉण्ड्स की रकम कब वापिस मिलेगी।

(6) लॉटरी पद्धति द्वारा भुगतान (Payment by Lottery)इस विधि के द्वारा ण का भगतान करने के लिए भुगतान किये जाने वाले ऋणपत्रों या बॉण्ड्स की क्रम संख्या लॉटरी द्वारा निकाली जाती है और लॉटरी में निकलने वाले नम्बरों के ऋण-पत्रों या बॉण्ड्स का भगतान कर दिया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत ऋणदाताओं को ऋण वापसी के सम्बन्ध में कोई निश्चितता नहीं होती।

(7) ऋणों का क्रय (Buying-up Loans)- कभी-कभी सरकार द्वारा अपने ऋण पत्रों या बॉण्डस को बाजार से क्रय करके भी ऋण का भुगतान कर दिया जाता है। जब सरकार के बजट में आधिक्य होता है या सरकार को अतिरिक्त आय प्राप्त होती है तो उस अतिरिक्त धन से अपने ऋण-पत्रों या बॉण्ड्स को बाजार से खरीद लिया जाता है। इस प्रकार ऋण का भुगतान हो जाता है। यद्यपि ऋण शोधन की यह एक प्रभावशाली पद्धति है, परन्तु इस विधि को तभी प्रयोग किया जा सकता है जबकि सरकार के बजट में आधिक्य हो।

(8) पूँजी कर (Capital Levy)— सरकार पर जब ऋणों का भार काफी बढ़ जाता है तो सार्वजनिक ऋण के भुगतान का एक तरीका यह भी है कि सरकार एक निश्चित सीमा से ऊपर सम्पत्ति रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर बढ़ती हुई दर से पूँजी कर लगा देती है तथा इस प्रकार जो आय प्राप्त होती है उससे ऋण का भुगतान कर दिया जाता है। इस विधि का लाभ यह है कि सरकार को सार्वजनिक ऋणों का भुगतान करने के लिए बार-बार कर नहीं लगाने पड़ते बल्कि एक बार में ही पूँजी पर भारी कर लगाकर इतनी राशि वसूल कर ली जाती है कि ऋण का भुगतान किया जा सके। यह विधि सामान्यत: युद्ध के पश्चात् प्रयोग की जाती है। रिकार्डो तथा उसके अनुयायी इस कर के प्रबल समर्थक थे।

प्रश्न 25, सार्वजनिक ऋण और कर में अन्तर बताइए। दोनों मे कौन-सा आय का अच्छा स्त्रोत है?

(Meerut, 2009)

अथवा

ऋण तथा कर दोनों में से कौन-सा आय का अच्छा स्त्रोत है ? उन उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए जिनके लिए राज्य द्वारा ऋणों तथा करों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(Meerut 1997)

उत्तर-

सार्वजनिक ऋण एवं कर में भेद (अन्तर) (Difference Between Public Debt and Tax)

लोक ऋण एवं कर के बीच प्रमुख अन्तर इस प्रकार हैं-

(1) वापसी का दायित्व-ऋणों से प्राप्त रकम भविष्य में ऋणदाताओं को वापिस लौटानी होती है जबकि करों से प्राप्त रकम वापिस नहीं की जाती है।

(2) भार एवं लाभ-करों का भार तथा लाभ वर्तमान पीढ़ी पर पड़ता है जबकि सार्वजनिक ऋणों का भार एवं लाभ भावी पीढ़ी पर पड़ता है।

(3) प्रकृति-करारोपण सार्वजनिक आय का एक नियमित स्त्रोत है जबकि सार्वजनिक ऋण असाधारण परिस्थितियों में लिये जाते हैं।

(4) स्त्रोत-लोक ऋणों की प्राप्ति अपने देश तथा विदेशों से की जा सकती है लेकिन करों की रकम केवल अपने देश की जनता से ही वसूल की जा सकती है।

(5) मात्रा-करारोपण सरकार की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति का एक अपर्याप्त साधन है जबकि लोक ऋणों द्वारा वांछित धनराशि आसानी से जुटायी जा सकती है।

कर बनाम लोक ऋण या ऋण एवं कर में कौन श्रेष्ठ है ? जबसे राजस्व में लोक ऋण को महत्वपूर्ण स्थान मिला है, तभी से यह प्रश्न विवादपूर्ण रहा है कि सरकार द्वारा आय प्राप्त करने के लिए कर और लोक ऋण में से किस स्त्रोत को चुनना चाहिए। इस प्रश्न का कोई सार्वभौमिक उत्तर नहीं दिया जा सकता। लोक ऋण तथा करारोपण की तुलनात्मक सार्थकता को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(1) चालू व्यय या आयगत व्यय (Revenue Expenditure)- इन व्ययों में नागरिक, प्रशासन, पुलिस व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, व चिकित्सा आदि मदों पर होने वाले व्ययों को शामिल किया जाता है। इन व्ययों की पूर्ति करों द्वारा की जानी चाहिए क्योंकि-

(i) चालू व्यय का लाभ वर्तमान पीढ़ी को मिलता है इसलिए उसका भार भी वर्तमान पीढ़ी को ही वहन करना चाहिए।

(ii) चालू व्यय निरन्तर रूप से करने पड़ते हैं, इसलिए उनकी पूर्ति का भी एक नियमित स्त्रोत होना चाहिए। यदि इनकी पूर्ति ऋणों द्वारा की जाती है, इससे निश्चित ही देश व नागरिकों पर संचयी ऋण-भार बढ़ता जायेगा, जिसके फलस्वरूप बाद में सरकार को ऊँची-दर से करारोपण करना पड़ेगा।

(iii) चालू व्ययों को करों के बजाय यदि ऋणों द्वारा पूरा किया जाता है तो उससे फिजूलखर्ची को बढ़ावा मिलता है।

(2) पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure)— पूँजीगत व्यय में पूँजीगत सम्पत्ति जैसे सड़कें, रेल, बाँध, सिंचाई, पूँजीगत साज-सामान आदि पर होने वाला व्यय शामिल किया जाता है। इन व्ययों की पूर्ति के लिए ऋणों का ही समर्थन किया जाता है, क्योंकि-

(i) यह व्यय बड़ी राशि के होते हैं, जिनकी पूर्ति आयकर द्वारा सम्भव नहीं है।

(ii) पूँजीगत व्यय के लाभ तुरन्त न मिलकर लम्बे समय के बाद प्राप्त होते हैं। अत: इन व्ययों को करों द्वारा पूरा करने पर, नागरिकों पर अनावश्यक कर भार बढ़ जायेगा।

(iii) जिन व्ययों का लाभ भावी पीढ़ी को प्राप्त होना है, उनका भार भी भावी पीढ़ी पर डालना ही उचित होगा।

(3) आकस्मिक या संकटकालीन व्यय (Contingent Expenditure)बाढ़, अकाल, सूखा, तूफान, महामारी आदि संकटकालीन परिस्थितियों में किये जाने वाले लोक व्ययों की व्यवस्था हेतु सार्वजनिक ऋणों का सहारा लेना ही श्रेष्व है, क्योंकि-करों द्वारा तुरन्त अधिक आय एकत्र करना सम्भव नहीं है जबकि ऐसे संकटों से निपटने के लिए तुरन्त अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है। दूसरी बात यह है कि ऐसे संकटों के निवारण का लाभ वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी को भी मिलता है, अत: ऋणों द्वारा वित्त-व्यवस्था करने से व्यय का कुछ भार भावी पीढ़ी पर डाला जा सकता है।

(4) युद्धकालीन व्यय (War Expenditure)युद्धकालीन वित्त-व्यवस्था में एक लम्बे समय तक अत्याधिक धनराशि व्यय करनी पड़ती है जिसके लिए करों एवं ऋणों दोनों का समर्थन किया जाता है, क्योंकि

(i) केवल करों द्वारा प्राप्त आय से इस व्यय को चलाना सम्भव नहीं है।

(ii) अत्यधिक करारोपण से उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(iii) कर लगाकर तुरन्त धन एकत्रित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अकेले ऋणों से भी युद्ध का व्यय पूरा नहीं हो सकता क्योंकि ऋणों का भार भावी पीढ़ी पर पड़ता है। अतः युद्ध व्यय को पूरा करने के लिए करारोपण भी होना चाहिए और देशी व विदेशी दाना प्रकार के ऋण भी लेने चाहिए। परन्तु युद्ध वित्त में करों एवं ऋण का अनुपात बताना कठिन है। इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि युद्ध चलाने के लिए धन की व्यवस्था करते समय करों को ऋणों की सहायता मिलनी चाहिए न कि ऋणों को करों की। करों से धीरे-धीरे अधिक धनराशि इकट्ठी की जाये। ऋण, करों का स्थान नहीं ले सकते केवल उनका पूरक ही बन सकते हैं।

(5) आर्थिक विकास सम्बन्धी वित्त व्यवस्था (Development Finance)आर्थिक विकास की दृष्टि से जो योजनाएं चलाई जा सकती हैं, वह एक प्रकार से पूँजीगत व्यय-विनियोग का ही एक रूप है। इन योजनाओं पर बहुत बड़ी राशि में व्यय होता है तथा यह धनराशि केवल करों से नहीं जुटाई जा सकती। इस कारण विकास वित्त की व्यवस्था हेतु सार्वजनिक ऋण प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। अत: आर्थिक विकास सम्बन्धी वित्त व्यवस्था हेतु भी करों एवं ऋणों को समन्वित ढंग से अपनाया जाना चाहिए।

निष्कर्ष- उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दोनों में से केवल किसी एक को अपनाना सम्भव नहीं है। न तो इतने अधिक कर लगा दिये जायें कि अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगे और न ही इतने अधिक ऋण लेने चाहिये कि सरकार पर अनावश्यक ऋण भार उत्पन्न हो जाये। जहाँ तक सम्भव हो चालू आयगत व्ययों की पूर्ति करों द्वारा तथा पूँजीगत व्ययों की पूर्ति ऋणों द्वारा करनी चाहिए तथा दोनों के मध्य ऐसा समन्वय रखना चाहिए कि उससे देश के उत्पादन, वितरण, आर्थिक स्थायित्व और आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़े।

प्रश्न 26, किसी देश की अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक ऋण के प्रभावों को स्पष्ट कीजिये।

अथवा

सार्वजनिक ऋण से आप क्या समझते हैं? देश की अर्थव्यवस्था पर उसके प्रभाव का वर्णन कीजिए।

(Avadh, 2008)

अथवा

सार्वजनिक ऋण किन-किन उद्देश्यों के लिए लिया जाता है? सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभावों की विवेचना कीजिए।

(Avadh, 2007)

उत्तर-

सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव (Economic Effects of Public Debt)

सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव ऋण की मात्रा, ऋण की प्रकृति, ऋण की भवधि, ब्याज की दर तथा भुगतान की अवधि आदि बातों पर निर्भर करते हैं। सार्वजनिक प्रण देश की अर्थव्यवस्था को दो प्रकार से प्रभावित करते हैं-(i) ऋण लेते समय उनका प्रभाव करारोपण (Taxation) जैसा होता है, (ii) प्राप्त ऋण राशि को व्यय करते समय उनका प्रभाव सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) के रूप में होता है। सार्वजनिक ऋण का उत्पादन, वितरण, उपभोग तथा आर्थिक क्रियाओं पर निम्न प्रभाव पड़ता है-

1, उत्पादन पर प्रभाव (Effect on Production)

1, काम करने और बचत करने की शक्ति पर प्रभाव (Effect on the Ability to Work and Save)- यदि सरकार ऋण द्वारा प्राप्त धन को उत्पादन कार्यों पर व्यय करती । जिससे व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है तो इससे व्यक्तियों की कार्य करने भार बचत करने की शक्ति बढ़ जाती है। यदि इस राशि को ऐसे मदों पर व्यय किया जाता है

जिससे निर्धन व्यक्तियों की आय बढ़ जाती है तो भी उनके कार्य करने और बचत करने की शक्ति बढ़ती है। दूसरे, इन उत्पादक कार्यों में लगाये गये ऋणों के ब्याज व मूलधन के भुगतान के लिए करारोपण की आवश्कता नहीं होती है, क्योंकि इन ऋणों का भुगतान उत्पादक कार्यों में होने वाले लाभ में से कर दिया जाता है।

इसके विपरीत, यदि ऋण से प्राप्त राशि को अनुत्पादक कार्यों में लगाया गया है तब इन ऋणों के ब्याज व मूलधन को चुकाने के लिए व्यक्तियों पर कर लगाये जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों की काम करने और जचत करने की शक्ति घट जायेगी। दूसरे, यदि सरकार अपने चालू व्यय में कटौती करके ऋणों का भुगतान करती है और कटौती व्यय की उन मदों से की जाती है जिनसे उत्पादन में सहायता मिलती है तो भी इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

2, कार्य करने और बचत करने की इच्छा पर प्रभाव (Effect on the Desire to Work and Save)- सार्वजनिक ऋण के कार्य करने और बचत करने की इच्छा पर अनुकूल व प्रतिकूल दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। सरकारी ऋण बहुत सुरक्षित एवं सुविधाजनक होते हैं। अत: जनता सरकारी ऋण-पत्रों में रुपया लगाने के लिए धन बचाती है| और आय प्राप्त करती है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण काम करने और बचत करने की इच्छा पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं, परन्तु भुगतान करते समय इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब सरकार इन ऋणों के मूलधन व ब्याज का भुगतान करने के लिए करारोपण करती है तो व्यक्तियों के काम करने व बचत करने की इच्छा हतोत्साहित होती है। दूसरे, ऋण-पत्रों धारकों को निश्चित आय प्राप्त होने लगती है जिससे उनकी काम करने की इच्छा कम हो जाती है।

3, साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव (Effect on Diversion of Resources) सार्वजनिक ऋणों से साधनों का वर्तमान उद्योगों की ओर स्थानान्तरण हो जाता है। जब सरकार ऋण लेती है तो ऋणों से प्राप्त धन को प्राय: उन उद्योगों में लगाती है जिनमें व्यक्तियों ने धन नहीं लगाया है अथवा ऐसे उद्यमों में धन लगाती है जिनमें व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार साधनों के स्थानान्तरण से उत्पादन प्रोत्साहित होता है। इसके विपरीत, यदि सरकार ऋणों से प्राप्त धन को युद्ध-संचालन अथवा चालू व्यय घाटों की पूर्ति में व्यय करती है तो साधनों के इस प्रकार के हस्तान्तरण से उत्पादन हतोत्साहित होता है।

II, वितरण पर प्रभाव (Effect on Distribution)

यदि सरकारी ऋण-पत्र केवल धनिकों द्वारा ही क्रय किये जाते हैं और प्राप्त धन को निर्धन व्यक्तियों के लाभ के लिए व्यय किया जाता है तो देश में धन के वितरण का असमानता कम होगी, परन्तु वस्तु-स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत होती है। सरकारा ऋण-पत्र धनिकों द्वारा ही क्रय किये जाते हैं और उन्हें ही ब्याज के रूप में आय प्राप्त होता है, परन्तु ऋणों के भुगतान के लिए जो कर लगाया जाता है उनका भार मूलत: निधन व्यक्तियों पर ही पड़ता है। इसे डाल्टन ने ऋण का वास्तविक भार (Real Burden) कहा है। दूसरे, यदि सरकार द्वारा लिये गये ऋण छोटी-छोटी बचतों के रूप में हैं जिनको मुख्यतः छोटी-छोटी आय वाले व्यक्ति ही खरीदा करते हैं तो इस प्रकार के ऋणों के ब्याज का भुगतान सामान्यतः समाज के निर्धन वर्ग के व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है। फलस्वरूप धन की असमानता कुछ कम होगी, परन्तु ऐसे ऋण-पत्रों की संख्या कुल ऋण-पत्रों की तुलन में बहुत कम होती है। अत: सम्पूर्ण रूप से सरकारी ऋण-पत्रों पर दिये जाने वाले ब्याज,  भुगतानों से समाज में धन की असमानता बढ़ती है। तीसरे, यदि किसी देश में भारी मात्रा में ऋण लिये जाते हैं, विशेषकर युद्धकालीन ऋण (War-time Debts) तो एक ऐसे वर्ग का जन्म हो जाता है जो पूर्णतया अपना भरण-पोषण ऋण-पत्रों से प्राप्त होने वाले ब्याज से ही करता है। इससे भी धन की असमानता बढ़ती है।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त तीनों दशाएँ उसी समय उत्पन्न होती हैं जब सार्वजनिक-ऋण अनुत्पादक कार्यों में लगाया जाता है। यदि मूलत: ऋण उत्पादक कार्यों के लिए लिया जाता है या ऐसे कार्यों में लगाया जाता है जिससे निर्धन व्यक्ति ही लाभान्वित होते हैं तो धन की असमानता कुछ अंश तक कम हो जाती है।

III, उपभोग पर प्रभाव (Effect on Consumption)

यदि लोग सरकारी प्रतिभूतियों को अपनी वर्तमान आय में से खरीदते हैं तो उनकी वर्तमान उपभोग व कार्यक्षमता कम हो जायेगी। इसके विपरीत, जब लोगों द्वारा सरकारी प्रतिभूतियाँ अपनी पिछली बचतों में से खरीदी जाती हैं तो उनके वर्तमान उपभोग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ लोगों का मत है कि इससे उपभोग का स्तर बढ़ जाता है, क्योंकि एक तो उनका धन अति सुरक्षित प्रतिभूतियों में जमा हो जाता है और दूसरे उस ऋण पर एक निश्चित आय मिलने का आश्वासन हो जाता है। इससे समाज में अनावश्यक व्यय को प्रोत्साहन मिलता है, परन्तु जब सार्वजनिक ऋण का भुगतान करने के लिए भविष्य में कर लगाये जाते हैं तो जनता कर का भुगतान अपनी वर्तमान आय में से करती है। अत: जनता को अपना उपभोग कम करना पड़ता है।

प्रो० मेहता के अनुसार, “जो कुछ होता है, वह यह है कि भावी वर्षों में ऋण का भुगतान करने हेतु करारोपण का भी विस्तार किया जाता है, उसके फलस्वरूप व्यक्तियों को अपने व्यय में कटौती करनी पड़ती है। इसलिये यह कहा जाता है कि सार्वजनिक ऋण वर्तमान उपभोग में तो कोई कटौती नहीं करता, परन्तु भावी उपभोग में आवश्यक कटौती करता है।”

IV, आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर प्रभाव (Effect on the Level of Economic Activities)

सार्वजनिक ऋण देश की आर्थिक क्रियाओं और रोजगार तथा मूल्य-स्तर पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। सरकार अपने व्यय द्वारा देश के रोजगार और उद्योग में वांछनीय परिवर्तन किया करती है। सरकार व्यापार, उद्योग, रोजगार तथा मूल्य-स्तर को द्रव्य की मात्रा द्वारा नियमित करती है। मुद्रा-स्फीति की दशा में सरकार व्यक्तियों से ऋण लेती है, जिससे समाज में मुद्रा की चलन में मात्रा कम हो जाती है और व्यक्तियों की क्रय-शक्ति घट जाती है और मूल्य-स्तर गिर जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण मुद्रा-स्फीति को रोकने का एक प्रभावपूर्ण साधन है।

दूसरे, जब देश में व्यापारिक मन्दी आ जाती है, मूल्य, उत्पादन एवं उपभोग-स्तर गिर जाता है, बेरोजगारी बढ़ जाती है तथा साख संस्थाओं की स्थिति खराब हो जाती है तो सरकार अपनी प्रतिभूतियों की जमानत पर केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर उसे रेलों, सड़कों, नहरों, पुलों तथा नये-नये कारखानों पर व्यय करती है जिससे रोजगार की मात्रा बढ़ जाती है भार लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ जाती है, मूल्य में वृद्धि होने लगती है और व्यापार की शिथिलता दूर हो जाती है।


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