Bcom 2nd Year Public Finance Effect of public Expenditure

Bcom 2nd Year Public Finance Effect of public Expenditure

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Bcom 2nd Year Public Finance Effect of public Expenditure
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लोकव्यय के प्रभाव (Effects of Public Expenditure)

प्रश्न 11, किसी देश की अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक व्यय के प्रभावों की विवेचना कीजिये।

(Garhwal, 2008)

उत्तर-

सार्वजनिक व्यय के आर्थिक प्रभाव (Economic Effects of Public Expenditure)

 

प्राचीन समय में सार्वजनिक व्यय को अनुत्पादक व्यय माना जाता था और इस सम्बन्ध में परम्परावादी अर्थशास्त्रियों एडम स्मिथ, रिकार्डो एवं मिल का दृष्टिकोण बहुत संकुचित था। एडम स्मिथ का विचार था कि, लोक व्यय एक प्रकार से अपव्यय है। उनका कहना था कि जनता अपने पैसे को अपने आप अधिक अच्छी प्रकार से व्यय कर सकती है, अतः राज्य (सरकार) को आर्थिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए एवं सरकार को केवल देश की सुरक्षा, न्याय तथा कुछ सीमा तक सार्वजनिक निर्माण पर ही व्यय करना चाहिए। इसके विपरीत आधुनिक अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि सार्वजनिक व्यय का उत्पादन, वितरण एवं आर्थिक क्रियाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। आज के युग में सार्वजनिक व्यय का केवल यही महत्व नहीं है कि इससे सरकार अपने कार्य को पूरा करती है, वरन् सार्वजनिक व्यय तो सरकारी नीतियों को कार्यान्वित करने का, एक आवश्यक माध्यम बन गया है।

वस्तुत: अर्थव्यवस्था के प्रत्येक अंग अर्थात् उत्पादन, वितरण, रोजगार, मूल्य-स्तर, सामाजिक कल्याण तथा आर्थिक विकास पर सार्वजनिक व्यय का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसके साथ-साथ यह भी सच है कि लोक व्ययों का अर्थव्यवस्था पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है और बुरा प्रभाव भी पड़ सकता है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि सार्वजनिक व्यय के विभिन्न आर्थिक क्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का गहन विश्लेषण किया जाये ताकि सार्वजनिक व्ययों की वास्तविकता का पता लग सके। सार्वजनिक व्यय के आर्थिक प्रभावों का हम निम्न तीन शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं-

(I) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव (II) वितरण पर प्रभाव, (III) अन्य प्रभाव।

(I) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव (Effects of Public Expenditure on Production)

सार्वजनिक व्यय राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि करता है या कमी करता है ? इसके द्वारा व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति प्रोत्साहित होती है या निरूत्साहित होती है ? बड़े ही विवादग्रस्त विषय हैं। वर्तमान समय में अधिकतर अर्थशास्त्रियों एवं विद्वानों का यही मानना है कि प्राय: प्रत्येक प्रकार का सार्वजनिक व्यय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, अल्पकाल में या दीर्घकाल में राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि करता है। जो सार्वजनिक व्यय औद्योगिक विकास पर किया जाता है, वह तो उत्पादन को बढ़ाता ही है परन्तु जो लोक व्यय सामाजिक सेवाओं पर किया जाता है, वह भी लोगों की कार्यकुशलता बढ़ाकर अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादन बढ़ाता है। प्रो० डाल्टन ने सार्वजनिक व्यय के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचन निम्न तीन प्रकार से किया है-

(1) कार्य करने एवं बचत करने की क्षमता पर प्रभाव, (2) कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर प्रभाव, (3) आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव।

(1) कार्य करने एवं बचत करने की क्षमता पर प्रभाव- सार्वजनिक व्यय, देशवासियों की कार्य करने एवं बचत करने की क्षमता को निम्न प्रकार से प्रभावित कर सकते

(अ) लोगों की क्रय-शक्ति में वृद्धि करके- लोक व्यय से अनेक व्यक्तियों को आय प्राप्त होती है और उनकी क्रय-शक्ति बढ़ती है। पेंशन, भत्ते, बेरोजगारी एवं बीमारी लाभ और वस्तुओं तथा सेवाओं पर किया गया व्यय व्यक्तियों की क्रय-शक्ति में वृद्धि करते हैं जिसके फलस्वरूप उनके जीवन-स्तर में वृद्धि होती है तथा कार्य क्षमता बढ़ती है। कार्य-क्षमता में वृद्धि होने से उनकी आय में और भी अधिक वृद्धि होती है जिसके कारण उनकी बचत करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है। बचत करने की क्षमता में वृद्धि होने पर देश में पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है। पूँजी निर्माण के कारण अधिक विनियोग होने से देश का उत्पादन बढ़ता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय उत्पादन को प्रभावित करता है। इस प्रकार का व्यय निर्धन व्यक्तियों और बच्चों के लिए तो बहुत ही लाभप्रद होता है।

इस प्रभाव के सन्दर्भ में एक आलोचना भी की जाती है कि यदि निर्धनों को प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता नकदी के रूप में दी जाती है तो यह वर्ग अपनी अशिक्षा, अज्ञानता और दृष्टिकोण के कारण या तो कुछ समय के लिए काम करना स्थगित कर सकता

है या शराब, जुआ, इत्यादि में बरबाद कर सकता है। यह आलोचना कुछ समय तक सही भी हो सकती है, लेकिन इस सन्दर्भ में निम्न दो बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए

(i) क्रय शक्ति में वृद्धि एक साथ या आकस्मिक रूप से न होकर धीरे-धीरे की जाये तथा

(ii) यदि सम्भव हो तो क्रय शक्ति में वृद्धि नकदी में प्रदान न करके वस्तुओं या सेवाओं के रूप में प्रदान की जाये।

(ब) वस्तुओं और सेवाओं की सुविधा- यदि सार्वजनिक व्यय के माध्यम से विशेष रूप से निर्धन लोगों को नि:शुल्क अथवा रियायती दर पर वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान की जाती हैं, जैसे निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएँ, सस्ता भोजन एवं रियायती आवास आदि तो इससे लोगों की कार्यक्षमता में वृद्धि की जा सकती है।

(स) उत्पादन वृद्धि में सहायक सुविधायें विकसित करना- लोक व्यय के द्वारा सरकार ऐसी सुविधाओं को विकसित कर सकती है जो उत्पादन कार्य में सहायक होती हैं। इनमें रेल, सड़क, सिंचाई तथा शक्ति की सुविधायें उल्लेखनीय हैं। अविकसित क्षेत्रों में रेलों और सड़कों का विकास होने से सामान्य उत्पादन में वृद्धि होती है। सिंचाई के साधनों का विकास होने से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है और विद्युत शक्ति के विकास से उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है।

(द) बचत करने की क्षमता पर प्रभाव- जब सार्वजनिक व्यय के द्वारा लोगों की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है तो लोगों की आय भी बढ़ती है और जनता की बचत करने की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सार्वजनिक व्यय का व्यक्तियों की कार्य क्षमता एवं बचत क्षमता पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यदि सार्वजनिक व्यय से व्यक्तियों की कार्य क्षमता और बचत क्षमता पर अच्छा (अनुकूल) प्रभाव पड़ता है तो दीर्घकाल में उत्पादन में वृद्धि होगी।

 

(2) कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर प्रभाव- सार्वजनिक व्यय का जनता की कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका मूल्यांकन करना कठिन है क्योंकि यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। फिर भी इसका अध्ययन निम्न दो शीर्षको के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(अ) वर्तमान व्ययों का प्रभाव- सरकार द्वारा किये जाने वाले वर्तमान व्यय स लोगों की काम करने एवं बचत करने की इच्छा को प्रोत्साहन मिलता है और फलस्वरूप उनकी आय व जीवन स्तर में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि वर्तमान सार्वजनिक व्यय लोगों के काम करने एवं बचत करने की इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है क्योंकि वे कम काम करके ही उतना धन प्राप्त कर लेते हैं जितना उनका आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त है और इस प्रकार उनकी कार्य करने का इच्छा कम हो जाती है। परन्तु यह तर्क पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि अधिकतर व्यक्ति अपने वर्तमान जीवन स्तर से सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि वे अपने जीवन स्तर को और अधिक ऊंचा करना चाहते हैं। अत: उनकी कार्य करने की इच्छा कम नहीं होती।

(ब) भविष्य सम्बन्धी व्यय- भविष्य में सार्वजनिक व्यय से प्राप्त होने वाले लाभ की आशा, कार्य करने व बचत करने की इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। पेंशन, नाविडेन्ट फण्ड, बेरोजगारी भत्ता एवं सामाजिक बीमा आदि के रूप में किया जाने वाला सार्वजनिक व्यय लोगों को भविष्य के प्रति आश्वस्त कर देता है जिसके कारण उनकी कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा कम हो जाती है। परन्तु यदि सामाजिक व्यय शर्त सहित होता है तो इसका कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जैसे बीमारी तथा बेरोजगारी का भत्ता तभी मिले जब व्यक्ति कुछ समय तक स्वयं काम करें एवं अपना अंशदान (Contribution) भी दें।

(3) आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव- सार्वजनिक व्यय के परिणामस्वरूप आर्थिक साधनों का एक व्यवसाय अथवा क्षेत्र से दूसरे व्यवसाय अथवा क्षेत्र में अनिवार्य रूप से स्थानान्तरण होता है। यदि यह स्थानान्तरण सही क्षेत्र में होता है तो उत्पादन पर अनुकूल प्रभाव डालता है जबकि गलत क्षेत्र में स्थानान्तरण होने पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

प्राचीन अर्थशास्त्रियों का विचार था कि सार्वजनिक व्यय के द्वारा साधनों का स्थानान्तरण सदैव हानिकारक होता है क्योंकि लोक व्यय से साधनों का उचित प्रयोग नहीं हो पाता। उनका विचार था कि स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था (जिसमें सरकार का नियन्त्रण बिल्कुल न हो) में आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण सर्वोत्तम होता है। परन्तु वर्तमान में इस विचारधारा का पालन करने के स्थान पर प्राय: प्रत्येक देश की सरकार सार्वजनिक व्यय के माध्यम से आर्थिक साधनों को स्थानान्तरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।

सार्वजनिक व्यय के द्वारा आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण मुख्यत: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दो तरीके से होता है

प्रत्यक्ष स्थानान्तरण- प्रत्यक्ष स्थानान्तरण में राज्य (सरकार) स्वयं साधनों का उपयोग करता है। सरकार की ओर से सुरक्षा, नागरिक प्रशासन, समाज सेवाओं, उद्योगों के राष्ट्रीयकरण तथा उत्पादन को विभिन्न प्रकार से सहायता प्रदान करने हेतु जो भी व्यय किया जाता है, वह सब साधनों का प्रत्यक्ष स्थानान्तरण ही है। प्रश्न यह है कि प्रत्यक्ष स्थानान्तरण से सम्बन्धित सार्वजनिक व्ययों का उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ता है ? सुरक्षा व्यय से प्रत्यक्ष रूप में उत्पादन में वृद्धि नहीं होती, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से सुरक्षा की उचित व्यवस्था के कारण देश की अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का अवसर प्राप्त होता है। इसी प्रकार नागरिक प्रशासन तथा समाज कल्याण सेवाओं पर किया गया व्यय भी लोगों की कार्यक्षमता में वद्धि करता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। उत्पादन कार्यों के लिए प्रत्यक्ष सहायता के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है।

अप्रत्यक्ष स्थानान्तरण- अप्रत्यक्ष स्थानान्तरण के अन्तर्गत आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण अथवा उपयोग सरकार द्वारा नहीं किया जाता बल्कि वह सार्वजनिक व्यय इस प्रकार करती है कि आर्थिक साधन उत्पादक कार्यों की ओर अपने आप ही स्थानान्तरित होने लगते हैं। उदाहरण के लिये सरकार सिंचाई के साधनों पर व्यय करके किसानों में यह रुचि पदा करती है कि वे सिंचाई सुविधा का प्रयोग कर न केवल कृषि उत्पादन बढाएँ बल्कि साधनों को ऐसी फसलें पैदा करने में लगायें जो पानी की कमी के कारण पहले नहीं बोई जाती थीं। लोक व्यय के द्वारा विद्युत शक्ति का विकास तथा यातायात के साधनों का विकास होने से आम जनता को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि वे अपना धन उद्योग धन्धों में लगायें। हम व्यवहार में देखते भी हैं कि सड़कों और रेलों की व्यवस्था होने से प्रभावित क्षेत्रों में उद्योग-धन्धे खुलने लगते हैं क्योंकि रेलों और सड़कों के कारण इन क्षेत्रों का सम्बन्ध अन्य उत्पादक-केन्द्रों से हो जाता है एवं उत्पादित माल सरलतापूर्वक बाजार तक पहुँचाया जा सकता है।

सार्वजनिक व्यय के माध्यम से उत्पत्ति के साधनों का स्थानान्तरण एक स्थान से दूसरे स्थान को भी होता है। अविकसित क्षेत्रों में उद्योग धन्धों का विकास करने के लिए सरकार उस क्षेत्र के उत्पादकों को ऋण, अनुदान आदि देकर या स्वयं उद्योग धन्धों की स्थाना करके इस क्षेत्र को साधनों का स्थानान्तरण कर सकती है। सार्वजनिक व्यय से उत्पत्ति के साधन वर्तमान उपयोगों से भावी उपयोगों में भी हस्तान्तरित होते हैं। सिंचाई, परिवहन, बिजली आदि के विकास से देश की भावी उत्पादन शक्ति का विकास होता है। वास्तव में प्रत्येक सरकार का पूँजीगत व्यय साधनों का भविष्य हेतु स्थानान्तरण ही है क्योंकि वर्तमान में साधनों का उपयोग करने के स्थान पर भविष्य में उनको उत्पादन में लगाया जाता है। हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में जो विभिन्न विकास योजनाएँ पूरी की जा रही हैं वह उत्पत्ति के साधनों का भविष्य में स्थानान्तरण ही है। इस दृष्टि से सार्वजनिक व्यय का बहुत महत्व है।

 

(II) सार्वजनिक व्यय का वितरण पर प्रभाव (Effects of Public Expenditure on Distribution)

सार्वजनिक व्यय का प्रभाव केवल उत्पादन पर ही नहीं बल्कि धन एवं आय के वितरण पर भी पड़ता है। यदि सार्वजनिक व्यय से निम्न वर्ग को अधिक सुविधाएँ मिलती हैं, तो इससे धन के वितरण की असमानताएँ कम होती हैं।

 

डॉ० डाल्टन ने सार्वजनिक व्ययों को प्रगतिशील (Progressive) आनुपातिक (Proportional) एवं प्रतिगामी (Regressive) तीन भागों में बाँटा है, जिनकी संक्षिप्त विवेचना इस प्रकार है-

प्रगतिशील व्यय वह व्यय है जिसके अन्तर्गत कम आय वालों पर अधिक अनुपात में व्यय किया जाता है।

आनुपातिक व्यय वह होता है, जब व्यक्ति की चाहे जो आय हो, उसे अपनी आय के अनुपात में ही लाभ प्राप्त होता है, जैसे-सब कर्मचारियों को उनके वेतन का 10 प्रतिशत मकान किराया भत्ता दिया जाये। इस प्रकार के व्यय से असमानता दूर नहीं की जा सकती।

प्रतिगामी व्यय उस सार्वजनिक व्यय को कहते हैं जिसके अन्तर्गत जिन व्यक्तियों की आय कम होती है, उन पर सार्वजनिक व्यय आनुपातिक रूप से कम होता है। जैसे कि उच्च वेतन प्राप्त अधिकारी को नि:शुल्क आवास दिया जाये तथा कम वेतन वाले को न दिया जाये तो यह प्रतिगामी व्यय होगा। इससे आय के वितरण में समानता नहीं लाई जा सकती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रगतिशील व्यय के द्वारा ही आय की असमानता को दूर किया जा सकता है। प्रगतिशील व्यय कई प्रकार से किया जा सकता है, जैसे-नकद सहायता देकर (वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी, बीमारी एवं दुर्घटना के समय), निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान कर अथवा रियायती दर पर वस्तुएँ प्रदान कर। इससे निर्धन लोगों के जीवन-स्तर को ऊँचा बनाया जा सकता है।

(III) सार्वजनिक व्यय के अन्य प्रभाव (Other Effects of Public Expenditure) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन एवं वितरण पर तो प्रभाव पड़ता ही है, साथ ही इसके कुछ अन्य प्रभाव भी होते हैं। सार्वजनिक व्यय के अन्य प्रभावों का अध्ययन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) लोक व्यय एवं आर्थिक स्थायित्व- आर्थिक स्थायित्व से अभिप्राय मन्दी और तेजी काल को नियन्त्रित करने से है। आर्थिक स्थिरता लाने के लिए सार्वजनिक व्यय को एक आवश्यक यन्त्र माना गया है। आर्थिक स्थिरता के दृष्टिकोण से लोक व्यय के प्रभाव को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है

(अ) लोक व्यय एवं मन्दीकाल- मन्दीकाल में वस्तुओं की माँग कम हो जाती है और बेरोजगारी में वृद्धि हो जाती है। इस स्थिति में सार्वजनिक व्यय क्षतिपूरक व्यय के रूप में कार्य करता है। मन्दी काल में सरकार नवीन उद्योगों की स्थापना करके माँग व रोजगार को बढ़ाकर मन्दी के प्रभाव को कम करती है। सरकारी व्यय इस ढंग से किए जाते हैं कि उसके गुणक प्रभाव अधिक-से-अधिक हों तथा वह अर्थव्यवस्था को मन्दी की स्थिति से बाहर निकालने में प्रोत्साहित कर सकें।

(ब) लोक व्यय एवं तेजीकाल- तेजीकाल में मुद्रा की मात्रा में अधिकता और वस्तुओं की पूर्ति में कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि की स्थिति पायी जाती है। ऐसी दशा में मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण के लिए अनुत्पादक लोक व्ययों में यथासम्भव कमी की जाये तथा ऐसी मदों एवं योजनाओं पर अधिक व्यय किया जाये जो बहुत कम समय में देश में वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करके मुद्रा स्फीति के प्रभावों को कम कर सकें।

(2) लोक व्यय एवं रोजगार- देश में रोजगार स्तर को उठाने में लोक व्यय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इस दृष्टि से लोक व्यय में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिएँ |

(i) देश में उद्योगों एवं अन्य उत्पादक क्रियाओं को प्रोत्साहित किया जाये तथा बन्द होने की सम्भावना वाले उद्योगों को वित्तीय सहायता दी जाये,

(ii) सरकार स्वयं कुछ उद्योगों का संचालन करे,

(iii) सार्वजनिक निर्माण कार्य को प्रोत्साहित किया जाये,

(iv) रोजगार उन्मुख कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया जाये।

वास्तविकता यह है कि रोजगार स्तर पर लोक व्यय का प्रभाव बहत कछ इस तथ्य पर निर्भर करेगा कि उत्पादन और वितरण पर लोक व्यय का प्रभाव कैसा पड रहा है।

(3) लोक व्यय एवं आर्थिक विकास- लोक व्यय और आर्थिक विकास का घनिष्ट सम्बन्ध है। आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में जब बचत और पँजी निर्माण की मान धीमी होती है तो विकास के लिए निजी पहल का अभाव होता है, देश में आधारभूत संरचना । अभाव होता है तथा क्षेत्रीय विकास में काफी असन्तुलन होता है लोक व्यय न निक समस्याओं के सुलझाने में महत्वपूर्ण उपकरण का कार्य करता है।

निष्कर्ष- उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किसी देश की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक व्यय की महत्वपूर्ण भूमिका है। सार्वजनिक व्यय की उचित नीति से बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन मिलता है, उत्पादन में वृद्धि होती है, देश का आर्थिक विकास होता है तथा आर्थिक असमानता दूर होती है। इसके विपरीत सार्वजनिक व्यय की दोषपूर्ण नीति के कारण अर्थव्यवस्था पर इसके प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकते हैं। बढ़ते हुए सार्वजनिक व्ययों में निहित खतरें बढ़ते हुए सार्वजनिक व्ययों के कारण देश को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है |

(i) सार्वजनिक व्ययों को पूरा करने के लिये सरकार द्वारा आन्तरिक तथा विदेशी दोनों प्रकार के ऋण लिये जाते हैं तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में सार्वजनिक ऋणों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हुई है। इससे सरकार पर सार्वजनिक ऋणों की राशि एवं उन पर ब्याज भुगतान का दायित्व काफी बढ़ गया है।

(ii) सार्वजनिक व्ययों को पूरा करने के लिये सरकार घाटे के बजट बनाती है जिससे देश में मुद्रा-स्फीति की समस्या उत्पन्न हुई है। इससे देश में निर्यातों में कठिनाई आई है तथा आयातों को बढ़ावा मिला है।

(iii) बढ़ते हुए सार्वजनिक व्यय ने फिजूलखर्ची एवं अपव्यय को बढ़ावा दिया है। राजनेता एवं नौकरशाह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये सरकारी धन को बड़ी बेरहमी से खर्च करते हैं।

(iv) भारत में सार्वजनिक व्यय का एक बड़ा भाग गैर विकास व्ययों जैसे प्रशासन, सुरक्षा, कर संग्रहण आदि पर किया जाता है जिससे विकास कार्यों की अवहेलना होती है।

(v) सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण देश में काले धन को बढ़ावा मिला है जो देश की अर्थव्यवस्था पर कई प्रकार के दुष्प्रभाव डालता है।

(vi) सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण हीनार्थ प्रबन्धन पर आश्रितता बढ़ती जा रही है तथा राजकोषीय घाटे में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। ,


Effect of public Expenditure


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