Bcom Business Management Concept Nature Significance and work Notes

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Bcom Business Management Concept Nature Significance and work Notes
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प्रबन्ध : अवधारणा, प्रकृति, महत्त्व तथा कार्य [Management : Concept, Nature, Significance and Work]

प्रश्न 1, प्रबन्ध को परिभाषित कीजिये तथा इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइये। आधुनिक व्यवसाय में इसके महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

अथवा

प्रबन्ध को परिभाषित कीजिये। आधुनिक व्यवसाय में इसकी महत्ता बताइये।

अथवा

“प्रबन्ध व्यक्तियों से कार्य कराने की कला है।टिप्पणी कीजिए तथा प्रबन्ध के महत्त्व को भी समझाइये।

(Rohilkhand Bareilly, 2008)

अथवा

आधुनिक युग में प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्त्व के कारणों की विवेचना क्रीजिए।

(Garhwal, 2010)

उत्तर- ‘प्रबन्ध’ एक व्यापक शब्द है, जिसे आधुनिक व्यावसायिक जगत में वभिन्न अर्थों में प्रयोग किया जाता है। संकुचित अर्थ में इससे आशय ‘अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति’ से है। इस दृष्टि से जो व्यक्ति अन्य लोगों से काम कराने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ‘प्रबन्धक’ कहते हैं। व्यापक अर्थ में प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उत्पादन के वभिन्न घटकों में समन्वय स्थापित करता है। इस दृष्टि से यह स्वयं उत्पादन का एक महत्वपूर्ण घटक है। उत्पादन के विभिन्न साधनों में भूमि, पूँजी व मशीन गैर-मानवीय नाधन हैं, जबकि श्रम, साहस व प्रबन्ध मानवीय साधन हैं। यद्यपि उत्पादन के ये सभी साधन अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं, किन्तु ‘प्रबन्ध’ इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यह वह आर्थिक साधन है जो उत्पादन के अन्य साधनों को एकत्र करता :, भविष्य के लिए नियोजन करता है, संस्था में संगठनात्मक कलेवर का निर्माण रता है, व्यावसायिक क्रियाओं का निर्देशन व संचालन करता है, उनमें आवश्यक समन्वय स्थापित करता है तथा समस्त क्रियाओं पर नियन्त्रण रखता है। संक्षेप में, प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो संस्था के सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वभिन्न व्यक्तियों के व्यक्तिगत व सामूहिक प्रयासों के नियोजन, संगठन, नर्देशन, समन्वय एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता है।”

प्रबन्ध की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF MANAGEMENT)

विभिन्न विद्वानों ने प्रबन्ध की परिभाषाएँ अपने-अपने दृष्टिकोण से दी है प्रबन्ध की उपरोक्त अवधारणाओं के अध्ययन के उपरान्त इसके अर्थ को और अधिक स्पष्टता के साथ समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ नीचे प्रस्तुत की जा रही हैं

1, स्टेनले वेन्स (Stanley Vance) के अनुसार, “प्रबन्ध केवल निर्णय लेने तथा मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण करने की विधि है, जिससे पूर्व-निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।”

विवेचना- इस परिभाषा से प्रबन्ध के निम्नलिखित लक्षणों का आभास होता है–

(i) प्रबन्ध एक प्रक्रिया है,

(ii) इस प्रक्रिया के माध्यम से निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की जाती है, और

(iii) यह लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु, निर्णयन व नियन्त्रण पर बल देती है।

इस परिभाषा में प्रबन्ध के अन्य कार्यों का समावेश न होने के कारण यह परिभाषा अपूर्ण है।

2, किम्बाल व किम्बाल के अनुसार, “विस्तृत रूप से प्रबन्ध उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उद्योग में मानव व माल को नियन्त्रित करने के लिए जो

आर्थिक सिद्धान्त लागू होते हैं, उन्हें प्रयोग में लाया जाता है।”

3, रोस मूरे के अनुसार, “प्रबन्ध से आशय निर्णयन से है।”

विवेचना- यह परिभाषा अत्यन्त संकुचित है, क्योंकि इसके अनुसार केवल निर्णयन ही प्रबन्ध है।

4, हेनरी फेयोल के अनुसार, “प्रबन्ध करने से आशय पूर्वानुमान लगाने एवं योजना बनाने, संगठन की व्यवस्था करने, निर्देश देने, समन्वय करने तथा नियन्त्रण करने से है।”

विवेचनाइस परिभाषा में लेखक ने प्रबन्ध के कार्यों की व्याख्या की है, किन्तु उन्होंने प्रबन्ध के समस्त कार्यों की ओर संकेत नहीं किया है (जैसे अभिप्रेरणा व निर्णयन)।

5, जेम्स एल० लुण्डी के अनुसार, “प्रबन्ध मुख्यत: विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दूसरों के प्रयत्नों को नियोजित, समन्वित, प्रेरित तथा नियन्त्रित करने का कार्य

विवेचनाचूँकि इस परिभाषा में प्रबन्ध के अधिकांश कार्यों का समावेश किया गया है, अतः इसे उपयुक्त परिभाषा कहा जा सकता है।

6, जार्ज आर० टेरी के अनुसार, “प्रबन्ध एक पृथक् प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, क्रियान्वयन तथा नियन्त्रण को सम्मिलित किया जाता है तथा इनका व्यवसाय प्रबन्ध के सिद्धान्त निष्पादन व्यक्तियों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित व प्राप्त करने के लिए किया जाता है।” [यह प्रबन्ध की काफी विस्तृत परिभाषा है।

7, पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, “प्रबन्ध एक बहु-उद्देशीय तन्त्र है जो व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबन्धकों का प्रबन्ध करता है और कर्मचारियों तथा उनके कार्य का प्रबन्ध करता है।’

8, आर० सी० डेविस के अनुसार, “प्रबन्ध मुख्यतः एक मानसिक क्रिया है, यह कार्य के नियोजन, संगठन एवं सामूहिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु अन्य व्यक्तियों का नियन्त्रण करने से सम्बन्ध रखता है।”

9, विलियम एच० न्यूमैन के अनुसार, “किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी व्यक्ति समूह के प्रयत्नों का मार्गदर्शन, नेतृत्व व नियन्त्रण ही प्रबन्ध कहलाता है।” [इस परिभाषा में भी प्रबन्ध के केवल तीन कार्यों का ही समावेश किया गया है।

10, लारेन्स ए० एप्पले के अनुसार, “प्रबन्ध वस्तुओं का निर्देशन नहीं वरन् व्यक्तियों का विकास है।”

निष्कर्ष- उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो संस्था के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संगठन में कार्यरत व्यक्तियों के प्रयासों के नियोजन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरणा व नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता है।

प्रबन्ध के लक्षण अथवा विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF MANAGEMENT)

‘प्रबन्ध’ की उपर्युक्त अवधारणाओं व परिभाषाओं के अध्ययन से इसकी निम्नलिखित विशेषताओं का पता चलता है

1, प्रबन्ध एक प्रक्रिया है (Management is a process)- प्रबन्ध एक प्रक्रिया का नाम है जो उस समय तक चलती है जब तक कि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती। प्रक्रिया के रूप में इसके अन्तर्गत नियोजन,, संगठन, निर्देशन, नेतृत्व, अभिप्रेरणा एवं नियन्त्रण आदि तकनीकें शामिल हैं।

2, प्रबन्ध उद्देश्य-पूरक प्रक्रिया (Management is n mission-oriented process)- प्रबन्ध संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति का एक साधन है, न कि स्वयं में कोई लक्ष्य। इस लक्षण ने आज ‘उद्देश्यों व परिणामों द्वारा प्रबन्ध’ (Management by objectives and results) जैसी समुन्नत तकनीकों के विकास में सहयोग दिया है।

3, प्रबन्ध एक रामाजिक प्रक्रिया है (Management is a social process)— प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है, क्योंकि इसे मानवीय संसाधनों का उपयोग करना पड़ता है तथा अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति हेतु समूह के सभी सदस्यों को अभिप्रेरित करना पड़ता है।

4, प्रबन्ध मानवीय क्रिया है (Management is a human activity)- प्रबन्ध विशुद्ध रूप से मानवीय क्रिया है। इसी कारण लारेन्स एप्पले का कहना है कि ‘प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन।

5, प्रबन्ध अधिकार सत्ता की प्रणाली है (Management is a system or authority)- प्रबन्ध को अधिकार सत्ता की प्रणाली माना गया है, क्योंकि प्रबन्धक ही कार्य निष्पादन हेतु आदेश-निर्देश देते हैं, कार्य-प्रगति का मूल्यांकन करते हैं, नियम-विनियम बनाते हैं तथा अधीनस्थों का नेतृत्व करते हैं।

6, प्रबन्ध एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता सभी स्तरों पर हैं (Management is a continuous process and is needed at all levels)— प्रबन्ध की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है एवं इसकी आवश्यकता संगठन के सभी स्तरों पर पड़ती है।

7, प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान दोनों ही है (Management is an art as well as science)- प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान दोनों ही है। प्रबन्ध का वैज्ञानिक पक्ष सिद्धान्तों एवं नियमों का विकास करता है तथा कला पक्ष उन्हें प्रबन्ध के क्षेत्र में व्यावहारिक तौर पर लागू करता है।

8, प्रबन्ध एक पेशा है (Management is a profession)— प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि प्रबन्धक बनाए नहीं जा सकते वे तो पैदा होते हैं, परन्तु आज प्रबन्ध एक प्रोफेशन या पेशा है और प्रबन्धक वे पेशेवर व्यक्ति हैं जो प्रबन्ध-कार्य को करते हैं।

प्रबन्ध के बढ़ते महत्त्व के कारण (INCREASING IMPORTANCE OF MANAGEMENT)

वर्तमान समय में प्रबन्ध का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

1, व्यवसाय के आकार तथा उसकी जटिलताओं में वृद्धि- आधुनिक युग में आर्थिक विकास के साथ-साथ औद्योगिक इकाइयों के आकार में भी वृद्धि होती जा रही है। परिणामस्वरूप उत्पादन, विपणन, वित्त, कर्मचारी सम्बन्ध एवं समन्वय से सम्बन्धित समस्याएँ दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं। बढ़ते हुए सरकारी नियन्त्रण तथा वृहद्-आकारीय संस्थाओं में विकेन्द्रित व्यवस्था अपनाये जाने के कारण कठिनाइयाँ और भी बढ़ गई हैं। नवीन व्यवसाय के निर्माण तथा विद्यमान संस्थाओं के विकास व विस्तार के कार्य में भी अनेक वैधानिक औपचारिकताओं तथा जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। आज की इन औद्योगिक जटिलताओं का समाधान केवल सुव्यवस्थित प्रबन्ध द्वारा ही किया जा सकता है। प्रबन्ध के सहयोग से संगठन की जटिल समस्याओं का समाधान सुगमता से कर लिया जाता है। स्पष्ट है कि वृहद-आकारीय कम्पनियों का कुशल संचालन प्रबन्ध विशेषज्ञों की सहायता के बिना असम्भव है।

2, न्यूनतम प्रयत्नों से अधिकतम, श्रेष्ठतम एवं सस्ता उत्पादन करने के लिएप्रबन्ध, नियोजन के माध्यम से श्रेष्ठतम विकल्प का चयन करके, संगठन द्वारा मानवीय व भौतिक साधनों को एकत्रित करके तथा समन्वय, अभिप्रेरण आदि कागो के द्वारा न्यूनतम लागत पर वस्तुओं व सेवाओं का अधिकतम व श्रेष्ठतम त्पादन कर सकता है। अन्य कोई शक्ति ऐसा करने में असमर्थ है। कुशल प्रबन्ध बारा उपक्रम में होने वाले विभिन्न अपव्ययों को नियन्त्रित कर लागत नियन्त्रण किया जाता है जिससे उत्पादन सस्ता और अच्छा होता है। स्पष्ट है कि प्रवन्ध तकनीक का उपयोग करके न्यूनतम प्रयत्नों से अधिकतम परिणामों को प्राप्त किया जा सकता है।

उर्विक (Urwick) के अनुसार, “कोई भी विचारधारा, कोई भी वाद, कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त प्रदत्त मानवीय एवं भौतिक साधनों के उपयोग से न्यूनतम प्रयत्न के द्वारा अधिकतम उत्पादन की प्राप्ति नहीं कर सकता है।

3, उत्पत्ति के साधनों के प्रभावपूर्ण उपयोग के लिएआज प्राय: सभी लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि कुशल प्रबन्ध के द्वारा ही उत्पादन के साधनों का सदुपयोग किया जा सकता है। “प्रबन्ध ही एकमात्र ऐसा साधन है जो सम्पूर्ण उपक्रम को जीवन और संवेग प्रदान करता है। प्रवन्ध चार्य को कला के कारण ही अमेरिका व जापान ने प्राकृतिक सम्पदा का समुचित विदोहन किया है और ये राष्ट्र आज औद्योगिक प्रगति में अग्रणी समझे जाते है, किन्तु प्रबन्ध के अभाव के कारण भारत आज भी ‘प्रचुरता के मध्य गरीब देश’ है।”

पीटर एफ० डकर के अनुसार, “प्रबन्ध प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील एवं जीवनदायक तत्त्व है। इसके नेतृत्व के अभाव में ‘उत्पादन के साधन’ केवल साधन मात्र ही रह जाते है कभी उत्पादन नहीं बन पाते।’

4, विषम प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिए- आधुनिक व्यवसा। बड़ा जटिल एवं प्रतियोगितामूलक हो गया है। बाजार बहुत विस्तृत हो गये है तथा पनियोगिता गलाकाट हो गई है। विषम प्रतियोगिता के वर्तमान युग में वही व्यवसायो टिक सकता है जो न्यूनतम लागत पर श्रेष्ठ व सस्ती वस्तुएं बना सकता है। इस समस्या का समाधान केवल कुशल प्रबन्ध द्वारा ही किया जा सकता है। कुशल प्रबन्ध की रणनीति तैयार कर सकता है जिसके द्वारा सशक्त रूप से तीव्र प्रतिस्पद्धा का सामना किया जा सके।

5, निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए- प्रबन्ध ही ऐसी शक्ति है जो उपक्रम म लग व्यक्तिया के समूह का नेतृत्व एवं कुशल संचालन कर संस्था के निधारित नया की प्राप्ति को मानता है। अतः कुशल प्रबन्ध के बिना उपक्रम के लाया की यानि कति? अमाव। इसप भी ‘प्रबन का महत्व समय होता है।

6, मामाजिक स्तरदायित्वा के निर्वाह हेतु एक पब का है। कुशल प्रबन्ध के माध्यम से समाज विभागो (स-कर्मचारी, उपमावता, नियोजक, मन्दाना, सरकार आदि) प्रा, प, सदायित्।। का एक साथ निहि कर

7, मधुर श्रम-पूँजी सम्बन्धों की स्थापना –  औघोगिक विस्तार एवं श्रम में जागरूकता आ जाने से एस आर एम समस्याएँ दिन-प्रतिदिन बढती जा रही हैं | श्रमिकों की संख्या में वृध्दि एवं सुदृढ़ श्रम संगठनों के कारण उनकी अपनी मांगों को पूरा कराने के लिए संघर्ष की प्रति बढ़ती जा रही है। परिणामतः हड़ताल एवं तालाबन्दी आए दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलती हैं। इन समस्याओं का निराकरण कुशल प्रबन्ध द्वारा ही सम्भव है। कुशल प्रबन्ध ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिससे समस्याओं का शीघ्र निदान हो जाता है एवं श्रम व पूंजी में मधुर सम्बन्ध रहते हैं।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रबन्ध का महत्व उसके द्वारा प्राप्त परिणामों में निहित है तथा मानवीय क्रिया का इससे अधिक महत्वपूर्ण कोई जान्य क्षेत्र नहीं हो सकता।

Management Concept Nature Notes

प्रश्न 2, प्रबन्ध को परिभाषित कीजिये तथा इसकी प्रकृति का वर्णन कीजिये।

अथवा

प्रबन्ध विज्ञान है अथवा कला अथवा दोनों। स्पष्ट कीजिये।

अथवा

“कुछ लोग प्रबन्ध को कला कहते हैं तो कुछ इसे विज्ञान की संज्ञा देते हैं। सत्यता वास्तव में इन दोनों के मध्य की धारणा में है।” इस कथन के प्रकाश में प्रबन्ध की प्रकृति को पूर्णतः समझाइए।

(Garhwal, 2009)

उत्तर- प्रबन्ध की परिभाषा के लिये प्रश्न 1 देखें।

(IV) प्रबन्ध : कला अथवा विज्ञान अथवा दोनों के रूप में (MANAGEMENT : AS AN ART OR SCIENCE OR BOTH)

कला और विज्ञान के रूप में प्रबन्ध की प्रकृति को भली प्रकार समझने के लिए यह परम आवश्यक है कि पहले हम ‘कला’ और ‘विज्ञान’ दोनों का अर्थ व लक्षण समझें, तभी यह निर्णय किया जा सकता है कि प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान अथवा दोनों ही।

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प्रबन्ध : कला के रूप में (MANAGEMENT : AS AN ART)

कला का अर्थ एवं लक्षण- कला का अर्थ ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से लिया जाता है। किसी भी कार्य को करने की क्रिया-विधि को कला कहते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी भी कार्य को करने की सर्वोत्तम विधि को ही कला कहते हैं। जी० आर० टेरी के मतानुसार, “चातुर्य के प्रयोग से वांछित परिणाम प्राप्त करना ही कला है।” सी० आई० बरनार्ड के अनुसार, “कला का कार्य सही उद्देश्यों की उपलब्धि कराना, परिणामों को प्रभावित करना और ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करना है जो बिना सुविचारित उपायों के प्राप्त होना सम्भव नहीं है। संक्षेप में, कला को उपलब्ध ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग की एक विधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कला की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –

(i) कला वांछित परिणामों को प्राप्त करने की विधि बताती है।

(ii) वांछित परिणामों की प्राप्ति कला का प्रयोग करने वाले व्यक्ति के हुनर व ज्ञान के प्रयोग पर निर्भर करती है।

(iii) कला व्यक्तिगत होती है और उसका हस्तांतरण सम्भव नहीं है।

(iv) कला का सम्बन्ध व्यावहारिक पक्ष से होता है, जो यह बताता है कि कार्य को कैसे किया जाय।

(v) कला सदैव रचनात्मक होती है।

(vi) कला का संचय सम्भव नहीं है।

(vii) कला वास्तव में लगातार अभ्यास, अनुभव और प्रशिक्षण से आती है।

(viii) कला मानव से सम्बन्धित होती है और इसका दृष्टिकोण परिणामोन्मुखी (Result-Oriented) होता है।

क्या प्रबन्ध कला है? कला की उपयुक्त विशेषताओं को यदि प्रबन्ध की कसौटी पर कसा जाय, तो यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि प्रबन्ध करना पूर्ण रूप से कला ही है। प्रबन्ध को कला मानने के पीछे निम्न तर्क दिए जाते हैं

(i) प्रबन्ध की प्रक्रिया प्रमुखतया कैसे (How) पर आधारित होती है; जैसे कि नृत्य, चित्रकारी, संगीत, मूर्तिकला, चिकित्सा आदि कलाओं में होती है।

(ii) प्रबन्ध अन्य कला विधाओं की भाँति रचनात्मक (Creative) होती है। प्रबन्धकीय सफलता में रचनात्मकता की प्रमुख भूमिका होती है।

(iii) प्रबन्धकीय ज्ञान का हस्तान्तरण सम्भव नहीं है।

(iv) प्रबन्धकीय कुशलता व्यक्ति की कुशलता व व्यावहारिक ज्ञान पर निर्भर करती है।

(v) प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य अन्य व्यक्तियों के साथ काम करते हुए पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करना ही होता है। अतः स्पष्ट है कि प्रबन्धक द्वारा निर्णय लेना कला ही है जो प्रबन्धक के व्यक्तिगत अनुभव, दक्षता, दूरदर्शिता, अभ्यास व चातुर्य पर निर्भर करता है। 19वीं शताब्दी तक,तो इसे मात्र कला ही माना जाता था, परन्तु आज 21वीं शताब्दी में इसे कला के साथ विज्ञान भी माना जाता है।

प्रबन्ध : विज्ञान के रूप में (MANAGEMENT : AS AN SCIENCE)

विज्ञान का अर्थ एवं लक्षण किसी भी प्रकार का व्यवस्थित ज्ञान जो किन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित हो ‘विज्ञान’ कहलाता है। यह ज्ञान का ऐसा स्वरूप है जिसमें अवलोकन एवं प्रयोग द्वारा सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं और कारण एवं परिणाम के मध्य सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं। जी० आर० टेरी के अनुसार, “विज्ञान किसी भी विषय, उद्देश्य अथवा अध्ययन का सामान्य सत्यों के सन्दर्भ में संग्रहित तथा स्वीकृत व्यवस्थित ज्ञान है।” कीन्स के शब्दों में, “विज्ञान ज्ञान का एक व्यवस्थित संग्रह है जो कारण और परिणाम के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है।’ विज्ञान के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं –

(i) विज्ञान ज्ञान का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन है। (ii) विज्ञान के निश्चित नियम व सिद्धान्त होते हैं। (iii) विज्ञान के सिद्धान्तों में कारण व परिणाम का सम्बन्ध होता है। (iv) विज्ञान के नियमों में सार्वभौमिक सत्यता पायी जाती है। (v) विज्ञान रूपी ज्ञान अर्जित किया जा सकता है।

क्या प्रबन्ध विज्ञान है?— प्रबन्ध की तुलना यदि विज्ञान के उपरोक्त लक्षणों के साथ की जाए, तो निश्चयपूर्वक इसे विज्ञान की श्रेणी में रख सकते हैं, क्योंकि-

(i) प्रबन्ध शास्त्र भी ज्ञान का व्यवस्थित व क्रमबद्ध अध्ययन है। (ii) प्रबन्ध में भी कुछ नियम व सिद्धान्त होते हैं। (iii) प्रबन्ध के वर्तमान सिद्धान्त, कारण व परिणाम में सम्बन्ध रखते हैं। (iv) प्रबन्ध की सार्वभौमिकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

(v) प्रबन्ध ज्ञान को शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा अर्जित किया जा सकता है। प्रबन्ध को विज्ञान के रूप में विकसित करने में अनेकानेक प्रबन्धकर्ताओं, विचारकों, विश्लेषकों व सिद्धान्तशास्त्रियों ने उल्लेखनीय योगदान दिया है। इसमें फ्रेडरिक विन्सलो टेलर, हेनरी फेयोल, सी० आई० बर्नार्ड, एल० उर्विक, मैक्स वेबर, मेरी पार्कर फोलेट, ओलिवर शेल्डन, पीटर एफ० ड्रकर आदि शामिल हैं।

परन्तु यह ध्यान रहे कि प्रबन्ध एक विज्ञान होते हुए भी न तो इतना व्यापक है और न इतना यथार्थ, शुद्ध व निश्चित कि इसे भौतिक शास्त्र व रसायन शास्त्र जैसे प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में रखा जाये। प्रबन्ध के अध्ययन का विषय-वस्तु मानव होता है जिसका व्यवहार परिवर्तनशील होता है। प्रबन्ध, प्राकृतिक विज्ञान के स्थान पर एक सामाजिक विज्ञान है। इसे समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र की तरह सामाजिक विज्ञान माना जाता है और सामाजिक विज्ञानों में इसका एक प्रतिष्ठित स्थान है। विज्ञान के रूप में इसका विकास विशेष रूप से 20वीं व 21वीं सदी में हुआ है, अत: यह एक नया, परन्तु विकासशील विज्ञान है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसे विज्ञान के रूप में स्थापित करने में विशेष योगदान दिया है।

Management Concept Nature Notes

प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों है (MANAGEMENT IS BOTH ART AND SCIENCE)

निष्कर्ष रूप में, हम यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध कला भी है और विज्ञान भी। प्रबन्ध जहाँ विज्ञान के रूप में सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन करता है वहाँ कला हमें इन सिद्धान्तों एवं नियमों को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करना बताती है। एक कुशल प्रबन्धक के लिए दोनों ही पक्ष (विज्ञान एवं कला) उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार एक चिकित्सक के लिए सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक होता है। कला और विज्ञान दोनों ही प्रबन्ध को पूर्णता देने का कार्य करते हैं और एक-दूसरे के पूरक माने जाते हैं। स्टेनले टेली के अनुसार, “वर्तमान में प्रबन्ध 10 प्रतिशत विज्ञान तथा 90 प्रतिशत कला है। आधुनिक युग में विज्ञान दिन-प्रतिदिन विकास पर है। प्रबन्ध में अगली पीढ़ी तक विज्ञान 20 प्रतिशत और कला 80 प्रतिशत ही रह जायेगी।” राबर्ट एन० हिलकर्ट के अनुसार, “प्रबन्ध क्षेत्र में कला एवं विज्ञान दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं।” इस तरह व्यवहार रूप में प्रबन्ध एक कला है और इस व्यवहार को समुन्नत बनाने के लिए संगठित व तर्कसंगत ज्ञान को आधार बनाना विज्ञान का परिचायक है। प्रबन्ध एक प्राचीनतम कला और नवीनतम विज्ञान है।

प्रश्न 3, “प्रबन्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यवस्थापन, आयोजन, निर्देशन तथा नियन्त्रण से सम्बन्धित है।” इस कथन की विवेचना कीजिये।

अथवा

प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिये तथा इनके सापेक्षिक महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

उत्तर प्रबन्ध विद्वानों के सम्मिलित दृष्टिकोण के आधार पर प्रबन्ध के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

(अ) प्रमुख कार्य (ब) सहायक कार्य

प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों में साधारणतया निम्नांकित परम्परागत कार्यों को सम्मिलित किया जाता है –

(1) नियोजन, (2) संगठन, (3) स्टाफिंग, (4) निर्देशन, (5) नियन्त्रण, (6) अभिप्रेरण, एवं (7) समन्वय।

इन सभी कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है –

1, नियोजन (Planning)- नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है जो किसी कार्य को करने से पूर्व उसके बारे में सोचने से सम्बन्ध रखती है, ताकि इच्छित परिणामों को अधिक निश्चितता एवं मितव्ययिता से प्राप्त किया जा सके। जार्ज आर० टैरी के शब्दों में, “नियोजन भविष्य के गर्भ में झाँकने की एक विधि या तकनीक है।” दूसरे शब्दों में नियोजन इच्छित परिणामों की प्राप्ति के लिए भावी कार्यक्रम की रूप-रेखा का निर्धारण है। इसलिए नियोजन को पूर्वानुमान या भविष्यवाणी की संज्ञा दी जाती है। जेम्स एल० लुण्डी के अनुसार, “इससे आशय यह निर्धारित करना है कि क्या करना है, कैसे एवं कहाँ करना है, इसको कौन करेगा तथा परिणामों का मूल्यांकन कैसे करना है।”

स्पष्ट है कि नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिन्तन एवं कल्पना की आवश्यकता होती है। वस्तुतः नियोजन निर्णय लेने की विधि है जिसके द्वारा किसी समस्या के समाधान का चयन किया जाता है, ताकि अनिश्चित भविष्य को निश्चित किया जा सके ।

2, संगठन (Organisation)— नियोजन जिन उद्देश्यों व कार्यक्रमों को निर्धारित करता है, उनके क्रियान्वयन के लिए संगठन एक साधन या उपकरण है। प्रबन्धक इस कार्य के अन्तर्गत मानव, माल, मशीन एवं अन्य साधनों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे कि न्यूनतम लागत पर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। F उर्विक के अनुसार, “किसी उद्देश्य (या योजना) के सन्दर्भ में यह निर्धारित करना कि क्या-क्या क्रियाएँ करना आवश्यक होगा और फिर इन्हें विभिन्न व्यक्तियों को सौंपने की दृष्टि से उचित समूहों में क्रमबद्ध करने को ही संगठन कहा जाता है।”

संक्षेप में संगठन में निम्नलिखित कार्यों का समावेश किया जाता है (i) संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप कार्यों का निर्धारण व समूहीकरण,

(ii) प्रत्येक क्रिया को संस्था में कार्यरत कर्मचारियों की योग्यतानुसार उन्हें आबंटित करना,

(iii) सभी व्यक्तियों एवं विभागों के दायित्व परिभाषित करना, अधिकारों का भारार्पण करना, और

(iv) समन्वय की दृष्टि से संगठनात्मक सम्बन्धों की स्थापना करना।

3, नियुक्ति (Staffing)— प्रत्येक व्यावसायिक संस्था की प्रगति उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों की योग्यता, अनुभव एवं उनके कौशल पर निर्भर करती है। योग्य, कुशल एवं अनुभवी कर्मचारी संस्था के उपलब्ध साधनों का अधिकतम एवं विभाः मितव्ययी उपयोग करके संस्था के पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति को सुविधाजनक किया बनाते हैं। इस दृष्टिकोण से प्रबन्ध द्वारा कर्मचारियों की नियुक्ति करने का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रबन्ध इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए सर्वप्रथम संस्था के लिए आवश्यक कर्मचारियों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है, तत्पश्चात् कार्य प्रमुख विश्लेषण के आधार पर कर्मचारियों की आवश्यक योग्यता को निर्धारित करता है। और फिर इसके अनुसार योग्य कुशल एवं अनुभवी कर्मचारियों का चयन करता है। प्रबन कर्मचारियों की नियुक्ति सद्भावना और ईमानदारी से की जानी चाहिए, ताकि सही कार्य के लिए सही व्यक्ति को नियुक्त किया जा सके।

4, निर्देशन (Direction)- निर्देशन का आशय संस्था के कर्मचारियों को यह बताने से है कि उनको क्या, कैसे और कब करना है? इसके साथ ही साथ यह भी देखना है कि कर्मचारी अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे हैं या नहीं। वास्तव में निर्देशन, प्रबन्ध का वह कार्य है जो संस्था के संगठित प्रयासों को आरम्भ करता है, प्रबन्धकीय निर्णयों को वास्तविकता प्रदान करता है और संस्था को अपने उद्देश्य करने की दिशा में आगे बढ़ाता है। प्रत्येक प्रबन्ध को अपने अधीनस्थों के कार्यों को सही दिशा प्रदान करने के लिए उनका निर्देशन एवं निरीक्षण करना पड़ता है। संक्षेप में, निर्देशन के अन्तर्गत अधीनस्थों का मार्गदर्शन करना एवं उनका पर्यवेक्षण करना आता है। जार्ज आर० टैरी ने निर्देशन के स्थान पर गति देना (Actuating) शब्द का प्रयोग किया है।

5, नियन्त्रण (Control)- प्रबन्धकीय नियन्त्रण यह देखने की क्रिया है कि संस्था की क्रियाएँ उसी प्रकार हो रही हैं या नहीं जिस प्रकार से होनी चाहिएँ थीं और यदि जिस प्रकार क्रियाएँ होनी चाहिएँ थीं उस प्रकार नहीं हो रही हैं तो सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है।

हेनरी फेयोल के अनुसार, “नियन्त्रण का अर्थ इस बात को सत्यापित करना है। कि प्रत्येक क्रिया निर्धारित योजनाओं, निर्गमित आदेशों एवं पूर्व-निश्चत सिद्धान्तों के अनुसार हो रही हैं अथवा नहीं। इसका उद्देश्य दुर्बलताओं एवं गलतियों को मालूम करना है जिससे उन्हें ठीक किया जा सके एवं उनकी पुनरावृत्ति को रोका जा सके।”

6, अभिप्रेरणा (Motivation)- अभिप्रेरणा अंग्रेजी के ‘Motivation’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘Motivation’ शब्द की उत्पत्ति Motive शब्द से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है, व्यक्ति में ऐसी इच्छा जागृत करना, जो उसे काम करने के लिए प्रेरित करती रहे। संक्षेप में, अभिप्रेरणा से तात्पर्य उस मनोवैज्ञानिक उत्तेजना से है जो व्यक्तियों को काम करने के लिए प्रोत्साहित करती है, उन्हें कार्य पर बनाये रखती है तथा अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करती है। इसी उद्देश्य से प्रबन्ध कर्मचारियो को विनीय व अवित्तीय प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं।

7, समन्वय (Co-ordination)— सामूहिक प्रयत्नों की क्रमबद्ध व्यवस्था जिससे सामान्य उद्देश्य पूर्ति हेतु क्रियाओं में एकरूपता लायी जा सके, समन्वय कहलाता है। आधुनिक उद्योगों में कार्यों का विशिष्टीकरण पाया जाता है। विभिन्न विभागों का कार्य प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष की देखरेख में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। सभी विभागों एवं व्यक्तियों का कार्य संस्था के सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है। अतः सभी विभागों एवं व्यक्तियों के कार्यों में समन्वय आवश्यक होता है। समन्वय के लिए यह जरूरी होता है कि विभागों के मुख्य कर्मचारी संस्था के प्रमुख उद्देश्य को भली-भाँति समझें तथा उनकी प्राप्ति के लिए आपस में सहयोग से कार्य करें।

प्रबन्ध के सहायक कार्य (Subsidiary Functions of Management)

प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त कुछ सहायक कार्य भी हैं जिनकी संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित प्रकार है

1, संवहन (Communication)— संवहन से आशय एक ऐसी क्रिया से है जिसके द्वारा प्रबन्ध, संस्था से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण सूचनाएँ अपने अधीनस्थ कर्मचारियों तक पहुंचाता है। इसके अतिरिक्त प्रबन्ध के द्वारा अंशधारियों, ग्राहकों, जनता और सरकार को अनेक महत्वूपर्ण सूचनाएँ प्रेषित की जाती हैं। प्रबन्ध का संवहन कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रभावी संवहन ही संस्था के लक्ष्यों, उद्देश्यों, कार्यक्रमों, नीतियों, आदेशों व उपलब्धियों के विषय में संलग्न व्यक्तियों को पूर्णतः सूचित रखता है। सम्प्रेषण एवं सन्देशवाहन भी संवहन के पर्यायवाची शब्द हैं। , प्रबन्धकीय कार्यों की कुशलता कुशल सन्देशवाहन पर ही निर्भर करती है। अत: सम्प्रेषण सही, पूर्ण, समयानुकूल व प्रभावी होना चाहिए।

2, निर्णयन (Decision-making)- प्रबन्ध के कार्यों में निर्णयन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है। प्रबन्ध व्यवसाय में जो भी कार्य करता है, वह निर्णयन के द्वारा ही सम्पन्न करता है। प्रत्येक उपक्रम, चाहे उसका आकार बड़ा हो या छोटा, प्रवर्तन से समापन तक सभी अवस्थाओं में निर्णय लेने पड़ते हैं। ‘निर्णयन’ एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो सर्वोत्तम विकल्प के चयन से सम्बन्धित है। अनुभव, विवेक एवं अन्तर्ज्ञान निर्णयन की परम्परागत विधियाँ हैं, जबकि क्रियात्मक अनुसन्धान, सांख्यिकीय विधियाँ एवं मॉडल निर्माण इसकी आधुनिक विधियाँ हैं।

उपक्रम की सफलता काफी मात्रा में प्रबन्ध के निर्णयों पर निर्भर करती है। अतः प्रबन्ध को बड़ी सावधानी से सोच-विचार कर ही निर्णय लेने चाहिएँ।

3, नवाचार या नव-प्रवर्तन (Innovation)- नवाचार या नव-प्रवर्तन प्रबन्ध का वह महत्वपूर्ण सहायक कार्य है जो केवल नवीन एवं सुधरे हुए उत्पादों या नयी तकनीकी खोज तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसके अन्तर्गत नवीन कार्यपद्धतियाँ ‘मी सम्मिलित हैं। बोलचाल के शब्दों में नवाचार का अर्थ उत्पादन के एक नये डिजाईन, एक नयी उत्पादन पद्धति या एक नयी विपणन तकनीक से लिया जा सकता है। व्यवसाय के विकास के लिए यह जरूरी है कि उत्पादन, विपणन, नियन्त्रण, संचालन, अभिप्रेरण एवं मानवीय व्यवहार के अन्य सभी क्षेत्रों में नवीन पद्धतियों का प्रयोग किया जाय। इसी उद्देश्य से बड़े व्यावसायिक-गृह शोध व विकास विभागों (Research and Development Departments) की स्थापना करते हैं।

4, प्रतिनिधित्व (Representation)— आजकल प्रबन्धक के इस कार्य को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। इससे हमारा आशय व्यावसायिक संस्था का प्रतिनिधित्व करने से है। ‘प्रबन्ध’ उपक्रम का प्रतिनिधि होता है और इस कारण उसका यह सामाजिक दायित्व हो जाता है कि वह हित रखने वाले विभिन्न पक्षकारों (जैसे-कर्मचारी, अंशधारी, ऋणदाता, उपभोक्ता, सरकार, आदि) के सम्मुख संगठन का प्रतिनिधित्व करे। प्रतिनिधित्व के इस कार्य से ही ‘प्रबन्ध’ अपनी तथा संगठन की छवि को निखारता है।

नोट-प्रबन्ध के कार्यों की उपरोक्त सूची को अन्तिम (final) नहीं कहा जा सकत। प्रबन्ध एक गतिशील धारणा (dynamic concept) है; अतः प्रबन्ध के नित नये कार्यों का उदय होना स्वाभाविक है। दूसरे, उपरोक्त सभी कार्य अन्तर्सम्बन्ध (inter-connected) हैं। किसी भी कार्य का निष्पादन अन्य कार्यों को सम्पन्न किये बिना नहीं हो सकता।

प्रश्न 4, हेनरी मिंजबर्ग के अनुसार प्रबन्धकीय भूमिकाओं से क्या आशय है ? उन्होंने प्रबन्धकीय भूमिकाओं की कितनी श्रेणियाँ बताई हैं ?

उत्तर- मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेनरी मिंजबर्ग ने प्रबन्धकीय कार्यो/प्रबन्ध प्रक्रिया के सम्बन्ध में ‘प्रबन्धकीय भूमिकाएँ’ (Managerial Roles) सम्बन्धी अवधारणा का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत प्रबन्धक वास्तव में क्या करते हैं, इस बात का अवलोकन किया जाता है एवं उक्त अवलोकनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि प्रबन्धकों की क्रिया य प्रबन्धकीय भूमिकाएँ क्या-क्या हैं? प्रोफेसर मिंजबर्ग ने भिन्न-भिन्न संगठनों के पाँच मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (Chief executives) को अध्ययन के लिए चुनक उनके द्वारा वास्तव में दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्यों का गहनता से अवलोक किया और उक्त अवलोकनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि “वास्तव प्रबन्धक परम्परागत प्रबन्धकीय कार्यों-नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय नियन्त्रण आदि को करने के स्थान पर विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रह है।” (Managers do not act our the classical classification of manageri functions, Instead they engage in a variety of other activities)। मिजबर्ग प्रबन्धकों के परम्परागत कार्यों को ‘लोक-रीति’ (Folklore) पर आधारित वर्गी कार्य बताया है।

मिंजबर्ग ने प्रबन्धकों के कार्यों के बारे में निम्नलिखित निष्कर्ष बताये हैं—

1, प्रबन्धक कार्य के दौरान विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ (Activities) सम्पन्न करते हैं। इन्हें मिंजबर्ग ने भूमिकायें (Roles) कहा है। उनके अनुसार ‘भूमिका’ से आशय व्यवहारों के संगठित समूहों (Organised set of behaviours) से है।

2, प्रबन्धक की भूमिकायें ऐसे साधन (Mcans) हैं जिनके द्वारा नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि कार्यों को सम्पन्न किया जाता है। ये भूमिकायें-कर्तव्यों, कामों (Tasks), दायित्वों, कार्यभार (Assigninents) आदि के रूप में होती हैं जो प्रबन्धकों के कार्यों (नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि) के निष्पादन में सहायक होती हैं।

3, मिंजबर्ग के अनुसार कार्यात्मक दृष्टिकोण (Functional Approach) एवं क्रिया या भूमिका दृष्टिकोण (Activities or Role Approach) में कोई टकराव नहीं है, वरन् ये दोनों दृष्टिकोण परस्पर सहायक एवं एक दूसरे के पूरक हैं।

4, मिंजबर्ग का विचार है कि समस्त प्रबन्धकों को अपनी संगठनात्मक इकाई में प्राप्त औपचारिक सत्ता एवं पद के कारण ही उनके अपने अधीनस्थों, समान पद वाले प्रबन्धकों आदि के साथ अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध बनते हैं तथा इन्हीं सम्बन्धों के फलस्वरूप उन्हें विभिन्न भूमिकाओं (Roles) का निर्वाह करना पड़ता है।

मिंजबर्ग के अनुसार प्रबन्धक दस भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं जिन्हें निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

(अ) अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ,

(ब) सूचनात्मक भूमिकाएँ, एवं

(स) निर्णयात्मक भूमिकाएँ।

(अ) अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ (Interpersonal Roles)

अपनी औपचारिक सत्ता, पद एवं स्थिति के कारण प्रबन्धक अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं। इन भूमिकाओं में मुख्य रूप से निम्नलिखित को शामिल किया गया है-

1, सर्वोच्च अधिकारी की भूमिका (Role of Figurehend)- इस भूमिका में अपनी संस्था का मखिया या अध्यक्ष होने के नाते प्रबन्धक वैधानिक प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करते हैं, सामाजिक गतिविधियों में भाग लेते हैं तथा समारोह आदि की अध्यक्षता करते हैं।

2, नेतृत्व भूमिका (Role of Londer)- नेता की भूमिका में प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को संस्था/उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अभिप्रेरित करते हैं। वे अपनी मना, समन्वय तकनीकों एवं अभिप्रेरण उपायों के द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं तथा संगठन के लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करते हैं।

3, मम्पर्क अधिकारी की भूमिका (Role of List Officer)- प्रबन्धक अपने मंगटन एवं बाहा पा तथा विति। विभागों व संगठनात्मक इकाइयों के मध्य सम्पर्क सूत्र की भूमिका का भी निर्वाह करते हैं। यह भूमिका सूचनाओं के आदान प्रदान एवं समय के दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण है।

(ब) सूचनात्मक भूमिकाएँ (Informative Roles)

सूचनात्मक भूमिकाओं के अन्तर्गत प्रबन्धक विभिन्न सूचनाओं, तथ्यों एवं ज्ञान का संकलन तथा प्रसारण करते हैं। इस प्रकार प्रबन्धक संगठन के ‘स्नायु केन्द्र’ (Nerve Centre) माने जाते हैं। सूचनात्मक भूमिकाओं में निम्नलिखित भूमिकाओं को शामिल किया गया है

1, प्रबोधक की भूमिका (Role of Monitor)- प्रबन्धक को नियोजन, निर्णयन व अन्य प्रबन्धकीय कार्यों के लिए विभिन्न सूचनाओं की आवश्यकता होती है। अत: वह अपने संगठन एवं इसके वातावरण के बारे में विभिन्न ज्ञात स्रोतों से सूचना सामग्री एकत्रित करता है। वह अपने अधिकारियों, अधीनस्थों, सह-प्रबन्धकों तथा अन्य सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करता है।

2, प्रसारक की भूमिका (Role of Disseminator)- प्रबन्धक इस भूमिका में एकत्रित सूचनाओं को अपने अधीनस्थों व सम्बन्धित इकाइयों को वितरित एवं प्रसारित करता है।

3, प्रवक्ता की भूमिका (Role of Spokesperson)- प्रवक्ता की भूमिका में प्रबन्धक अपने संगठन की योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रमों के बारे में बाह्य समूहों— ग्राहकों, सरकार, समुदाय, संस्थाओं आदि को विभिन्न प्रकार की सूचनायें प्रेषित करता है। (स) निर्णयात्मक भूमिकाएँ (Decisional Roles) निर्णयात्मक भूमिकाओं के अन्तर्गत प्रबन्धक मुख्यतया व्यूहरचना निर्माण (Strategy making) करने का कार्य करते हैं। इन भूमिकाओं को निम्नलिखित चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

1, उद्यमी की भूमिका (Role of Entrepreneur)- इस भूमिका में प्रबन्धक अपने संगठन के लिए विभिन्न सम्भावनाओं, अवसरों व खतरों का पता लगाता है एवं उनके अनुरूप वांछित परिवर्तनों व सुधारों को लागू करता है। वह व्यावसायिक वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से लाभ उठाने के लिए संगठन में नवप्रवर्तनों को भी लागू करता है।

2, उपद्रव निवारक की भूमिका (Role of Disturbance Handler)- प्रबन्धक अपने संगठन में उत्पन्न होने वाले दिन प्रतिदिन के झगड़ों, उपद्रवों, उत्पात मनमुटावों, संघर्षों, अशान्तियों को दूर करता है। वह हड़तालों, अनुबन्ध खण्डन कच्चे माल की कमी, कर्मचारियों की शिकायतों व कठिनाइयों पर विचार कर उन्हें दूर करता है।

3, संसाधन आबण्टक की भूमिका (Role f Resource Allocator)- संसाधन आबण्टक की भूमिका के रूप में प्रबन्धक अधीनस्थों के समय, तकनीकों संसाधनों, कार्यों आदि के बार में कार्यक्रम बनाता है। वित्त, कच्चे माल, यन्त्र, अन्र आपूर्ति आदि के बारे में निर्णय लेता है। विभिन्न विभागों की संसाधन-प्राथमिकताटे निश्चित करता है। बजट आदि तैयार करता है। संक्षेप में, इस भूमिका में प्रबन्धक संगठन के संसाधनों को क्यों, कब, कैसे, किसके लिए खर्च करने सम्बन्धी निर्णय लेता है।

4, वार्ताकार (Negotiator)- की भूमिका प्रबन्धक विभिन्न दशाओं में विभिन्न समूहों जैसे श्रम संघ, पूर्तिकर्ता, ग्राहक, सरकार व अन्य एजेन्सियों के साथ समझौतों सम्बन्धी वार्ताएँ करके संस्था/उपक्रम को लाभान्वित करता है। इसके अलावा विवादों की दशा में उन्हें हल करने के लिए मध्यस्थ की भूमिका का निर्वाह भी करता है।

आलोचना (Criticism)- प्रोफेसर मिंजबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ दृष्टिकोण की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

1, अध्ययन के लिए मात्र पाँच मुख्य कार्यकारी अधिकारियों का प्रतिचयन सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता।

2, प्रबन्धकों द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य मात्र प्रबन्धकीय कार्य नहीं हो सकते।

3, मिंजबर्ग ने कुछ कार्यों का नया नामकरण कर उन्हें परम्परागत प्रबन्धकीय कार्यों में शामिल नहीं किया है जो गलत है; जैसे संसाधन आबण्टक का कार्य नियोजन का ही एक भाग है, अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ नेतृत्व का ही एक भाग हैं।

4, मिंजबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ समस्त प्रबन्धकीय कार्यों को सम्मिलित नहीं करतीं, अत: इन्हें पूर्ण नहीं माना जा सकता।

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