Bcom Business Management Planning Concepts Types Process Notes

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Bcom Business Management Planning Concepts Types Process Notes
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नियोजन : अवधारणा प्रक्रिया एवं प्रकार [Planning : Concepts, Types and Process]

प्रश्न 10, नियोजन की परिभाषा दीजिये। प्रबन्ध में इसके उद्देश्य एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

(Rohilkhand, 2006)

अथवा

प्रबन्ध मे नियोजन के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। नियोजन के उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।

(Rohilkhand Bareilly, 2011)

अथवा

“बेहतर कार्य निष्पादन के लिए भविष्य का पूर्वानुमान करने का प्रयल ही नियोजन है।इस कथन की विवेचना कीजिए।

(Garhwal, 2010)

उत्तर-

नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING AND DEFINITION OF PLANNING)

नियोजन एक मानसिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत क्या करना है, कब करना है, कैसे एवं कहाँ करना है, किसे करना है, आदि बातों का पूर्व-निर्धारण किया जाता है। प्रबन्ध व प्रशासन के क्षेत्र में नियोजन से आशय निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वैकल्पिक उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों एवं कार्यक्रमों में से सर्वोत्तम का चुनाव करने से लगाया जाता है। यह कार्य को करने से पहले उस पर सोच-विचार करने की बौद्धिक कसरत होती है। नियोजन में भविष्य के बारे में निर्णय लेने का भाव छिपा हुआ होता है जिससे कि भविष्य को अधिक निश्चित किया जा सके। नियोजन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1, कुण्ट्ज एवं ओ’डोनेल (Koontz and O’Donnell) के अनुसार, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो उद्देश्यों, तथ्यों एवं सुविचारित अनुमानों पर आधारित भावी कार्य-पथ का निर्धारण है।”

2, बिली ई० गोइट्ज (Billy E, Goetz) के अनुसार, “नियोजन मूलत: चयन करना है और नियोजन की समस्या तब पैदा होती है, जबकि वैकल्पिक कार्यपथ की खोज होती है।”

Planning Concepts Types Process

नियोजन का स्वभाव व लक्षण (NATURE AND CHARACTERISTICS OF PLANNING)

नियोजन की प्रकृति अथवा स्वभाव के सम्बन्ध में निम्नलिखित विशेषताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है

1, बौद्धिक प्रक्रिया (Intellectual Process)— नियोजन एक बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है जो भविष्य के विषय में निर्णय लेने से सम्बन्धित होती है! या गहन चिन्तन, तथ्यों के सारगर्भित विश्लेषण और भावी प्रवृत्तियों के सविचारित अनुमान में पृरित होती है। नियोजनकर्ता में दूरदृष्टि, तीव्र मानसिक क्षमता, विवेक व चिन्तन का होना जरूरी है।

2, चयनात्मक प्रक्रिया (Selective Process )- नियोजन के अन्तर्गत उद्देश्यो नीतिया, कार्यावधिया, यि, कार्यक्रमा, नीतियो एवं विधियो के विविध विकल्पो में सर्वोनम (The It !) । पाव किया जाता है।

3, सर्वोपरिता एवं निरन्तरता (Primacy and Continuity)- नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है | नियोजन प्रबन्ध के सभी कार्या में पहला स्थान रखती है। प्रबन्ध के अन्य कार्य; जैसे- संगठन, निर्देशन, स,समन्वय, नियन्त्रण, स्टाफिंग, अभिप्रेरणा आदि सा नियोजन के बाद को किए जाते है।

4, सर्वव्यापकता (pervasiveness)- नियोजन का चौथा लक्षण इसकी सर्वव्यापकता और साथ ही सार्वभौमिकता का होना है। यह समस्त प्रबन्धकों, समस्त प्रकार के संगठनों के प्रबन्ध के सभी स्तरों का आवश्यक कर्त्तव्य है।

5, भविष्य के प्रति प्रतिबद्धता (Commitment to the Future)- नियोजन उपक्रम को भूत, वर्तमान और भविष्य से जोड़ते हुए उसे भविष्य के लिए प्रतिबद्ध बनाता है। भावी लक्ष्य ही तो उपक्रम के साध्य होते हैं, जबकि नियोजन साधन होते हैं। नियोजन कार्य-सम्पन्नता के पूर्व की क्रिया है जिससे कि भविष्य के लक्ष्य पूर्ति में योगदान हो सके।

6, अन्य लक्षण (Others)- (i) निर्णयन भी नियोजन का ही एक अंग है अत: नियोजन का क्षेत्र निर्णयन की तुलना में व्यापक है। (ii) नियोजन का व्यावहारिक होना परम् आवश्यक है (iii) नियोजन में समय तत्त्व बहुत अधिक महत्व रखता है। (iv) नियोजन कार्य-सम्पन्नता के पूर्व की मानसिक क्रिया है। (v) नियोजन का उद्देश्य उपक्रम की कुशलता में वृद्धि करना होता है।

प्रबन्ध में नियोजन का महत्त्व (IMPORTANCE OF PLANNING IN MANAGEMENT)

जिस प्रकार बिना पतवार के नाविक, बिना अध्ययन-अध्यापन के शिक्षक, बिना कलम के लेखक व बिना हथियार के सैनिक अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर सकते, ठीक उसी प्रकार बिना नियोजन के व्यावसायिक सफलता की कामना नहीं की जा सकती। उपक्रम, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, चाहे उसकी क्रियाओं का क्षेत्र स्थानीय हो, प्रादेशिक हो अथवा अन्तर्राष्ट्रीय, चाहे वह निजी क्षेत्र की हो, सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा मिश्रित क्षेत्र की हो, सभी के लिए नियोजन एक अपरिहार्य आवश्यकता है। नियोजन की आवश्यकता, महत्त्व एवं लाभ निम्नलिखित तथ्यों से और अधिक स्पष्ट हो जायेगा

1, भावी अनिश्चितता एवं परिवर्तनों का सामना करने के लिए (To Offset Future Uncertainties and Changes)— व्यवहार में देखा जाता है कि भविष्य अनिश्चित होता है। व्यवसाय सम्बन्धी कोई भी तत्त्व; जैसे—प्रतिस्पर्धा, रोकड़ की स्थिति, उत्पाद की माँग, उत्पादन क्षमता, लागत, राजकोषीय नीति, हड़ताल व तालाबन्दी आदि निश्चित और अपरिवर्तनशील नहीं होता। इसके अतिरिक्त भौतिक जोखिमा; जैसे- भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड आदि की आशंका बनी रहती है। अत: प्रत्येक प्रबन्धक इन अनिश्चितताओं एवं परिवर्तनों का सामना करने के लिए पहले से ही अनुमान लगाकर तदनुसार योजना बना लेते हैं।

2, लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए (To Concentrate the Mind on (Objectives)- नियोजन के अन्तर्गत उपक्रम के उद्देश्यों को स्पष्ट किया जाता है और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं। नियोजन का प्रमुख ध्येय संस्था के लक्ष्यों की ओर समस्त प्रबन्धकों का ध्यान केन्द्रित करना होता है।

3, विभिन्न कार्यों में एकता व समन्वय (Unity and Coordination in Different Activities)- नियोजन के द्वारा उपक्रम के विभिन्न विभागों एवं क्रियाओं में तालमेल और समन्वय स्थापित होता है। नियोजन के द्वारा यह प्रयत्न किया जाता है कि सम्पूर्ण संगठन संरचना में वित्तीय दोहरेपन से बचा जाय और विभिन्न क्रियाओं में टकराव न उत्पन्न हो।

4, संगठन की प्रभावशीलता में वृद्धि (Increase in Organisational Effectiveness)- नियोजन से संगठन की प्रभावशीलता में भी वृद्धि सम्भव होती है। कार्यों में अनावश्यक विलम्ब न होने से लागत में भी कमी आती है, लालफीताशाही समाप्त हो जाती है और कार्य निष्पादन में तेजी आने से श्रम और समय दोनों की बचत होती है।

5, नियन्त्रण में सुगमता (Helpful in Controlling)- नियोजन तो नियन्त्रण का प्राण है। नियोजन के द्वारा भावी निष्पादन के लिए प्रमाप निर्धारित किए जाते हैं और वास्तविक निष्पादन की प्रमापों से तुलना करके विचरणांश विश्लेषण किये जाते हैं। विचरणों के प्रतिकूल होने पर सुधारात्मक कदम उठाये जाते हैं, ताकि भविष्य में क्रियाएँ प्रतिकूल परिणाम न प्रदान करें। नियोजन नियन्त्रण कार्य के लिए आधार प्रस्तुत करता है।

6, उतावले निर्णयों पर रोक (Preventing Hasty Decisions)- लुइस ऐलन (Louis Allen) के अनुसार, “नियोजन के माध्यम से उतावले निर्णयों और अटकलबाजियों को समाप्त किया जाता है।”

7, नई खोजों एवं सृजनात्मकता को प्रोत्साहन (Motivation to New Discoveries and Creativity)— एक सुविचारित नियोजन प्रबन्धकों को नये ढंग से काम करने के लिये सोचने को प्रेरित करता है। इससे एक खुले वातावरण में काम करने को प्रोत्साहन मिलता है। प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों में नव-प्रवर्तन, शोध एवं सृजनात्मकता को प्रोत्साहन मिलता है।

8, मनोबल एवं अभिप्रेरणा में वृद्धि (Increase in Morale and Motivation)- एक कुशल नियोजन पद्धति प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों की सहभागिता को प्रोत्साहित करती है जिससे उनके मनोबल एवं अभिप्रेरण में वृद्धि होती है। संगठन में विश्वास का वातावरण, उत्तरदायित्व की भावना, एकता, कर्मचारियों में संतोष पनपता है जिसके कारण औद्योगिक भ्रान्तियों और संघर्षों में कमी आती है।

09, प्रभावपूर्ण सन्देशवाहन एवं भारार्पण (Effective Communication and Delegation)- सुप्रभावी नियोजन पद्धति के क्रियान्वयन से प्रभावपूर्ण सन्देशवाहन होता है। उद्देश्य, नीतियाँ, कार्यपद्धतियाँ, रणनीतियाँ, कार्यक्रम, बजट आदि संस्था के समस्त कर्मचारियों को भली-भाँति ज्ञात रहते हैं। इस कारण से विविध स्तरों पर अधिकारों का प्रतिनिधायन ठीक से हो पाता है। यह अधिकारों के विकेन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता है।

10, राष्ट्रीय महत्व (National Importance)- पूर्वानुमान और नियोजन केवल एकाकी व्यावसायिक उपक्रम के लिए ही नहीं, बल्कि समग्र राष्ट्र के लिए भी उपयोगा। होते हैं। प्रगतिशील राष्ट्रों में व्यावसायिक पूर्वानुमानों द्वारा व्यापार चक्रों पर नियन्त्रण, सन्तुलित आर्थिक विकास, बेकारी की समस्या का समाधान, गरीबी में कमी आदि उद्देश्य प्राप्त हो जाते हैं। भारत इसका ज्वलन्त उदाहरण है जिसने पंचवर्षीय योजनाआ में उल्लेखनीय प्रगति की है और 21 वीं सदी में नियोजन प्रणाली के तहत तेज प्रगात की ओर अग्रसर है।

11, अन्य महत्व (Other Importance)- (i) प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में सधार, (ii) लागत में कमी, (iii) साधनों का सही उपयोग, (iv) दूरदर्शिता, एवं (v) मानवीय व्यवहार में सुधार।

प्रश्न 11, नियोजन से आप क्या समझते हैं ? नियोजन प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को बताइये।

(Garhwal, 2008, 2011)

अथवा

“नियोजन आगे देखना है।” व्याख्या कीजिए और नियोजन की प्रक्रिया को संक्षेप में समझाइए।

(Avadh, 2008)

उत्तर—नियोजन के अर्थ के लिये प्रश्न 9 देखें।

नियोजन प्रक्रिया में निहित आवश्यक चरण (ESSENTIAL STEPS INVOLVED IN PLANNING PROCESS)

नियोजन प्रक्रिया या तकनीक में अधोलिखित कदमों का अनुसरण करना उचित रहता है –

1, उद्देश्य निर्धारण,

2, पूर्वानुमान लगाना,

3, विकल्पों का निर्धारण,

4, विकल्पों का तुलनात्मक मूल्यांकन,

5, श्रेष्ठतम विकल्प का चयन,

6, आवश्यक योजना एवं उपयोजना का निर्माण,

7, कर्मचारियों के सहयोग की प्राप्ति, एवं

8, अनुगमन।

1, उद्देश्य निर्धारण (Objective Determination)- नियोजन प्रक्रिया का पहला चरण उद्देश्य निर्धारित करना है। उद्देश्य सम्पूर्ण उपक्रम के लिए तथा उसके पश्चात् प्रत्येक विभाग के लिए पृथक्-पृथक् निर्धारित किए जाने चाहिएँ। उद्देश्यों से यह स्पष्ट होता है कि क्या किया जाना है, कैसे किया जाना है, कहाँ और किसके द्वारा किया जाना है।

2, पूर्वानुमान लगाना (Forecasting)- उद्देश्य निर्धारण के उपरान्त नियोजन के आधार का निर्धारण करने के लिए पूर्वानुमान लगाए जाते हैं। भविष्य में किस प्रकार का बाजार होगा, विक्रय की मात्रा कितनी होगी, विक्रय का मल्य क्या होगा क्या उत्पादन किया जायेगा, उसकी लागत कितनी आयेगी, विस्तार कार्यक्रमों का वित्तीय प्रबन्ध किस प्रकार से होगा, लाभांश नीति क्या होगी इत्यादि का पूर्वानमान करना आवश्यक होता है।

3, विकल्पों का निर्धारण (Determining of Alternatives)— नियोजन प्रक्रिया का अगला सोपान निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न वैकल्पिक तरीकों को तलाश करना है।

4, विकल्पों का तुलनात्मक मूल्यांकन (Comparative Evaluation of Alternatives)- विभिन्न वैकल्पिक तरीकों के निर्धारण के उपरान्त उनका तुलनात्मक मूल्यांकन उनके गुण-दोष के आधार पर किया जाता है। यह कार्य उद्देश्य एवं पूर्वानुमान आधारों को ध्यान में रखकर किया जाता है। बहुधा ऐसा होता है कि कोई कार्य करने का तरीका किसी एक दृष्टि से सर्वोत्तम प्रतीत होता है, तो दूसरा तरीका किसी अन्य दृष्टि से सर्वोत्तम प्रतीत होता है। प्रबन्धक को क्रियात्मक शोध, गणितीय एवं सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके लागत-लाभ का सापेक्षिक मूल्यांकन करना चाहिए। उदाहरणार्थ, कार्य करने का एक तरीका बहुत लाभदायक प्रतीत होता है, परन्तु उसके लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसके विपरीत, कार्य करने का दूसरा तरीका अपेक्षाकृत कम लाभदायक है, परन्तु उसमें कम पूँजी और जोखिम की आवश्यकता हो सकती है। इसी तरह तीसरा तरीका कम्पनी के दीर्घकालीन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है। प्रबन्धक को चाहिए कि अपने उद्देश्यों और संसाधन सामर्थ्य के अनुसार वैकल्पिक तरीकों का सापेक्षिक मूल्यांकन करे। यह कार्य आधुनिक प्रबन्धकों द्वारा स्वॉट विश्लेषण (Swot Analysis अर्थात् Strength, Weakness, Opportunity एवं Threat का विश्लेषण) द्वारा भी किया जा रहा है।

5, श्रेष्ठतम विकल्प का चयन (Electing the Best Alternative)- नियोजन प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण चरण है, सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करना। यही निर्णय का वह बिन्दु होता है जहाँ से योजना का निर्माण होता है। यह सर्वोत्तम का चुनाव ऐसे तत्त्वों को ध्यान में रखकर किया जाता है जो व्यवसाय विशेष में अपना निर्णायक महत्व रखते हैं। कभी-कभी विकल्पों के मूल्यांकन से यह निर्णय भी निकल सकता है कि योजना के लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई एक तरीका सर्वोत्तम न हो करके अनेक तरीकों का अनुकूलतम संयोग अधिक उपयुक्त सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में किसी एक सर्वोत्तम विकल्प के चुनाव के स्थान पर अनेक तरीकों के संयोग का चयन किया जाना अधिक हितकर होता है।

6, आवश्यक योजना एवं उपयोजना का निर्माण (Formulation of Necessary and Derivative Plan)- उद्देश्य प्राप्ति के सर्वोत्तम तरीके के चयन के पश्चात् आवश्यक योजना एवं उप-योजना को अन्तिम रूप दिया आता है। उप-योजनाएँ पूर्ण रूप से स्वतन्त्र योजनाएँ न होकर मूल योजना का ही एक अंग होती हैं और एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होती हैं। प्रत्येक योजना में इतनी लोच होनी चाहिए कि उसके विभिन्न अंगों में समयानुसार और आवश्यकतानुसार समायोजन किया जा सके और प्रतिद्वन्द्वियों की मोर्चाबन्दी की जा सके। मूल एवं उप-योजनाओं के सुचारु संचालन के लिए उनकी क्रियाओं का समय एवं क्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। यह क्रम अलग-अलग विभागों, शाखाओं, उत्पादकों, कार्य करने की अवधियों (दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, छमाही अथवा वार्षिक) क आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए।

7, कर्मचारियों के सहयोग की प्राप्ति (Securing Employees Cooperation)- अच्छी योजना बनाने मात्र से नियोजन प्रक्रिया पूर्ण नहीं मानी जाती, अपितु उसके क्रियान्वयन में संस्था के प्रत्येक कर्मचारी का सक्रिय सहयोग एवं सहभागिता प्राप्त करनी चाहिए। इस हेतु संस्था में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी का नियोजन से अवगत कराना चाहिए, उसे समझाया जाना चाहिए और टीम भावना के अनुसार उचित परामर्श लेना चाहिए। ऐसा करने से जहाँ नियोजन की गुणवत्ता में सुधार होगा वहीं कर्मचारियों में नियोजन के प्रति निष्ठा, रुचि एवं सहभागिता जागृत होगी।

8, अनुगमन (Follow-up)— केवल योजना बना देने मात्र से लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाते हैं। बहुत सावधानी एवं विश्लेषण के बाद बनायी गई योजनाएँ भी मूर्त रूप में असफल सिद्ध हो सकती हैं। अत: प्रबन्धकों को पुनर्निवेशन (Feed-back) की व्यवस्था करनी चाहिए और योजनाओं की व्यावहारिक क्रियाशीलता पर दृष्टि रखनी चाहिए। अनुगमन इसलिए आवश्यक है कि बदली हुई आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं सम्भावित परिवर्तनों के सन्दर्भ में योजना में आवश्यक संशोधन किया जा सके।

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