Management Accounting An Introduction Notes

Management Accounting An Introduction Notes

Management Accounting An Introduction Notes:- in this post we are going to share b com management accounting introduction characteristics or nature of management accounting, objective or Purpose of management accounting, Functions of Management Accounting, Rule of management of accounting, cost accounting and management accounting.

 

 

| विषय सूची (Contents) | 

प्रबन्ध लेखांकन – एक परिचय (Management Accounting – An Introduction)

बजटरी नियन्त्रण, 1872 (Budgetary Control) 

अनुपात विश्लेषण (Ratio Analysis) 

कोष प्रवाह विश्लेषण (Funds Flow Statement) 

रोकड़ प्रवाह विश्लेषण (Cash Flow Statement) 

प्रमाप लागत विधि -सामग्री एवं श्रम विचरण  (Standard Costing – Material and Labour Variance)

प्रमाप लागत विधि – उपरिव्यय विचरण (Standard Costing – Overhead Variance)

विक्रय विचरण (Sales Variance) 

सीमानत लागत विधि एवं अवशोषण लागत विधि (Marginal Costing and Absorption Costing)

सम-विच्छेद विश्लेषण (Break-even Analysis) 

B.Com IIIrd : Management Accounting (C-306) 

Unit I: Introduction : 

Meaning, Nature, Scope and Function of management Accounting, Role of Accounting; Management Accounting Vs. Financial Accounting; Tools and Techniques of management Accounting. 

Unit II : Budgetory Control: 

Meaning of Budget, Budgeting and budgetory control; Objectives, Merits and limitations of budgetary control; Types of budget: Fixed and flexible budget; Zerobard Budget; Performance budgeting. 

Unit III : Funds flow and cash flow analysis : Ratio analysis funds flow analysis and cash flow analysis as per accounting standards; Ratio analysis classification and limitations. 

Unit IV: Standard costing and analysis of variances : 

Meaning and nature of Standard cost ; Advantages and applications ; Steps in standard costing ; Variance analysis-material, Labour, Overhead and sales variances.

UnitV:Marginal Costing: Concept meaning and nature of marginal cost; Marginal cost as a tool of decisions making ; Marginal costing Vs absorption costing ; Break-even analysis; Exploring new markets; Make or buy decisions and shut down decisions. 

प्रबन्ध लेखांकन 

(6) उपभोक्ताओं की सेवा में सुधार प्रबन्ध लेखांकन के उपकरण एवं तकनीक अथवा प्रणालियों (Tools and Techniques or System of Management Accounting)

प्रबन्ध को अपने कार्यों का कशलतापर्वक निष्पादन करने के लिए अनेक प्रकार का सूचना का आवश्यकता होती है। प्रबन्ध लेखांकन एक अकेला ऐसा यन्त्र नहीं है जो प्रबन्धकों की लेखांकन-सूचना सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। प्रबन्ध लेखांकन अलग से कोई पद्धति नहीं है, बल्कि यह तो अनेक पद्धतियों का सम्मिश्रण एवं समन्वय है। अत: लेखांकन सूचना को अत्यन्त प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने हेतु प्रबन्ध लेखांकन में निम्नलिखित उपकरणों एवं तकनीकों का प्रयोग किया जाता है 

(1) वित्तीय नीति एवं नियोजन (Financial Policy and Planning) वित्तीय नियोजन से आशय किसी संस्था के लिए आवश्यक पूँजी की कुल राशि का पूर्वानुमान लगाना तथा उसके स्वरूप के सम्बन्ध में निर्णय लेने की प्रक्रिया से है। कुल प्राप्त किये जाने वाले कोष में अंश पूँजी तथा ऋण का क्या आनुपातिक भाग होगा, इसे निश्चित करना भी प्रबन्धकीय निर्णयन का कार्य है। ये सभी निर्णय महत्वपूर्ण होते हैं जिसमें प्रबन्धकीय लेखांकन वित्तीय नियोजन की तकनीक के माध्यम से निदान प्रस्तुत करता है। 

(2) वित्तीय लेखांकन (Financial Accounting)—प्रबन्ध लेखांकन के लिए सुव्यवस्थित वित्तीय लेखांकन पद्धति का होना आवश्यक है क्योंकि यह प्रबन्ध लेखांकन की आधारशिला होती है। 

(3).वित्तीय विश्लेषण (Financial Analysis)-वित्तीय विवरणों के विश्लेषण की तकनीकों में तुलनात्मक वित्तीय विवरण, अनुपात विश्लेषण, कोष प्रवाह विवरण, रोकड़ प्रवाह विवरण, प्रवृत्ति विश्लेषण आदि शामिल हैं। 

(4) पुनर्मूल्यांकन लेखांकन (Revaluation Accounting) इसका उद्देश्य इस बात का विश्वास दिलाना है कि संस्था की पूँजी सुरक्षित रखी गई है अर्थात् मूल्य परिवर्तन के प्रभावों का खातों में समायोजन कर लिया गया है तथा लाभों की गणना भी इसी आधार पर की गई है 

(5) बजटरी नियन्त्रण (Budgetary Cc.atrol)—यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें बजटों का नियोजन तथा नियन्त्रण के लिए प्रयोग किया जाता है। 

(6) प्रमाप लागत विधि (Standard Costing)-प्रमाप लागत विधि लागतों पर नियन्त्रण हेतु प्रबन्ध लेखांकन की एक महत्त्वपूर्ण तकनीक है। प्रमाप लागत लेखांकन प्रणाली में लागत के विभिन्न तत्वों के सम्बन्ध में प्रमाप निर्धारित किये जाते हैं। इस प्रकार प्रमाप लागत विधि संस्था की कार्य-कुशलता को बढ़ाने में सहायक होती है एवं यह ‘अपवाद द्वारा प्रबन्ध’ (‘Management by Exception’) को सम्भव बनाती है।

(7) सीमान्त लागत लेखा-विधि (Marginal Costing)-प्रबन्ध लेखांकन की इस तकनीक के अन्तर्गत उत्पादन की कुल लागतों को परिवर्तनशील (सीमान्त) तथा स्थिर, दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। 

(8) निर्णयन लेखांकन (Decision Accounting)-निर्णय लेने का अर्थ किसी कार्य को करने के विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने से है। इसके लिये सीमान्त विश्लेषण, वृद्धिशील विश्लेषण (Incremental Analysis), सम-विच्छेद विश्लेषण, लाभ-मात्रा विश्लेषण आदि तकनीकें प्रयोग की जाती हैं। प्रबन्धकीय लेखा-विधि की इन तकनीकों के आधार पर निर्णय लेने से ‘प्रयोग और त्रुटि’ (Trial and Error) की अवैज्ञानिक विधि के दोषों से बचा जा सकता है। 

लागत लेखांकन तथा प्रबन्धकीय लेखांकन 

(Cost Accounting and Management Accounting)

दोनों लेखा-विधियों में मुख्य अन्तर इस प्रकार हैं 

(1) विकास (Evolution)-लागत लेखा-विधि औद्योगिक क्रान्ति की देन है। इसका विकास बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हो गया था परन्तु प्रबन्धकीय लेखा-विधि का विकास गत सात दशकों में ही हुआ है। 

(2) उद्देश्य (Object) लागत लेखांकन का मुख्य उद्देश्य उत्पादित की जाने वाली वस्त अथवा प्रदान की गई सेवा की लागत ज्ञात करना है। इसके विपरीत प्रबन्धकीय लेखांकन का उद्देश्य व्यवसाय की क्रियाओं का नियोजन करने तथा उनका समन्वय करने के लिए प्रबन्ध को सूचना उपलब्ध कराना है। 

(3) क्षेत्र (Scope) लागत लेखांकन का क्षेत्र काफी संकुचित है क्योंकि लागत लेखांकन केवल लागत समंकों से ही सम्बन्धित है। इसके विपरीत प्रबन्धकीय लेखांकन का क्षेत्र लागत लेखांकन की तुलना में काफी व्यापक है। प्रबन्धकीय लेखांकन में वित्तीय लेखांकन, लागत लेखांकन, बजटिंग, कर नियोजन, प्रबन्ध को प्रतिवेदन देना एवं वित्तीय समंकों का निर्वचन आदि सम्मिलित हैं। 

(4) प्रकृति (Nature) लागत लेखांकन भूतकालीन एवं वर्तमान दोनों प्रकार की घटनाओं से सम्बन्धित है जबकि प्रबन्धकीय लेखांकन मुख्यतः भविष्य की घटनाओं से सम्बन्धित है। 

(5) प्रयुक्त समंक की प्रकृति (Nature of Used Data)-लागत लेखांकन उत्पादित की जाने वाली वस्तु अथवा प्रदान की गई सेवा की निर्माणी लागतों से सम्बन्धित हैं अर्थात् लागत लेखांकन में केवल मौद्रिक घटनाओं का ही अभिलेखन किया जाता है जबकि प्रबन्धकीय लेखांकन में परिमाणात्मक (मौद्रिक) एवं गुणात्मक (अमौद्रिक) दोनों ही प्रकार की सूचनाओं का प्रयोग किया जाता है। 

(6) लेखविधि-सिद्धान्त व प्रारूप (Accounting Principles and Format)-लागत लेखों का एक निश्चित प्रारूप होता है तथा इनके तैयार करने के सिद्धान्त भी निश्चित हैं। इसके विपरीत प्रबन्धकीय लेखांकन के अन्तर्गत न तो कोई निश्चित सिद्धान्त होते हैं और न इसके विवरण व प्रतिवेदनों का ही कोई निश्चित प्रारूप होता है। 

(7) समंकों का विश्लेषण एवं व्याख्या (Analysis and Interpretation of Data)-प्रबन्धकीय लेखांकन के अन्तर्गत प्राप्त समंकों का विश्लेषण एवं व्याख्या भी की जाती है जबकि लागत लेखांकन के अन्तर्गत समंकों के विश्लेषण एवं व्याख्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। 

वस्तुतः लागत लेखांकन एवं प्रबन्धकीय लेखांकन एक दूसरे के पूरक हैं। 

 

प्रबन्ध लेखांकन-एक परिचय (Management Accounting: An Introduction) 

प्रबन्धकीय लेखांकन का विचार जेम्स एच० ब्लिस (James H. Bliss) के प्रयत्नों से सन् 1950 में उदित हुआ। इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले आंग्ल-अमेरिकी उत्पादकता परिषद (Angio-American Council on Productivity) के तत्वाधान में सन 1950 में अमेरिका के भ्रमण पर आयी हुई लेखापालों की ब्रिटिश टीम ने किया था। इससे पूर्व प्रबन्ध लेखांकन शब्द का कहीं कोई सन्दर्भ नहीं था। प्रबन्ध लेखांकन, लेखांकन की नई शाखा हैं। प्रबन्धकीय लेखा-विधि अभी विकासवादी अवस्था (Evolutionary Stage) में है। प्रबन्धकीय लेखांकन की व्युत्पत्ति वित्तीय लेखांकन एवं लागत लेखांकन दोनों से हुई है।

 

प्रबन्ध लेखांकन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Management Accounting)

प्रबन्ध लेखांकन, लेखांकन की वह कला है जो केवल व्यवसायिक लेन-देनों को मुद्रा, मात्रा व समय के संदर्भ में विश्लेषित एवं निर्वचित करने से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि प्रबन्ध को व्यवसाय की नीतियों के निर्धारण, कार्यान्वयन एवं मूल्यांकन करने तथा दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं के नियोजन, नियन्त्रण एवं समन्वय में सहायता करती है। प्रबन्धकीय लेखा-विधि को निर्णयन लेखांकन भी कहते हैं। 

रॉबर्ट एन. ऐन्थोनी के अनुसार, “प्रबन्धकीय लेखा-विधि का सम्बन्ध उन लेखांकन सूचनाओं से है, जो कि प्रबन्ध के लिए उपयोगी होती हैं।” 

इन्स्टीट्यूट ऑफ एकाउन्टेण्ट्स ऑफ इंग्लैंड एण्ड वेल्स के अनुसार, “लेखा-विधि का कोई भी रूप जो कि व्यवसाय को अधिक कुशलतापूर्वक संचालन योग्य बनाए, प्रबन्धकीय लेखा-विधि कहा जाता है।” 

प्रबन्ध लेखाविधि की विशेषताएँ या प्रकृति (Characteristics or Nature of Management Accounting)

 

(1) प्रबन्धकीय लेखाविधि/लेखांकन भविष्य से सम्बन्धित है।

(2) प्रबन्धकीय लेखाविधि चयनात्मक प्रकति (Selective Nature) की है।

(3) प्रबन्धकीय लेखा-विधि कारण एवं उसके प्रभाव पर विशेष बल देती है। 

(4) प्रबन्धकीय लेखा-विधि में वित्तीय लेखा-विधि की भाँति निश्चित नियमों व प्रारूप का पालन नहीं किया जाता है। 

(5) प्रबन्धकीय लेखा-विधि समंक प्रदान करती है, न कि निर्णय।

(6) प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्धकीय आवश्यकताओं के प्रति अत्याधिक सचेत है।

(7) प्रबन्धकीय लेखा-विधि में ‘लागत तत्वों की प्रकृति’ के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाता है।

(8) प्रबन्धकीय लेखा-विधि एक समन्वित पद्धति है।

(9) प्रवन्धकीय लेखा विधि व्यवसाय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सहायक होती है।

(10) प्रबन्धकीय लेखांकन विज्ञान एवं कला दोनों ही है।

(11) प्रबन्धकीय लेखा-विधि अभी विकासवादी अवस्था में है। 

(12) प्रबन्धकीय लेखांकन में परिमाणात्मक (मौद्रिक) एवं गुणात्मक (अमौद्रिक) दोनों ही प्रकार की सूचनाओं का प्रयोग किया जाता है। 

(13) प्रबन्धकीय लेखाविधि, वित्तीय लेखों एवं लागत लेखों पर आधारित है। 

(14) प्रबन्धकीय लेखाविधि की विषयगत (Subjective) प्रकृति है। 

प्रबन्ध लेखांकन के उद्देश्य (Objects or Purpose of Management Accounting)

प्रबन्ध लेखांकन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं 

(1) वित्तीय सूचनाओं के निर्वचन में सहायता करना (Helpful in the interpretation of financial information) 

(2) नियोजन व नीति निर्धारण में सहायक (Helpful in planning and policy formulation)

(3) निष्पादन नियन्त्रण में सहायक (Helpful in Controlling performance) 

(4) संगठन-कार्य में सहायक (Helpful in Organising)

(5) कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना (Motivating Employees) 

(6) व्यावसायिक क्रियाकलापों के समन्वय में सहायता करना (Helpful in Co-ordinating business operations). 

(7) निर्णयन में सहायता करना (Helpful in decision making)

(8) संवहन में सहायक (Helpful in communication)

(9) कर-प्रशासन में सहायता करना (Helpful in tax administration)

प्रबन्धकीय लेखांकन का क्षेत्र (Scope of Management Accounting)-प्रबन्धकीय लेखाविधि के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों को शामिल किया जाता है-(1) वित्तीय लेखाविधि, (2) लागत लेखाविधि, (3) बजटन तथा पूर्वानुमान, (4) स्कन्ध नियन्त्रण, (5) प्रबन्ध को प्रतिवेदन देना, (6) समंकों का निर्वचन, (7) कर लेखांकन, (8) आन्तरिक अंकेक्षण, (9) उत्तरदायित्व लेखांकन आदि। 

प्रबन्धकीय लेखा-विधि के कार्य । (Functions of Management Accounting)

प्रबन्ध लेखांकन का विकास, प्रबन्ध को उसके कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए हुआ। इसमें वित्तीय लेखांकन से प्राप्त सूचनाओं को प्रबन्ध की आवश्यकतानुसार विश्लेषित एवं निर्वचित करके उसके सम्मुख रखा जाता है ताकि प्रबन्ध नीति-निर्धारण, नियोजन, निर्णयन तथा नियन्त्रण का कार्य कुशलतापूर्वक कर सके। इस दृष्टि से प्रबन्ध लेखांकन के कार्यों को निम्नलिखित दो वर्गों में रखा जा सकता है 

(अ) प्रबन्ध को लेखांकन सूचनाएँ उपलब्ध कराना, तथा ।

(ब) प्रबन्धकीय क्रियाओं के प्रभावशाली निष्पादन में योगदान प्रदान करना। 

 

(अ) प्रबन्ध को लेखांकन सूचनाएँ उपलब्ध कराना-प्रबन्ध को लेखांकन सूचनाएँ उपलब्ध कराने में प्रबन्ध लेखांकन के निम्नलिखित कार्य हैं 

(1) समंकों का अभिलेखन

(2) समंकों की वैधता निश्चित करना

(3) समंकों का विश्लेषण एवं निर्वचन

(4) संख्यात्मक रूप में सूचनाओं का संवहन 

(ब) प्रबन्धकीय क्रियाओं के प्रभावशाली निष्पादन में योगदान प्रदान करना-प्रबन्ध लेखांकन का मुख्य कार्य प्रबन्ध की सहायता करना है ताकि वह अपने दायित्वं को पूरा कर सके। प्रबन्धकीय लेखा-विधि, प्रबन्धकीय क्रियाओं के सफल व प्रभावशाली निष्पादन में निम्न प्रकार सहायता करती है 

(1) नियोजन में सहायता करना

(2) संगठन में सहायता करना

(3) कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना

(4) समन्वय में सहायक

(5) प्रबन्धकीय नियन्त्रण सुगम बनाना

(6) निर्णय लेने में सहायक

(7) संवहन में सहायक

(8) कर-प्रशासन में सहायता करना 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लेखांकन सूचना प्रबन्ध की प्रत्येक प्रक्रिया में सहायक होती है और इसीलिए प्रबन्ध लेखांकन को प्रबन्ध का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा है। 

प्रबन्धकीय लेखा-विधि का महत्त्व या भूमिका
(Importance/Significance or Role of Management Accounting)

 

(1) कार्यक्षमता में वृद्धि

(2) उचित नियोजन

(3) कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन

(4) विनियोजित पूँजी पर अधिकतम लाभ

(5) प्रभावशाली प्रबन्धकीय नियन्त्रण 

 

वित्तीय लेखाविधि और प्रबन्ध लेखाविधि में अन्तर (Difference between Financial Accounting and Management Accounting) 

वित्तीय लेखाविधि से आशय एक व्यवसाय के लेनदेनों को लेखांकन के सिद्धान्तों के आधार पर लेखापुस्तकों में लिखने, वर्गीकरण करने और विश्लेषण करने की कला से है जिससे कि निश्चित अवधि के अन्तर्गत व्यवसाय द्वारा अर्जित लाभ या हानि की स्थिति ज्ञात की जा सके तथा एक निश्चित तिथि पर व्यवसाय की आर्थिक स्थिति का विवरण तैयार किया जा सके। 

दूसरी ओर प्रबन्धकीय लेखाविधि से तात्पर्य वित्तीय लेखाविधि में तैयार किये गये विवरण पत्रों तथा अन्य स्रोतों से महत्त्वपर्ण सचनाओं को एकत्र करने उनका विश्लेषण करने तथा उनको प्रबन्ध के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करने से है जिससे कि प्रबन्ध को अपना कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने में सहायता प्राप्त हो सके। 

इस प्रकार जहाँ पर वित्तीय लेखाविधि का कार्य समाप्त होता है वहीं पर प्रबन्ध लेखाविधि का कार्य प्रारम्भ होता है। वित्तीय लेखांकन के अभाव में प्रबन्ध लेखांकन सम्भव नहीं है। वास्तव में दोनों ही लेखाविधियाँ एक दूसरे की पूरक हैं किन्तु दोनों पद्धतियों में अनेक भिन्नताएँ भी पायी जाती हैं जो निम्नलिखित हैं 

(1) प्रकृति (Nature) वित्तीय लेखांकन में वास्तविक आँकड़ों का उपयोग किया जाता है जबकि प्रबन्धकीय लेखांकन में प्रक्षेपित अथवा अनुमानित आँकड़े प्रयोग में लाये जाते हैं। 

(2) उद्देश्य (Object)—वित्तीय लेखाविधि का उद्देश्य व्यवसाय के वित्तीय लेनदेनों का अभिलेखन करना, एक निश्चित अवधि की आय ज्ञात करना तथा एक निश्चित तिथि पर व्यवसाय की आर्थिक स्थिति को दर्शाना होता है जबकि प्रबन्धकीय लेखाविधि का उद्देश्य प्रबन्धकों को उनके कार्यों के कुशलतापूर्वक निष्पादन के लिए आवश्यक सूचनायें प्रदान करना होता है। 

(3) विषय-सामग्री (Subject-matter) वित्तीय लेखांकन सम्पूर्ण व्यवसाय के परिणामों के मूल्यांकन से सम्बन्धित होता है जबकि प्रबन्धकीय लेखांकन विभिन्न इकाइयों, विभागों और लागत केन्द्रों का अलग-अलग व्यवहार करता है। 

(4) अनिवार्यता या बाध्यता (Compulsion)-वित्तीय लेखाविधि कुछ व्यवसाय के लिवैधानिक रूप से अनिवार्य होती है तथा कुछ व्यवसाय के लिए अन्य कारणों से आवश्यक होती है। किन्तु प्रबन्ध लेखाविधि ऐच्छिक होती है। 

(5) प्रतिवेदन देना (Reporting)—वित्तीय लेखाविधि में लेन-देनों का विश्लेषण करके लाभदायकता एवं वित्तीय स्थिति से सम्बन्धित सूचनाएँ निर्धारित प्रारूप में तैयार की जाती हैं तथा ये 

(6) लेखांकन सिद्धान्त (Accounting Principles)-वित्तीय  में लेखे तैय समय लखाकन के सामान्य स्वीकृत सिद्धान्तों का पालन किया जाता है किन्तु प्रबन्ध लेखाविधि में इन नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन करना आवश्यक नहीं होता। 

(7)पवणन (Description)-वित्तीय लेखांकन में केवल उन्हीं व्यवहारों को लिपिबद्ध किया जाता है जिन्हें मौद्रिक मूल्यों में मापा जा सकता हो। इसके विपरीत सभी प्रबन्धकीय लेखांकन में मौद्रिक तथा अमौद्रिक सभी घटनाओं का प्रयोग किया जाता है। 

(8) प्रकाशन (Publication)-वित्तीय लेखाविधि में तैयार किये गये विवरण पत्रों, लाभ हानि खा तथा स्थिति विवरण आदि को सामान्य जनता की सूचनार्थ प्रकाशित किया जाता है। किन्तु प्रबन्धकीय लेखाविधि में तैयार की गयी सूचनाएँ और प्रतिवेदन केवल प्रबन्धकों के उपयोग के लिए ही होते हैं तथा उनका प्रकाशन नहीं किया जाता। 

(9) अंकेक्षण (Audit) वित्तीय लेखों का अंकेक्षण भी कराया जा सकता है। प्रबन्धकीय लेखांकन का अंकेक्षण नहीं किया जा सकता है क्योंकि ये वास्तविक आँकड़ों पर ही आधारित नहीं होते हैं। इसमें प्रक्षेपित आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है। 

(10) अवधि (Period) वित्तीय लेखे एक निश्चित अवधि सामान्यतया 1 वर्ष के समयान्तर पर तैयार किये जाते हैं जबकि प्रबन्धकीय लेखा-विधि के अन्तर्गत प्रतिवेदन व विवरण बार-बार और थोड़े-थोड़े समयान्तर पर तैयार व प्रस्तुत किये जाते हैं। अत: प्रबन्धकीय लेखे तैयार करने की कोई निश्चित अवधि नहीं होती। 

(11) संवहन की शीघ्रता (Dispatch) वित्तीय लेखांकन की तुलना में प्रबन्धकीय लेखा-विधि में सूचनाओं के अतिशीघ्र संवहन की आवश्यकता होती है। शीघ्र तथा नवीनतम सूचनायें ही प्रबन्ध की कार्यवाही का आधार होती हैं। 

(12) शुद्धता (Precision) वित्तीय लेखांकन में सूचना की पूर्ण शुद्धता अपेक्षित होती है जबकि प्रबन्धकीय लेखा-विधि में सूचना की पूर्ण शुद्धता आवश्यक नहीं होती। 

(13) क्षेत्र (Scope)—प्रबन्धकीय लेखा-विधि का क्षेत्र वित्तीय लेखा-विधि से अत्यन्त व्यापक है। 

प्रबन्धकीय लेखा-विधि की सीमाएँ – (Limitations of Management Accounting)

यद्यपि वर्तमान व्यवसाय जगत में प्रबन्धकीय लेखाविधि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है परन्तु इस विषय की भी निम्नलिखित सी 

(1) वित्तीय एवं लागत लेखों पर आधारित (Based on Financial and Cost Accounts)-प्रबन्धकीय लेखा-विधि में प्रयुक्त अधिकांश सूचनाएँ वित्तीय लेखा-विधि, लागत लेखा-विधि व अन्य प्रलेखों से एकत्र की जाती हैं। अतः प्रबन्ध लेखापालक द्वारा निकाले गये निष्कर्षों की सत्यता एवं शुद्धता पर्याप्त सीमा तक इन मौलिक प्रलेखों की सत्यता व शुद्धता पर निर्भर करती है। 

(2) सम्बन्धित विषयों के ज्ञान का अभाव (Lack of knowledge of Related Subject) प्रबन्धकीय लेखाविधि का सही उपयोग तभी किया जा सकता है जब प्रबन्ध को ऐसे सभी विषयों का समुचित ज्ञान हो जिन पर प्रबन्ध लेखाविधि धारित है जैसे लेखाविधि, सांख्यिकी, अर्थशास्त्र. प्रबन्ध के सिद्धान्त आदि। 

(3) खर्चीली पद्धति (Expensive System)—प्रबन्धकीय लेखाविधि की स्थापना का कार्य अत्यन्त खर्चीला हो जाता है। अतः इसका उपयोग केवल बड़े व्यवसाय द्वारा ही किया जा सकता है। 

(4) प्रशासन का विकल्प नहीं (Not an Alternative to Administration)- प्रबन्धकीय लेखांकन प्रशासन का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं करता है।. 

(5) विकासवादी अवस्था (Evolutionary Stage)-प्रबन्धकीय लेखा-विधि का अभी पर्ण विकास नहीं हो पाया है। प्रबन्धकीय लेखांकन अभी विकासवादी अवस्था में है। 

(6) अन्तर्बोधात्मक निर्णय (Intuitive Decisions)-यह हो सकता है कि प्रबन्ध-तन्त्र निर्णय लेने की लम्बी प्रक्रिया से बचने का प्रयास करे और सरल उपाय द्वारा निर्णय पर पहुँचने के लिए अन्तर्बोध (intuition) का सहारा ले ले। इस प्रकार अन्तर्बोधात्मक निर्णय प्रबन्धकीय लेखांकन ही उपयोगिता को सीमित कर देते हैं। 

(7) विषय-परकता का अभाव (Lack of Objectivity)-प्रबन्ध लेखापाल द्वारा प्रदान की गयी सचनाओं में मानव-निर्णय का तत्व विद्यमान रहता है। अतः सूचनाओं के संकलन से लेकर इनकी व्याख्या तक इन पर व्यक्तिगत विचारों व निर्णय का प्रभाव पड़ता है। इससे पक्षपात और हेर-फेर की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं। 

(8) विस्तृत क्षेत्र (Wide Scope)-प्रबन्धकीय लेखा-विधि का कार्यक्षेत्र बहुत अधिक विस्ता होने के कारण इसके प्रयोग में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिन पर समुचित ध्यान देर ही इसे प्रभावशाली बनाया जा सकता है। 

(9) मनोवैज्ञानिक अवरोध (Psychological Resistance)-प्रबन्धकीय लेखांकन की स्थापना करने में संगठनात्मक स्वरूप में मूलभूत परिवर्तन करने पड़ते हैं। नये नियमों और उपनियमों की भी रचना करनी पड़ती है जिनका कार्मिकों (personnel) पर प्रभाव पड़ता है और इसीलिए प्रारम्भ में स्वयं कुछ प्रबन्धकों द्वारा ही इसका विरोध किया जाता है। 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जब तक इन सीमाओं को ध्यान में रखे बिना प्रबन्ध लेखांकन का प्रयोग किया जायेगा, इसके लाभ प्राप्त नहीं हो सकेंगे। 

 


 

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